अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

बाल श्रम

 "मेम साहब और कुछ चाहिये," कहकर एक नौ-दस वर्ष का बालक, चाय का कुल्हड़ मुझे थमाकर, केतली से जलता हाथ सहलाने लगा।

फटी कमीज़ और फटे नेकर में, दिसम्बर की कड़क्ड़ाती ठंड में, दाँत किटकिटाता वह खड़ा था। मैँ स्वेटर और कोट पहन कर भी शीत अनुभव कर रही थी।

करुणा से द्रवित होकर मैंने सौ का नोट उसके हाथ पर रखकर कहा, "बेटा! फुटपाथ से एक स्वेटर खरीद लेना।"

उसके कुतूहल भरे नेत्रों में प्रसन्नतायुक्त सागर हिलोरें लेने लगा। उसने इधर-उधर देखा और फिर शीघ्रता से नोट अंटी में छिपा लिया।

दो माह पश्चात.... "मेम साहब और कुछ चाहिये," कहकर एक बालक, चाय का कुल्हड़ मुझे थमा कर अपनेपन से मुस्कराने लगा। वह परिचित मुस्कान पहचान कर, उसी फटी नेकर और कमीज़ में उसे आज भी बिना स्वेटर के देखकर मैंने आश्चर्यचकित हो पूछा, "क्यों, तुमने स्वेटर नहीं खरीदा?"

कुछ-कछ निराश स्वर में वह बोला, "मेरी बहिन की शादी के लिये बाबा ने ज़मीन गिरवी रखी थी. मेरे रुपयों से बाबा ने उसका सूद चुकाया है। जब ज़मीन कर्ज़ से छुट जायेगी तो मैं गरम कपडे खरीद लूँगा।" फिर मेरी गोद में चिपके मेरे पुत्र को लालसा भरी दृष्टि से देखते हुए वह बोला, "अपनी माई के साथ गाँव मेँ रहूँगा और स्कूल मेँ पढ़ूँगा।"

मेरे पूछने पर उसने अपना नाम राजकुमार बताया। मेरा दिया दस रुपये का सिक्का उसने अंटी में बाँधकर सिर झुका लिया।

अगले माह उसी स्थान पर एक अन्य बालक ने मुझे चाय का कुल्हड़ थमाया तो मुझे बडा अप्रत्याशित लगा।

"राजकुमार कहाँ है?" - पूछने पर उसने मुझे उसके काम करने के नये स्थान का पता बताया। वह स्थान निकट ही था। अनजाने ही मेरे पग उधर मुड़ गये। उधर बीड़ी बनाने का कारखाना था। छोटे-बड़े बालकों का जमावड़ा था। दस-बीस रुपयों के नोट हाथ में लिये वे बालक बाहर आ रहे थे। टूटी बीड़ी के टुकड़े सुलगा कर, मुख में लगा कर धुआँ फूँकते थे। इतने में मेरी दृष्टि राजकुमार पर पड़ी— बीड़ी का कश लेकर वह खाँस रहा था। उसके बचपन का भावी सपना उसके नेत्रों में थकित सा काँप रहा था, और उसका शरीर कुम्हलाया हुआ वह हाँफ रहा था।

मैंने उसे समीप बुलाकर पूछा, "तुमने चाय की दूकान पर काम क्योँ छोड़ा? और यह स्वास्थ्य नाशक पेशा क्यों अपनाया?"

वह बोला, "आपका दिया सौ रुपया मैंने दूकान के मालिक को न देकर घर भिजवा दिया था। यह बात मालिक को किसी तरह पता लग गई। उसने मुझे भूखा रखकर पिटवाया और मुझ पर चोरी का आरोप लगाकर मेरी तनख्वाह का सारा पैसा मार लिया और मुझे नौकरी से निकालकर दूसरा लड़का काम पर रख लिया। तब यहाँ काम करने वाला एक लड़का मुझे मिल गया। उसी के कहने पर मुझे यहाँ नौकरी मिल गई और मैँ बीड़ी बनाने का काम करने लगा।" ...सजल नेत्रों को कमीज़ की बाँह से पोंछकर वह आत्मविश्वास भरे स्वर में आगे बोला, "पर आंटी इस काम मेँ रोज़ का रोज़ पैसा मिल जाता है, जिससे माँ की मदद भी हो जाती है।"

मैंने प्रश्न किया, "फिर तुम स्कूल कैसे जाओगे?"

"पिछले महीने पिताजी को कोई गाड़ी रात में कुचल कर चली गई। अब मेरी पढ़ाई कैसे हो सकती है?" भरे गले से वह बोला।

"तुम्हारे घर में और कौन-कौन है?" मैंने प्रश्न किया।

"मेरी बहिन का ब्याह पिछली गर्मी में बाबा ने ज़मीन गिरवी रखकर किया है। एक बड़ा भाई था। बुरी संगत में पड़ गया। न जाने कहाँ चला गया। माँ की और मेरी कमाई से किसी तरह घर का खर्च चलता है।" - यह कहकर उसने गहरी श्वाँस भरी।

जीवन के संघर्षों ने एक निर्धन बेटे के इंद्रधनुषी स्वप्नों को बिखरा कर उसे अधभूखे पेट श्रम करना सिखा दिया था। नौ-दस वर्ष की कच्ची वय में बाल श्रमिक बना दिया था। परंतु मैं उस बालक के आत्मविश्वास से प्रभावित थी और उसकी दयनीय परिस्थितियोँ को सुनकर विचलित हो उठी थी। अनायास मेरे मुख से निकला, "क्या तुम मेरे घर काम करोगे? मैं तुम्हें पढ़ने भेजूँगी।"

असमंजस में वह हक्का-बक्का होकर मेरी ओर देखता रह गया।

"क्या कह रही हैं आप?"

उसे आश्वस्त कर मैँ अपने साथ ले आयी। सायँकाल मेरी सहेली श्रुति मिलने आयी और राजकुमार को देखकर बोल पड़ी, "आपको मालूम है न कि सोलह वर्ष से छोटे बच्चों से काम कराना दंडनीय अपराध है।"

मैंने आवेश मे आकर पूरा लेक्चर झाड़ दिया, "जानती हूँ, पर तुम देखो इन निर्धन बच्चों का ढाबों, होटलों और छोटे-छोटे कारखानों में नित्य उत्पीड़न और शोषण होता है। क्या सरकारी कानून इनकी रक्षा कर पाते हैं? समाज के बड़े भाग मेँ अभी भी निर्धनता चरम सीमा पर है और बिना श्रम किये अनेक बच्चों को पेट भर भोजन भी नहीं मिल सकता है। ऐसे में यदि सम्पन्न परिवार इन बच्चों को आश्रय दें, उनकी शिक्षा-दीक्षा और खान-पान की समुचित व्यवस्था कर दें और बदले में बच्चे घर के सदस्यों की भाँति काम-काज में सहायता कर दें तो क्या बुराई है? सरकार को बस यह देखना चाहिये कि इन बच्चों का उत्पीड़न और शोषण न होने पाये। क्या यह निर्धन बच्चों के लिये अधिक हितकर नहीं होगा?"

श्रुति मेरा आक्रोश देखकर निरुत्तर रह गई।

राजकुमार मेरे परिवार की तरह मेरे स रहा, मेरे काम-काज में मेरी सहायता की और शिक्षा पाकर स्वावलम्बी बन गया।

दस वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। आज राजकुमार वन विभाग में फ़ॉरेस्ट-गार्ड के पद पर कार्य कर रहा है।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

स्मृति लेख

बाल साहित्य कहानी

किशोर साहित्य कहानी

रेखाचित्र

आप-बीती

कहानी

लघुकथा

प्रहसन

पुस्तक समीक्षा

यात्रा-संस्मरण

ललित निबन्ध

बाल साहित्य नाटक

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं