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अवनी पर अमन क़ायम हो

पुस्तक : कुछ कोलाहल कुछ सन्नाटा 
कवयित्री : डॉ. जी नीरजा
संस्करण : प्रथम, 2019
विधा : कविता 
प्रकाशन : परिलेख प्रकाशन , नजीबाबाद
मूल्य : 150 रुपये 

डॉ. जी नीरजा (1975) प्रतिष्ठित रचनाकार और समीक्षक होने के साथ ही अनुप्रयुक्त भाषा विज्ञान और तेलुगु साहित्य के इतिहास की जानी मानी विदुषी हैं। ये द्विभाषी मासिक पत्रिका स्रवंति के  सह संपादक तथा मासिक पत्रिका शोधादर्श के संयुक्त संपादक की महती भूमिका का निर्वाह भी कर रही हैं। ये अनुवादक के रूप में तेलुगु, तमिल और हिंदी के साहित्य को समृद्ध करने का महत्वपूर्ण कार्य कर रही हैं। इनकी हिंदी सेवा के लिए इन्हें केंद्रीय हिंदी  निदेशालय, युवा उत्कर्ष साहित्यिक मंच (नई दिल्ली), शार्प रिपोर्टर (आजमगढ़) तथा अन्य  संस्थाओं से सम्मानित किया गया है। साहित्य अपने हर रूप में जीवन और जगत की छवि ही उकेरता है - कभी वीभत्स, कभी शांत, कभी रोमांच से भरा और कभी कल्पनाओं की सुंदर दुनिया का सपना जो हर ख़ौफ़ से आज़ाद और सबके लिए महफूज़ हो – इन सबसे ही  साहित्य उदित होता  है! जीवन केवल  संगीत की सुरीली तान सा सरस किसी का नहीं होता। सबके जीवन में सुकून के साथ कोलाहल और सन्नाटे के लिए पर्याप्त जगह होती है। 

डॉ. जी. नीरजा के काव्य संग्रह ‘कुछ कोलाहल कुछ सन्नाटा’ (2019) की कविताएँ अपनी समग्रता में जीवन संघर्ष की सपाटबयानी है। कवयित्री की इच्छा इस धरा पर शांति की स्थापना करने की है। पर यह अमन कायम कैसे हो? महानगरीय सभ्यता में अपने आप तक सिमट कर रहनेवाले लोग कोलाहल और सन्नाटे के आदी हो चुके हैं। शांति से उनका वास्ता भंग हो चुका है। ऐसे में प्रेम और शांति कायम करने की चाह रखते हुए कवयित्री की चिंता है कि इस ‘स्व’ के संकुचित दायरे का विस्तार कैसे करें! उनके शब्दों में, “टूटे दिलों को जोड़कर / ऊँच नीच की दीवार तोड़कर / अपनी तक़दीर रचें कैसे?/ इस आक्रमण से बचें कैसे?” (यही है महानगर, पृ.29)। बार-बार संघर्ष में  मात खाने पर जो टूट जाए वह आज की नई स्त्री नहीं। ‘आशियाना’ कविता हिम्मतवाली नई स्त्री का चित्र है। स्त्री विमर्श कवयित्री का प्रिय विषय रहा है। स्त्री जीवन और संघर्ष से जुड़ी कई कविताएँ इस संग्रह में है, जैसे – ‘हक की लड़ाई’, ‘स्त्री’, ‘खतरे में बेटियाँ’, ‘गर्भ से’ इत्यादि। ‘एक ही तत्व’, और ‘मेरे साजन’ जैसी कविताओं में प्रेम की अभिव्यक्ति है। प्रेम दुनिया का सबसे सुंदर पक्ष है तभी ‘विरेचन’ कविता के माध्यम से वे संदेश देती हैं कि क्यों न प्रेम उन सबसे भी किया जाय जिनका प्रिय कार्य निरंतर आपको कोसना हो। चौरासी योनि में भटकने के बाद जो मानव जन्म मिला है उसे क्यों क्रोध में जलाकर राख करना! ‘संधिपत्र’ कविता का एक अंश यहाँ द्रष्टव्य है, “पर ऐसा भी क्या गुस्सा / कि जीवन बीत जाए, गुस्सा न बीते। .. तुम विजेता हो – चिर विजेता ;/ मैं पराजित हूँ – प्रेम में पराजित।/ कभी तो मैं बनकर देखो।” (पृ. 46)। प्रेम का यह संधिपत्र जो  दो जन के बीच का क़रार है क्यों न इस करारनामे पर सबके हस्ताक्षर हो ताकि सच में ‘अवनी पर अमन क़ायम हो’। दुनिया में हो रहे अत्याचार पर कवयित्री की नज़र है और वे अत्याचारियों को शांतिपूर्ण चेतावनी के लहज़े में कहती है, “सारे शिकार एकजुट हो रहे हैं,/ तुम्हारे ख़िलाफ़ बग़ावत तय है!” (ख़बरदार, पृ.50)। ऐसा होता तो अच्छा था पर शिकार शिकारी के डर से त्रस्त अपनी चोट को एक – दूसरे से छिपाए रखते हैं। इन मुट्ठी भर शिकारियों ने पूरी मानव जाति को आतंकित कर रखा है। एकजुटता के इस अभाव को भरना होगा! कब तक आतंक से दहलते रहेंगे! कब तक जीवित ही मरते रहेंगे! यह घुटने का सिलसिला केवल बाहर ही नहीं है, घर मे भी चलता है। संग्रह की कविता ‘तपिश’ की कुछ पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत हैं, “बुना तो था प्यार का घोंसला / बन गया जाने कब / बिना दरवाज़ों का अँधेरा तलघर।/ रिश्ते कफ़न बन गए / घर चिता।/ मैं झुलसती रही / इस आग में।” (पृ56)। ‘चमड़ा’ कविता  भी अत्याचार की कहानी कहता है। प्रस्तुत है एक अंश, “लेकिन अत्याचार का इतिहास / लिखा जाता है / आज भी / चमड़े पर ..../  चमड़ा पशुओं का, / चमड़ा मनुष्यों का - / औरतों और बच्चों का / किसानों और मज़दूरों का।” (पृ.64)। अत्याचार से त्रस्त मानव का धैर्य छूटना लाजिमी है पर कवयित्री ने इस छूटते हुए धैर्य को गुरु कहा है – “निरंतर छूटता धैर्य ही गुरु है / तुमसे सीख ही लिया मैंने / तुमुल कोलाहल के बीच सन्नाटे को जीना;” (सीखना, पृ. 72)। इस संग्रह में होली के हाइकु के साथ कुछ अन्य त्रिपदी भी हैं।
  
टैलेंट जो शिक्षा और तकनीक के सीमित अर्थ में प्रायः  प्रयुक्त होता है उसका विस्तार मिट्टी की दुनिया तक दिखाते हुए कवयित्री कहती हैं, “खून टपकती अंगुलियों से / टोकरियाँ बनाना टेलेंट है,/ कच्ची मिट्टी को आकार देना टेलेंट है।” (पृ. 33) । यह सच है वास्तविक टैलेंट वही है जो आत्मनिर्भर जीवन जीने में सहायक हो। कागज के मोटे पुलिंदों के साथ सड़क पर भटकाने वाली शिक्षा के पक्षधर बापू भी कहाँ थे! अक्षर ज्ञान आवश्यक है पर हुनर उसके समकक्ष आवश्यक है। इंसान की योग्यता का प्रमाण उसका ओहदा नहीं उसकी कर्मठता है।

कवयित्री ने अँग्रेज़ी के शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग किया है। उनका यह प्रयोग उनकी कविताओं में उनके शब्द प्रवाह को और गतिमान करता है और संदर्भ के उपयुक्त जान पड़ता है। इस प्रयोग से हिंदी का स्वरूप बोझिल नहीं हुआ है। इसमें अँग्रेज़ी शब्दों का हिंदीकरण करते हुए उनकी सहज ग्राह्यता झलकती है। इस काव्य संग्रह के अंत मे कालोजी नारायण राव की तेलुगु से हिंदी में अनूदित कविताएँ हैं। उन कविताओं के शीर्षक हैं – ‘एक और महाभारत, इच्छा, विडंबना, वोटों का क्या कहना, झूठी प्रशंसा, मुझे क्या हुआ इत्यादि। इसके बाद प्रो. ऋषभदेव शर्मा की हिंदी से तमिल में  अनूदित कविताएँ हैं जिनके शीर्षक हैं – ‘गुड़िया – गाय – गुलाम’, ‘मुझे पंख दोगे’ और ‘प्यार’। इसी क्रम में डॉ. कविता वाचक्नवी की दो कविता है – ‘धूप समझती’ और ‘अभ्यास’। और सबसे आख़िर में ‘नत नयन प्रिय कर्म रत मन’ निराला के इन शब्दों से कवयित्री को सुशोभित करता हुआ डॉ. पूर्णिमा शर्मा का वक्तव्य है जिसमें उन्होने कवयित्री के व्यक्तित्व और कृतित्व पर विस्तार से प्रकाश डाला है। आरंभ में डॉ. गंगा प्रसाद विमल एवं देवी नागरानी द्वारा पुस्तक पर पूर्ण प्रकाश डाला गया है। इस कृति के पुरोवाक लेखक डॉ. गंगा प्रसाद विमल अब हमारे बीच नहीं हैं। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।


 डॉ. चंदन कुमारी 
हिंदी विभाग
ए के दोशी महिला महाविद्यालय, जामनगर 
08210915046 

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