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बाबा कबीर

संन्यासिनी के अंतस में
सन्निपात हुआ है
संसार के तिरोभाव के विस्फोटन से भी
तीक्ष्ण और प्रचंड है
विकृत घावों की पीड़ा
स्वस्थ करने के लिए
बाबा वैद्य बन जाते हैं


संन्यासिनी ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता को
एकसार्थ करके
द्वैत-क्रीड़ा के समस्त विलक्षण व्यापार और 
उनसे उभरती आकृतियों को
त्यक्त करना चाहती है
लेकिन, अंतर्दृष्टि की 
जादुई छड़ी
बाबा के हाथों में है


संसार के मोह बंधनों को
त्याग दिया था उस स्त्री ने जूठन जान
लेकिन परम पुरुष से उसका प्रेम
अगाध के दूरस्थ मंडल से
विभिन्न आयोजन कर
बाबा को आने के लिए
बाध्य कर देता है


निर्जन एकांतता की झंकार में
ध्यानोत्सव के शाश्वत नृत्य में
अंतर्मन की गाद खुरचकर
संन्यासिनी पुकारती है
बाबा "कबीर" का नाम
जो, समग्र सृष्टि में
"चेतनता" का पर्याय 
बन चुके हैं

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