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और वह गीत हो गई

छः हज़ार सात सौ पचास फीट ऊँचाई पर बसे रद्दोवाल गाँव को पानी जा रहा था। वर्षों बाद उठाऊ पेयजल योजना का उद्‍घाटन हो रहा था। सारे इलाक़े के लोग मंत्री जी की जै-जै कार करते आगे बढ़ रहे थे। अभी स्वागत के समय उनके गले में पड़े फूलों के हार उनके पी.ए. ने अपने पास ले लिए थे। आज के बाद इस शिखर के गिर्द सभी गाँवों के हर घर के नल में पानी बहेगा। दूर से पानी लाने की ज़िल्लत से छुटकारा मिल जायेगा। 

वन औनी पहुँचने पर काफ़िला रुका। मंत्री जी ने उद्‍घाटन के बाद रद्दोवाल जाने का मन बनाया था- आज तक इस शिखर पर कोई राजनेता नहीं गया था। बियूँस की छाया में मंत्री जी रुके। थोड़ा सुस्ताने के बाद यात्रा आगे आरम्भ होगी। एक नेता ने बताया कि पहले इस जगह से ले जाते थे लोग पानी। भाई ने मुझे बताया, "महाजनू यहाँ से पानी ले जाती थी। दो घड़े उठा लेती थी वह... और ओ सामने बड़योग गाँव - यहाँ गाई गई थी उसके नाम की पहली गित्ती (गीत)।" भाई के शब्दों से पहाड़ी नाटी (गीत) के बोल एक बारगी हवा से निकल मेरे कानों के भीतर समा गए थे। मंत्री जी का काफ़िला विचारों की सड़क पर पीछे छूटता चला गया। महाजनू की स्मृति भीतर आकार ले गई थी। 

एक बार महाजनू के देवर देविए ने खचाखच भरे प्रांगण में आयोजित करियाले (लोक नाट्य) में एक रुपया इनाम देकर उस नाटी की फ़रमाइश की थी। नचनीए ने डरते-डरते कहा था- "माराज पता नहीं कैसे बन गई नाटी, मेरा मन नहीं था। बस सोचता गया बोल बनते गए। आप बुरा मानेंगे। पहलवान हैं, मुझे अपनी हड्डी-पसली का खयाल है। गरीब हूँ, बस रहने दो।" 

इस पर महाजनू के देवर ने दम्भ से कहा था- "अरे! इसमें क्या है? जो जिन्दादिल होते हैं, उनकी ही बनती है नाटियाँ, उड़ती है गीतियाँ।" फिर पीठ थपथपा कर कहा- "जा तू अभय होकर गा।" नचनीए ने ढोली, नगारची, नफीरीवादक को इशारा किया। हरमोनियम वाले ने अपनी उँगलियाँ ’रीडो‘ पर फेरी- और वातावरण में नाटी का संगीत फैल गया। सबके कान खड़े हो गए। नचनीया देविए के पास से हटकर नया-नया चला रुपए का नोट दाँतों में दबा वहीं से नाचने की मुद्रा बना अखाड़े की ओर आया। सभी को पता चल गया कि महाजनू की नाटी गाई जाने वाली है। उत्सुकता से दर्शकों के कान खड़े हो गए। कुछ डर से आशंका भी करने लगे कि कुछ उल्टा-सीधा होगा यहाँ। नचनीए ने गीत का स्वर उठाया -

ग्यानुए री बेड़ा दे देवी रा देऊरा
नह्ठीं गई महाजनू, 
रोया करेया देविया देऊरा-
रोया करेया देविया देऊरा।

ग्यानुए री बेड़ा दे बलद बोला
उंदे ल्याऊणा ग्यानुए खे 
महाजनू रा डोला-
उंदे ल्याऊणा ग्यानुए खे 
महाजनू रा डोला।
..........................
...........................
(ग्यानु गाँव के बीच देवी का मंदिर है और यहाँ जो महाजनू नामक सुन्दरी थी वह भाग गई है अतएव देविया देवर तू रोता रहना। ग्यानु गाँव में एक बैल सफेद माथे वाला है- ग्याणा गाँव को महाजनू की डोली लानी है।.....)

और हाऽ, हाऽ, हा....हा... करती भीड़ ने पैसा, आना, चवन्नी, बीड़ी इत्यादि की वर्षा कर दी। करियाले का रस लेती भीड़ नाटी पर मोहित हो गई थी। उनकी आँखों में सच्ची-सुच्ची महाजनू उतर आई थी। दो घड़े उठाए। वनऔनी से रद्दोवाल को जाती। बोल-बोल पर उठे उनके हँसी और ठहाके, गूँज रहे थे। कविता में पिरोए कथासूत्र मज़ा दे रहे थे। कुछ  दर्शक दाँतो तले उँगली भी दबा रहे थे- इन ठाकुरों ने अपने पर बने व्यंग्य गीत को गर्व से गवा दिया। अरे! मान-पान का ख़ायाल ही नहीं। हल्के हो गए अब ये। कोई कहता- "तब क्या है, गाने वाला भी उनका अपना ही रिश्तेदार है। नचनिया हुआ तो क्या?"

आज़ादी के एक दो वर्ष बाद की बात है यह। महाजनू ग्यानपुर के सुदामा के घर एक रात की दुल्हन बनकर आई थी। चौथे घर। इस बार रीत प्रथा (मूल्य चुका कर ब्याह कर लेना) में महाजनू के आगे चयन के लिए दो घरों के वर थे। एक सुदामा और दूसरा मियाँ। मियाँ साधन सम्पन्न था। उसने कहलाया था, "महाजनू जात-पाँत की छोड़, अपने जीवन की सोच। मेरे घर से बढ़िया घर नहीं मिलना। राज करेगी राज।" महाजनू के आगे मिएँ की उम्र का ख़याल था। वह सुदामा से कम से कम पाँच वर्ष बड़ा था। सूरत में भी उतना लुभावना नहीं था। दूसरे उसकी घरवाली उसे छोड़ कर गई थी। क्या पता उसे क्या दुःख हो? सामने तो सब अपना-अपना अच्छा दिखाते हैं। सुदामा की घरवाली का लम्बी बीमारी के बाद देहान्त हुआ था। वह उम्र में भी महाजनू से क़रीब वर्ष भर बड़ा था। लम्बा छरहरा जवान गबरू- शिमला में नौकर, सफ़ेद कुल्ले वाली पगड़ी लगाता, गहरे नीले रंग का कोट डालता, वैसे ही रंग का पाजामा पहनता है तो साहब लगता है। एक बार उसने उसे अपनी सखी जुध्या की शादी में देखा था। महाजनू जब गिद्दे में नाची थी तो उसने एक रुपया उस पर वारंडा किया था। एक रुपये का वारना तब इलाक़े में मायने रखता था।

महाजनू वनऔनी से घड़े पर घड़ा रख दो किलोमीटर अपने गाँव ले जाया करती थी। दो किलोमीटर के रास्ते में आबादी के नाम रामसरन की दोगरी थी। एक तरह से पहला पड़ाव। यहाँ वह अपने सिर पर से सहेली को घड़ा उतारने को कहती। कभी राम सरन के किसी सदस्य को। थोड़ी देर सुस्ताने छाया में बैठती। कभी मन करता ’लोका‘ गा लेती। फिर सखियों के काफ़िले के साथ चल पड़ती अगली यात्रा पर। कई बार वनऔनी में बावड़ी की स्फील पर रखे घड़े को सिर पर रखने से पूर्व सोचती- काश! यह चश्मा पहाड़ के इस ओर न होकर दूसरी ओर होता - तब उसका गाँव पानी वाला गाँव कहलाता। वहाँ से वह तराई में बसे गाँवों के नालों में बहता चिलकता पानी देखती। बरसात से पहले धान के खेतों में चमकता पानी उसे लालायित करता। काश! वह वहाँ जन्मी होती। एक-दो बार रिश्तेदारी में गई थी।  धान रोपती औरतों के साथ जानू तक सलवार छंग (उठाना) कर कादो बने खेत में हिचकोले खाकर चलना अच्छा लगा था। शिखरों पर ऐसा कहाँ नसीब। वहाँ तो गुसलखाने के पानी को भी निथारना पड़ता है ताकि पशुओं को पिलाया जा  सके। इस शैल पर्वत पर क्यों बसाया होगा बसीला? लोग यहाँ की लड़कियों को ब्याहना तो चाहते हैं, यहाँ देना पसंद नहीं करते... उसकी सोच कहीं टकरा कर वापस आ जाती। नाले में छोड़ी गूँज की मानिंद- कोई साथिन कहती- महाजनू कहाँ खो गई।

रद्दोवाल गाँव बान, रई, देवदार के घने वृक्षों के जंगल के पार एक खुले मैदान में बसा था। मीलों तक फैला मैदान और हल्की ढलान। गाँव के नाम पर कुछ मकान और बाक़ी लम्बे चौड़े खेत। कई बार मेहमान पूछते- एक ओर इतना घना जंगल, एक ओर ऊँचे, पहाड़, यहाँ मैदान कैसे बना होगा? प्रतिष्ठित लोग उत्तर देते, माया प्रभु की। किसी ऋषि ने प्रलय के समय तप किया होगा! आप पूछेंगे गाँव कैसे बसा- यह भी कृपा प्रभु की। कथा यह भी कि कभी यहाँ इन्द्रलोक की अप्सराएँ गेंद खेला करती थीं। एक चरवाहा बरसात में भैसों के साथ इधर आ निकला। उसने अप्सराओं का खेल देखा- एक उस पर मोहित हो गई- वह यहीं का होकर रह गया। बाल-बच्चे हो गए। गाँव बस गया। कोई यह भी कहता कि रद्दू नामक एक व्यक्ति घर से भाग कर यहाँ आ गया था। एक परी के मोहजाल में फँस गया। वह उसे दिन में अंधा बना कर रख देती- रात को रास करती। उसके नाम पर बसा यह गाँव। कोई परी की जगह घास लाने आए काफ़िले में से एक लड़के-लड़की के इश्क़ की बात कहता- ख़ैर, जितने मुँह उतनी बातें।

वहीं एक घर में पैदा हुई थी महाजनू। उसके बचपन का तो नहीं मालूम, मगर पानी लाने और रामसरन के लड़के से उसका प्रेम हो जाने का चर्चा नीचे तराई तक के गाँव में फैल गया। यह भी कि वे विवाह कर रहे हैं गंधर्व रीत से क्योंकि जातिगत फ़ासलों से उनका विवाह नहीं हो पा रहा। यह भी कि महाजनू पर आए यौवन के ज्वार का पता सबसे पहले राम सरन के लड़के को लगा। संभवतः किसी ने इसे लक्ष्य ही न किया हो। कारण यह भी कि रद्दोवाल और वनऔनी के बीच आबादी के नाम एक दोगरी ही तो थी। गाँव में एक ही बिरादरी के लोग- भाई बहन का रिश्ता- महाजनू की यात्रा का परिक्षेत्र भी इतना ही था- क्या हुआ जो वर्ष में एक-दो बार देव मिलन के अवसर पर चूड़ियाँ पहनने, बिन्दी, चंवर (पुरान्दा), सूर्खी लेने, जलेबी खाने और हिन्डोले में झूलने के लिए आती। सखियों के साथ कभी फोटो खिंचवाती। वहाँ किसी किशोर ने गर कोई फिकरा कसा तो, फिक्क कर हँस दी और चली आई गाँव।

०००

रामसरन का घर यूँ तराई में ही था मगर उसने थोड़ी सी ज़मीन रद्दोवाल और वनऔनी के बीच तैयार की थी। यहाँ वह बरसात में मक्की, कंगनी, तिल वगैरा उगाता था। यहीं एक दिन जब महाजनू अपना घड़ा उतारने के लिए खड़ी हुई तो ऊपर वाला घड़ा रामसरन के फौजी लड़के ने उतरवा दिया। दूसरा घड़ा स्वयं उतार कर उसने ऊपर देखा- फौजी खड़ा मुस्करा रहा था- उसे देख महाजनू का दिल धक्क कर रह गया। क्या गबरू जवान है। फौजी वर्दी में सजा छबीला- कहीं जाने को तैयार। मन में उठी धक्क से रक्तचाप बढ़ गया था और गोरे गाल रक्ताभ हो गए थे। "ऊपर आओ...," उसने कहा था। एक संगीतमय आवाज़ कानों से होती दिल में उतर गई थी। भीतर से निकला- क्या सुर है... उसने सहेली की ओर देखा- सखी चुप। वे ऊपर नहीं गईं। कोई संवाद नहीं- फौजी ने कहा- "थक जाती होंगी, इतना बोझ, दो-दो घड़े...."

"क्या करना, अब पानी नहीं है तो कुछ तो करना ही पड़ेगा।" उसके भीतर से खुली आवाज़ निकली। यह अपनी स्थिति पर व्यंग्य भी था। वह अपने वहाँ जन्मने और मुशक्क़त से आहत भी थी। छोटा सा संवाद। महाजनू वहीं बैठ गई। सुस्ताने। पहले की तरह। वह ’लोका‘ गाना चाहती थी मगर गा नहीं सकी। सोचा, ऊपर आँगन में फौजी बैठा होगा। पहली बार उसे अपना ख़याल आया। घड़ा उठाने लगी तो फौजी ने पूछा- आज ’लोका‘ नहीं गाया।

०००

फौजी से उसकी दो-तीन मुलाकातें और हुईं और एकाकी अंतरंग मुलाकातें भी होने लगीं। वह वनऔनी तक साथ भी आया। मन की बातें ओंठों तक आ गई। और सखियों ने एक दिन उसे अकेला छोड़ दिया। छेड़छाड़ में एक दिन कह भी दिया। अब वनऔनी न जाया कर। तेरा फौजी यहीं ला दिया करेगा पानी। ... प्रीत बढ़ी कि कुछ ज़्यादा ही बढ़ गई। इसका अहसास महाजनू की माँ को भी हो गया। एक दिन वह रात में बाहर उल्टियाँ करने लगी थी। माँ ने उसके पिता से बात की और एक दिन महाजनू एक अधेड़ दुहाजू व्यक्ति के पल्ले बाँध दी गई। फौजी वापस मोर्चे पर जा चुका था।

अधेड़ व्यक्ति महाजनू को नहीं भाया। उसकी आँखों में फौजी की छवि रहती। अपनी स्थिति पर कुढ़ती- "हम लड़कियों में माता-पिता के आगे झुकने की प्रवृत्ति क्यों होती है?"

वह बड़ी मुश्किल से वहाँ कुछ महीने काट सकी। एक दिन मायके आई तो माँ से बोली, "माँ, मैंने नहीं रहना उसके साथ। एक तो मारता है दूसरे ठीक नहीं रखता।" 

माँ ने उसके फूल रहे पेट की ओर इशारा किया- "मरजाणी ये जो पल रहा है, इसका क्या करेगी, बता यह किसका है? इसका तो नहीं। तेरी सहेली कह रही थी कि यह.."

स्मृतियों में खो गई महाजनू। यह क्या हो गया उससे? सोचा ही नहीं। फौजी भी कहाँ चला गया? उससे कहती। फिर ख़याल आता-फौजी से तो ब्याह हो ही नहीं सकता। जात-बिरादरी... उसे क्रोध आया। क्या बना रखा है? मर्द तो मर्द होते हैं। फौजी और उस अधेड़ में उम्र का ही तो फ़र्क़ है फौजी के आगे वह दिल से गई थी- मगर अधेड़ के साथ वह एक लाश की तरह रहती है- मुआ न प्यार जानता है न औरत की इज़्ज़त। उसे बस काम चाहिए। रोटी बनाने और पशुओं का करने को एक औरत। बस्स। एक बोल भी प्यार का नहीं। बोलता है मानो लकड़ियाँ तोड़ रहा हो... उस दिन मेले में गई तो चूड़ियाँ ही ख़रीदने नहीं दी। जो गहने ब्याह में लाए थे, दूसरे दिन एक-एक ले लिए थे। कहीं से धरोहर उठा लाए थे। - ग़रीब हैं तो क्या? मन तो उसका भी है। मुए ठगी कर गए। उसकी कड़ी पकड़- वह अपने कोमल, लम्बे, पुष्ठ शरीर को देखती। नहीं यह नहीं। माँ को कहा उसने, "मैंने नगरड़ी (ज़हर) खा लेनी। खुद भी मर जाणा और ....।"

माँ ने समझाया था, "उसे वंश वृद्धि के लिए बच्चा चाहिए। तेरा पाप वहाँ खप्प जायेगा। वरना मुश्किल होगी।" महाजनू हाय कर रह गई थी।

भाग्य कहो या विधान, उसके ठहरा गर्भ समय से पहले ही चला गया। वह माँ बनते-बनते रह गई। इस चक्कर में वह माँ-बाप के घर कुछ ज़्यादा ही ठहर गई। एक दो बार पति आया भी लेने मगर वह बहाने कर टालती गई। हर बार मन बीच में आ जाता। भीतर की नफ़रत ज़ुबान पर ’अभी ठहरो‘ कह देती। एक दिन उसे और उसके पिता को पंचायत में बुलाया गया। पति के घर न जाने के कारण पूछे गए। वहीं उससे पूछा गया कि पति के साथ रहना या नहीं। वह पति के साथ जाने से मुकरी तो पति के द्वारा विवाह पर आए ख़र्चे का प्रश्न उठा। बहस मुबाहिसे के बाद ’रीत‘ (स्त्री मूल्य) हो गई। ’रीत‘ का ख़र्च तभी अदा किया जायेगा जब वह किसी दूसरे घर जा कर बैठेगी। कुँवार वर तो टूट ही गया है, अब वह आज़ाद है।

महाजनू अब आज़ाद हो गई थी। अपनी मुक्ति से उसे लगा वह उड़ रही है। तराई के गाँवों में जाकर पहाड़ की झिझक खुल गई थी। उसकी नई सहेलियों का एक दायरा भी बन गया था। माँ-बाप से थोड़ा बाहर हो वह अब इस तलाश में थी कि कब फौजी बाहमन आए और वह उसके साथ भाग जाए।

इसी बीच एक दिन उसकी मुलाकात एक करियाले में स्वांगी लक्ष्मी से हुई। फौजी की छवि उसने उसमें देखी। साथ जात बिरादरी भी। वह अपने जीवन के बारे नए सिरे से सोचने लगी। लक्ष्मी एक हँसमुख जवान। साधों के स्वांग से खेल तक वह हीरो रहता। उसके दिल में नया वितान बिछने लगा था।

०००

महाजनू ने लक्ष्मी में अपना पहला प्यार पा लिया था। वह ख़ुश थी। एक दिन उसने अपनी माँ को बताया भी, "माँ अब ठीक है।" माँ ने अनुभव के आधार पर कहा था- बाँध के रखेगी न, तो जीवन कट जाएगा।  जब औरत घर बदलने लगती है न, उसे लोग यूँ ही समझते हैं। मुझे यही डर रहता है। एक दाग लग जाए तो फिर दाग लगते ही रहते हैं। बच्चा हो जाता तो भी ठीक था। तेरा घर बस जाता...।" माँ की वाणी में हल्का नैराश्य था।

एक दिन उसे लगा कि माँ की बात ठीक सिद्ध हो रही है। लक्ष्मी के वो प्यार भरे बोल। पहाड़ से भी ऊँचे सपने, लम्बे वायदे, क़समें, वो मेले में लिए तोहफ़े, सब धीरे-धीरे क्षरण को प्राप्त हो रहे हैं- जीवन का कड़वा यथार्थ सामने आ रहा है। अब उसकी ज़रा सी ज़ुबान पर सब कुछ हाज़िर होने वाला, कटु वाक्यों और घर की ज़िम्मेवारी के निर्वहन में समायोजित हो रहा था। एक ओर प्यार के कोटे में कमी, दूसरी ओर घर में काम का बोझ, वह कहीं भीतर विरक्त सा महसूस करने लगी। छः फ़ुट लम्बी, अठारह इंच चौड़ी देह वाली महाजनू जो कभी दो घड़े उठा कर तीन किलोमीटर एक रफ़्तार से चल लेती थी, जो किसी युवा की अगर एक बार कलाई पकड़ ले तो छूटते न बने, अब कमज़ोर महसूस करने लगी थी। लक्ष्मी से उसने इस बीच जितनी फ़रमाइशें कीं सब मौखिक वायदों को प्राप्त कहीं धूल चाट रही होतीं- वह कई बार अपने जिस्म को देखती, फिर अपने पेट पर हाथ मारती, "कोई बच्चा ही हो जाता, तो दिल लगा रहता- लक्ष्मी के पास तो समय ही नहीं है। यह घर का हाड तोड़ काम, ओफ्ह...।" वह ठण्डी श्वास भरती।

वह कई बार अपनी सहेली से भी कहती, "औरत क्या केवल दो जून की रोटी ही चाहती है, या छट्ठे महीने एक जोड़ी कपड़े? प्यार के नाम पर देह का आदान-प्रदान... और बस्स। प्रेम का एक भी शब्द नहीं। तना हुआ चेहरा। ये बाहर वालों का क्रोध घर में स्त्री पर उतारना... क्या चाहती है वह? बस इतना कि साँझ को दस मिनट वे जब भी बतियाएँ तो सारे झंझटों से दूर केवल अपना आपा। निज और केवल निज। कई बार जो हम सामने देखते हैं वह अल्प समय तक ही अच्छा लगता है- लक्ष्मी का वह करियाले वाला चुलबुलापन आकर्षित तो करता है पर उसमें पूर्णता नहीं है। कब तक जीवन की अहम समस्याओं को हँसी में टालते रहेंगे?"

और फिर असंतोष से फूटा बीज, पौधा बनने लगा- ’नहीं।‘ यह पुरुष उसे जीवन सुख नहीं दे सकता। ठीक से नहीं रख सकता। ...इसकी बंदिशें ही इतनी है कि मायके जाना भी मुश्किल। माना वे लोग शिखर पर जंगल के पार रहते हैं, पर उसका तो बचपन वहीं उसी मिट्टी में बीता है। वह खेली है... अपनी मिट्टी से प्यार है उसे। इधर पता नहीं मुआ कहाँ से पता कर आया कि उसके फौजी से सम्बन्ध थे। मुआ शब्द निकलने से पछताई वह। बेशक बुरा है- पति को गाली नहीं निकालनी चाहिए। .... इसको फौजी का डर है, तभी नहीं भेजता मायके। पुरुष पता नहीं क्यों होते हैं, ऐसे? काश! फौजी अपनी जगह टिक पाता। नहीं टिक सका। प्यार में एक जज़्ब करने की शक्ति होती है। प्यार मन से होता है। दिल का दिल से वास्ता रहता है। देह तो एक माध्यम है। वह पचा ही नहीं सका। चर्चा कर गया। मानो तब मिल जानी थी वह। छिऽ! ...गर वह भाग गई होती तो, जाने क्या देखना पड़ता। भेड़ तो वह बनना नहीं चाहती थी कि गर्मी-सर्दी से पहले उसकी ऊन उतार ली जाती। न ही कोई गाय कि जब चाहे खूँटा बदल दिया। एक ठोस वक्ष, सबल बाजू, पायदार और सायदार बन्दा चाहिए.... बेशक मुझे नया खाबिन्द करना पड़े, वह एक पक्का धरातल चाहती है। करने दो लक्ष्मी को करियाले और रचने दो स्वांग। जीवन स्वांग नहीं है...। वह कुढ़ जाती। सोच से उठ आसमान निहारती और दूर क्षितिज में अस्त होते सूर्य के तेज से रंग बदलती तितरा पंखी बादली को देखने लग जाती चुप। किसी आहट से बड़ी देर बाद अपने चैतन्य में लौट, घर के शेष काम में जुट जाती।

और एक दिन ज़रा सी बहसमबाज़ी पर घर छोड़ गई महाजनू। अपने मान के ख़िलाफ़ सुने शब्दों से उठी असहनीय पीड़ा सहती वह एक दिन अपने मायके में आँगन की मेंड पर बैठी थी कि देवीया आया। राम रमैया, हाल-चाल के बाद सीधा सा सवाल- "मेरे भाई की घरवाली मर गई है। चाहो तो उसके बैठ जा। घर-वर तो तुझे मालूम ही है।"

प्रस्ताव पर चौंकी थी वह। इस समय वह अपने बारे में ही सोच रही थी। देखो विडम्बना मिएँ का प्रस्ताव भी कल ही आया था। एकाएक लगा कि वह मिट्टी नहीं, कुछ है। उसका नाम है। - सुदामा के घर जाने में एक लाभ यह भी है कि देविए की घरवाली उसकी सहेली है। दोनों में निभ जाएगी। वह उठी और घर की दीवार में लिपाई के समय चिपकाए शीशे के टुकड़े में अपना चेहरा देखने लगी। फिर शीशे के बारे में सोचने लगी। माँ भी क्या है, टूटा शीशा दीवार में चिपका दिया। खुद कहती है कि टूटे शीशे में मुँह नहीं देखना चाहिए... शीशे पर धूल जमी थी। उसने आँचल के एक कोने से धूल साफ़ की। चाप के आकार में टूटे इस शीशे में महाजनू को अपना चेहरा दूज के चाँद सा दिखा। मुस्काई वह। पटड़े पर बैठे पहलवान देविए से बोली, "सोचूँगी। अभी पहले वाला कहाँ छोड़ रहा।"

"तू हाँ कर, वो जिम्मा मेरा रहा। रीत कर लेंगे....। उसके साथ सुखी नहीं रहनी तू।"

चुप रही वह।

देविए ने कहा- "तू इस इतवार को आ जा। रात को। दूसरे दिन धाम कर लेंगे। फिर पंची, पंचायत में फैसला। यूँ छूटने की बात करती रही तो साल लग जायेगा। और पंची में दलपत आया न कहीं तो तू नहीं कर सकेगी दूसरा खसम। मर जाणी कुढ़-कुढ़ कर। जे कहीं कोई बच्चा हो गया तो घर, बच्चे का मोह कहाँ छोड़ने देगा तुझे! अपने मन के मुताबिक रहना और जीना ही तो जिन्दगी है। मर-मर कर जिए तो क्या जिए? ...मेरे भाई को तो तू जानती है। सुखी रहनी तू- घूमेगी फिरेगी। चार धाम तो उसके दौरों में ही हो जाने। उसकी अपने साहबों के साथ खूब पटती है।"

"बच्चे का मोह तो होता है। मगर मन बड़ा होता है, देविया। उस बुड्ढे ने मुझे ठीक से नहीं रखा वर्ना कौन चाहता है कि यूँ हवा में उड़ता रहे, पेड़ से छूटे पत्ते की तरह- एक मान, सम्मान तो होना ही चाहिए... वो तो इतना चाहता था कि उसका वंश चले। बस्स। कपाल क्रिया के लिए एक लड़का आए। भाड़ में जाए स्त्री का मन,  मान और उसकी जरूरतें। वह तो बनी ही मर्द के लिए हैं।" वह रुकी। काफ़ी देर बाद बोली- "देविया तन ही सब कुछ नहीं है।"

"अरे! छोड़ तू, भाभी। राज करेगी हमारे घर। तेरी सहेली तो मेरी घरवाली है। हम तेरी सेवा में होंगे। वहाँ क्या कमी है। हो लिया था जो होना था। बहुत शरीफ है मेरा भाई। पहले वाली को पता नहीं क्या हुआ- ऐसा मर्ज बैठा कि ले ही गया। देख! मैंने तुझे भाभी मान लिया है। अब तू जान।"

जाने कितनी हाज़रियाँ लगी देविए की और उसकी घरवाली की। महाजनू का एक दिन सुदामा के घर आने का विचार बन ही गया। सुदामा उसकी आँखों में बस गया था। इधर लक्ष्मी ने भी उसकी सम्भाल नहीं ली। वह यही कहता कि वह खुद गई है तो लौटे भी खुद। वो नहीं आएगी तो दूसरी औरतों की कमी नहीं। महाजनू ने सब पता किया- सुदामा की पहली घरवाली बीमार पड़ी तो उसने उसकी बहुत सेवा की। डाक्टरों को दिखाया- उसके साथ ही रहा। उसका हाथ अपने हाथ में लिए, दिलासा देता- तू ठीक हो जाएगी। कोई नहीं कर सकता इतनी सेवा... उसे विश्वास हो गया था कि सुदामा उसे ठीक रखेगा। प्यार करेगा, कद्र करेगा। कुछ दिन अपने पास शिमला रखेगा- क्या पता अपने साथ दौरे पर भी ले जाए। वह हरिद्वार जाना चाहती है- गंगा मैया से अपने लिए माफी माँगेगी। हँसी वह- वह तो शिमला भी नहीं गई है। शिमला देखने की बहुत इच्छा है- सुना है वहाँ गोरी मेमें अभी भी हैं- नंगी टाँगों से चलती हैं। किसी का कहा याद हो आया। महाजनू तू तो मेम लगती है। भीतर ही भीतर शिमला देखने की इच्छा प्रबल हो गई- उसे एक गीत याद हो आया-

ठण्डी सड़क बम्बे दा पाणी,
ओ‘ शिमले रेआ बाअुआ जो
 
(शिमला की सड़कें ठण्डी है, उन पर जगह जगह ठंडे पानी के नल लगे हैं जो शिमला के बाबू लोगों के लिए है....)

इसके पीछे एक कारण और भी था। ग्यानपुर की इतनी प्रशंसा हो गई थी कि वह उस गाँव को भी एक बार देखना चाहती थी। पानी, लकड़ी की प्रचुरता। यह भी कि वहाँ की तो गाय भी पैर धोकर घास खाती है। ’कक्कड़‘ के इतने विशाल वृक्ष कि यदि जंगल से बंदर को उस पार जाना हो तो इन्हीं वृक्षों की सड़क उसे पहुँचा देती है- कहीं नीचे नहीं कुदकना पड़ेगा। एक पेड़ के खोल में तो एक बार आग लगी तो साल भर बाद पता चला जब लपटें आसमान में देखी गईं। एक अजूबा सा गाँव और लुभावना सुदामा का चरित। और एक गीत उसके मन से निकल स्मृति में छा गया- ठण्डा हुन्दा बे ग्यानुए रा पाणी......।

और इधर सुदामा के भीतर महाजनू के भीतर उगाए फूल, कलियों से खिल कर सुगंध बिखेरने लगे थे। उसकी आसक्ति बढ़ गई थी। एक बार महाजनू आ जाए तो वह सौभाग्यशाली समझेगा। उसकी कुपड़े सी सफ़ेद काया, लम्बा तगड़ा देह परिक्षेत्र और उसका मीठा स्वर संसार। काम में इतनी तेज़ कि अच्छी-अच्छी औरतों को मात दे दे। वह कहता भी- मुए जाने क्या चाहते थे उससे जो ठीक न रख सके वर्ना इस जैसी सूरमी औरत... वह उसे पश्म के पट्टू की तरह सम्भाल कर रखेगा। बस वह हाँ कर दे। वह अपने भाई को कहता, "तू ऊपर नहीं गया।" फिर नेवल से पूरे उत्तरी किनारे पर विस्तार लिए हरसंगधार को देखता- ऊपर बना देवते का मंदिर- सफ़ेद देवरा एहसास दिलाता- यहीं कहीं उस तरफ ढलान पर है महाजनू का गाँव। क्या कर रही होगी इस समय। कभी धार पर से देखती होगी हमारा गाँव। "विचारती होगी...।" फिर मन ही मन उससे मुख़ातिब होता- सब्र कर, कुछ दिनों की बात है। छूट जाएगा ये वनऔनी से पानी ढोना। यहाँ ईश्वर ने पानी दिल खोल कर बाँटा है। स्वर्ग है यहाँ...। और भी जाने कितने वितान फैलते उसकी आँखों में, मन के भीतर। वह लौट जाता। मन में एक टीस लिए शिमला। वहाँ से साहब के साथ दौरे पर। शाम को कहीं पड़ाव पर सूर्यास्त के समय निहारता आसमान। लाल होते बादल और अंदाज़ लगाता- यहीं कहीं होगा उसका गाँव। परदेश। अपने अकेलेपन में बरबस निकलता- तितरा पंख की बादली, जहाँ हमारा देश... बारह बरस की ब्याही गोरड़ी कंत झूरे परदेश। गीत के बोल अपने से मिलाता।

एक दिन उसके अस्फुट स्वरों को साहब की बीवी ने सुन लिया था- पूछा था इसका मतलब। वह तब कुछ नहीं कह सकता था कि उसका मन गाँव में है महाजनू के पास।

०००

दिन तय हो गया था। सुदामा को शिमला संदेश भेज दिया कि तुम इस बीच कोई दौरा नहीं रखना। सुदामा का उत्तर भी आ गया था कि तुम ’गाडर‘ (दूसरी पत्नी लाने पर दिया जाने वाला भोज) की तैयारी करो। देविए ने दलपत साहूकार से ’रीत‘ के लिए तीन सौ रुपये ले लिए। धनकुटी लगवा दी थी जहाँ धान कूटने शुरू कर दिए थे। बारह मन चावल के लिए समय तो चाहिए। सभी युवा दोस्त धनकुटी पर पैर मारने के लिए आने लगे। बड़े भी हुक्का लिए आ जाते। काम के साथ गप्पबाज़ी का मज़ा ही कुछ और है। धाम में सात सब्जियों और घी-शक्कर की बात होती। तब शराब का चलन नहीं हुआ था।

सब तय हो गया और गाडर का दिन निकट आ गया था। इस बीच ख़बर आई कि सुदामा दफ़्तरी हो गया है और उसे साहब के साथ अचानक दौरे पर जाना पड़ा है। उसने संदेश पहुँचाया कि वह जैसे-कैसे भी नियत दिन आ जायेगा- बारात तो जानी नहीं है, सो तुम लोग आदर से महाजनू को ले आना।

इधर महाजनू के आगे मिएँ का प्रस्ताव भी उतना ही ज़ोर पकड़ रहा था। ग्यानपुर के बराबर ही है उसका गाँव। उसके मन में अजीब सी उलझन थी। किसे चुने? किसे ठुकराए? और लक्ष्मी का भी संदेश आ गया था- वह पंची लेकर आ रहा है। दो गबरू भी। अगर सीधे से नहीं मानी तो उठा कर ले आएगा। वह उसकी है। कोई और आँख उठाएगा तो आँख निकाल ली जाएगी। उसने यह बात देविए को बताई। देविए ने अपने पहलवानी शरीर और भीम बाजू को दिखाया- पाँच-छः के लिए अकेला काफी है। तू गम न कर।

मिएँ के साथ एक उड़ता सा अन्य प्रस्ताव भी आया था जिसे उसने नज़रन्दाज़ कर दिया था। उसे अपने मूल्य का पता लग रहा था। वह जाने कितनी पिछली कल्पनाओं में डूबती, अपने सपनों को साकार होता देखती। वह कहती भी- एक पुरुष में तीन गुण तो ज़रूरी हैं- वह उसे अथाह प्यार करता हो, उसे पूरी तरह से बल देता हो, खानदानी देकर उसकी इच्छाओं की पूर्ति करता हो और कभी-कभी ताड़ता भी हो। प्यार में हाथ भी उठा दे तो बुरा नहीं। यदि सुदामा में ये सब गुण हुए तो उसे मुझसे कोई शिकायत नहीं होगी। "मैं जानती हूँ पुरुष को कब क्या चाहिए? उसे सब कुछ मिलेगा। भरपूर।" मन की बात उसने सखी से भी कह ही दी। "मिएँ का प्रस्ताव भी बराबर का है। पर पहल तेरी है सो चाहे एक दिन के लिए ही सही। सुदामा के घर बैठना ही है। वह नहीं आयेगा तो किस्मत उसकी। मैंने उसे मन ही मन पति वरण कर लिया है..." लक्ष्मी की पंची अब वहीं होगी, पीपल की छाँव में।

०००

गाडर के दिन सुदामा नहीं आ पाया था- महाजनू नाई, पुरोहित और पंचों के साथ आ गई थी। धाम के बाद रात भर गिद्धा पड़ा। गाँव की नाचने वाली लड़कियों, बड़ी स्त्रियों ने धूम मचा दी। महाजनू भी ख़ूब नाची। बल्कि उसने नई-नई बोलियाँ गा कर अपना सिक्का जमा दिया। उसके देवर देविए ने तीन-चार बार आन्ने-आन्ने के सिक्के उस पर वारे। ढोलक बजाने वाला ख़ुश था, वार पाकर। सुबह तक चला गिद्धे का कार्यक्रम। पौ फटने लगी तो सब अपने-अपने घरों को चले गए। महाजनू अपने कमरे में चली गई। तभी सुदामा का संदेश आया कि वह शिमला पहुँच गया है। बस मिलते ही आ जाएगा। दोपहर तक या शाम तक तो ज़रूर। उसे कहा था कि इंतज़ार करे। नौकरी में ऐसा हो जाता है। साहब माना ही नहीं।

सुदामा की बात सुन उसने कमरे का जायज़ा लिया। सामान देखा और सुदामा की अनुपस्थिति महसूस की। वह यहाँ होता तो कितना अच्छा होता। काश! वह सेहरा लगा कर आता। काश! हमारे समाज में स्त्री को भी पुरुष की तरह दुबारा पालकी में बैठने का रिवाज होता। ये क्या तीन लोग भेज दिए। तीन वहाँ से मिल गए और ब्याह को दे दिया नाम गाडर का। सात फेरे तो बस पहले ब्याह में ही लिए जाते हैं। उसके मुँह से ’ऊँहूँ‘ निकला। फिर सुदामा के बोल कि वह आ रहा है। ऊपर सड़क तक पहुँच भी गया तो पैदल दो घंटे लग जाने। वह बिस्तर पर लेट गई। गिद्धे की थकान ने उसे नींद में ले लिया।

दोपहर बाद महाजनू की नींद टूटी। वह बाहर आई। उसके साथ आए लोग विदाई ले रहे थे। मुजारे धाम की बटलोइयाँ माँजने लगे हुए थे। देविए ने उसे फिर सुदामा के संदेश के बारे में बताया। वह चुप रही। थोड़ी देर आँगन में गप्पबाज़ी होती रही। मायके से आए लोगों ने विदाई ली और वह अपने कमरे में आ गई। चारपाई पर बैठी, पाँव के अँगूठे से जमीन कुरेदती रही बड़ी देर तक।

०००

गोधूलि की रज पर्यावरण में बिछ गई थी। पनिहार पर औरतें दिन भर की थकान हँसी, धौल-धप्पे, नुक्ताचीनी करके भूला रही थी। सुदामा थका-माँदा पीठ में घर की ज़रूरतों का सामान बाँधे आँगन में आया। आँगन से एक अलग तरह की ख़ुशबू आई। लिपा हुआ घर। उतारे हुए बेल-बूटे। सफील पर दरी का गुद्दड़- वह कल्पना कर गया यहाँ बीच में हुआ होगा गिद्धा। वह मन ही मन जश्न का आनन्द लेने लगा। किस्मत। काश ! वह समय पर आ पाता। आँगन में भाई ने उसका स्वागत किया। उसने दौरे में आए व्यवधान। बस की खराबी का ज़िक्र कर अपनी सफाई इस तरह दी कि कमरे में उसकी प्रतीक्षा में बैठी महाजनू भी सुन ले। फिर पूछा- "कहाँ है वो?"

"ऊपर होनी कमरे में। दोपहर बाद से निकली ही नहीं है। जुध्या पशुओं का करने गई है, वह बुलाएगी।"

सुदामा भीतर गया। कमरे का पल्ला उड़का हुआ था। वह खंकारा। फिर पल्ला हटाया। अंदर अँधेरा था। वह दरवाज़े के पास खड़ा हुआ। कहा- :दिया नहीं जलाया।"
कोई आवाज़ नहीं। चूड़ियों की खनक भी नहीं। सुदामा का माथा ठनका। महाजनू तो ऐसी नहीं थी। एक खुली औरत थी वह। उसने माचिस जलाई। झर्र की आवाज़ के साथ जो लौ हुई उसमें चारपाई खाली दिखी। वह घूमा। दूसरी चारपाई भी खाली। समझा बाहर गई होगी, दिशा-पानी को। उसने दिया जला दिया। थोड़ी देर चारपाई पर बैठे प्रतीक्षा की। वह नहीं आई तो छोटे भाई को बुला लिया।

छानबीन होने लगी। एक बच्ची ने बताया कि साँझ होते ही वह पीपल के पास थी। उधर से आगे जा रही थी। सुदामा तड़प कर बोला- वह चली गई। सोचा उसने वह अपना वायदा निभा गई। उसने कहा था- औरत नदी की धार होती है। उसे एक सीमा तक ही बाँधा जा सकता है। कहीं उसे एहसास हो गया कि वह नहीं आयेगा। कल लोग पूछेंगे? इसलिए निकलो यहाँ से। उसने कहा- "जरूर वह मिएँ के गई होगी।"

देविया गुस्साया- "तू जल्दी नहीं आया। वो चली गई। मिएँ का बहुत जोर था। क्या पता मिएँ के आदमी भी साथ हो और उकसा रहे हों कि तू ऐसे ही रहा करेगी अकेली- पति के इंतजार में और वो रहा करेगा दौरों पर। - अब तू अपनी रीत में दिए रुपये का इंतजार कर।"

गर्जा सुदामा भी। यार! ये खेल थोड़ा भी है। ऐसे कैसे चली जायेगी। घसीट कर लाओ उसे। दो जणे दौड़ाओ और इससे पहले कि वह मिएँ के घर पहुँचे, पकड़ लो। दो जूते लगाओ। इज्जत भी कोई चीज होती है... रुपये भेजेगी साली टके की औरत। अगर मिएँ के घर भी पहुँच जाए तो वहाँ से भी घसीटो। देख लेंगे- कल कोर्ट ही तो होगा।

महाजनू नहीं लौटी। लोग लौट आए।

महाजनू चली गई। लोगों ने उसे भाग जाने का नाम दिया। सुदामा और देविए की नपुंसकता का भी नाम दिया। लोक गायक ने तुकबंदिया जोड़ एक यथार्थपूर्ण गीत बनाया। लोक नाट्यों, समारोह में फ़रमाइश पर गाया जाने लगा गीत। जिस पर पैसे की बौछार हो जाती थी। और वही गीत एक दिन देविए ने रुपया देकर स्वयं अपने गाँव के करियाले में गवाया था।

ग्यानुए री बेडा दे प्याजों री पाखी
नह्ठी गई जुध्या तेरी बी सक्की
नह्ठी गई महाजनू रोया करे देविया देऊरा

(ग्यानू गाँव के बीच प्याज की कोंपले हैं। जुध्या वो तेरी अपनी थी, वह भी भाग गई... देविया देवर तू रोया करना।)

०००

ढोल के ताशे की रणक, मेरे कानों में गूँज उठी। ऐसी ही स्थिति रही होगी तब।

एक झटका सा लगा। ठण्डी साँस निकली। मंत्री जी का काफ़िला आगे बढ़ गया था। बैंड बज रहा था- देवता के मंदिर से ढोल, करनाल, रणसिंघा शहनाई भी लाए गए थे। जो बारी-बारी बजाये जा रहे थे। मेरा मन महाजनू के साथ कहीं दूर भटका था कि भाई ने बताया, "महाजनू की बेटी है इस जलूस में। नेता बन गई है वह।"
सभा स्थल पर मंत्री जी अपने भाषण में कह रहे थे- आज सरकार महिलाओं के सशक्तिकरण पर ध्यान दे रही है। उन्हें उनके अधिकारों के बारे में समझाया जा रहा है- यहीं की बात लो अब रद्दोवाल और आस-पास के गाँवों को वनऔनी पानी के लिए नहीं आना पड़ेगा। घड़े, बटलोई की तो छुट्टी समझो। घर-घर, आँगन-आँगन नल होगा। अब प्याऊ भी नहीं लगाने पड़ेंगे। यही नहीं उन्हें पंचायतों में आरक्षण प्राप्त है, विधान सभाओं, लोक सभा में भी...। वह पुरुष की गुलाम नहीं है। समृद्ध और सबला है वह। हम उसके साथ हैं। और बहन मालती तो आपके इलाक़े की ही हैं। ये महिला प्रकोष्ठ की सक्रिय सदस्य हैं... मेरा ध्यान महाजनू की लड़की की ओर गया। वह अपना सिर हिला रही थी। एक नूर चेहरे पर था। भाई ने तभी बताया- यह भी महाजनू की तरह तीन घर कर चुकी है।

कितना बढ़िया समय था तब। कितनी आसानी से सम्बन्ध विच्छेद हो जाते थे। आज कितना कठिन है। औरत रज़ामंदी न दे तो मर्द फँसा हुआ और मर्द न दे तो औरत मझधार में। विदेशों में अच्छा है। हमारी पूर्व रिवाज की तरह...।

महाजनू का ध्यान फिर हो आया था। उसके मिएँ के घर एक लड़की पैदा हुई थी। लड़की जन्म कहो या कुछ और वह वहाँ भी संतुष्ट नहीं रहने लगी। सारी सुविधाओं के बीच कोई भीतरी चीज़ थी जो दरार पैदा कर गई- कोई कहता, महाजनू के किसी और से सम्बन्ध थे, कि सुदामा वहाँ आता है। कोई कहता, मियाँ लम्पट है, तीन-चार औरतों से सम्बन्ध है। कि वह मारता-पीटता है...

महाजनू शिमला चली गई। एक मेम ने उसे अपने पास आया रख लिया। वह अकेली ही रहती थी। स्वतंत्रता के बाद उसने इंग्लैंड वापस जाने को मना कर दिया। रिश्तेदार सभी चले गए। उम्र बढ़ गई तो सहारे की ज़रूरत पड़ी। सो महाजनू का आना ऐसा लगा मानो वे दोनों एक दूजे के लिए बनी हो। वह आया कम सहेली ज़्यादा सिद्ध हुई। अब वह मेम के साथ मेम बन बाज़ार में निकलती। बाद में मेम ने अपनी कोठी महाजनू के नाम कर दी। इस धर्म पर कि उसके मर जाने पर उसका कफ़न-दफ़न वह ठीक से करा देगी।

इसी मेम रूप में एक दिन ठण्डी सड़क पर महाजनू की भेंट सुदामा से हो गई। पहचान नहीं पाया था वह। महाजनू ने ही कहा- "अरे। माहणुआ..." हँसी थी वह। महाजनू को पहचान सुदामा ने एक बार ऊपर से नीचे तक निहारा। उम्र अपना हक जमा चुकी थी। एक क्षण को मन में उसके पूर्व व्यवहार पर क्रोध भी आया। मगर जल्दी थूक दिया। अब क्या करना? सूखे गले को थूक से तर कर पूछा - "तू ! इस रूप में।" 

"जिंदगी, रे माहणुआ। ... तू आणा कोठी पर। मैं चलती हूँ।" ठण्डा निःश्वास ले वह मेम के साथ आगे बढ़ गई। सुदामा के मन में कितने सवाल उमड़ पड़े थे।

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