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बालिका शिक्षा

समीक्ष्य पुस्तक : बालिका शिक्षा
लेखक : मधुसूदन त्रिपाठी
प्रकाशक : विद्यावती प्रकाशन,
बी--216, चंदू नगर, नई दिल्ली
प्रकाशन वर्ष :2006
मूल्य : 250 रुपये

बालिका किसी भी समाज की महत्तवपूर्ण कड़ी होती हैं जो बड़ी होकर पत्नी, माँ, बहन और परिवार की आय उपार्जक बनकर महत्तवपूर्ण भूमिकाएँ अदा करती है। लेकिन दुःख इस बात का है कि आज भी बालिका का जन्म लेना अशुभ माना जाता है जिसके लिए हिंदू समाज और मनुस्मृति ज़िम्मेदार है। वैश्वीकरण और भूमंडलीकरण के युग में महिलाएँ समाज में आज भी हाशिये पर हैं और यही कारण है कि उन्हें आज भी हीनभावना की नज़रों से देखा जाता है। संविधान के अनुच्छेद-14 में यह व्यवस्था की गई थी कि 6-14 वर्ष तक के सभी बालक-बालिकाओं को बिना किसी भेदभाव के अनिवार्य निःशुल्क शिक्षा दी जायेगी, लेकिन 65 वर्षों के पश्चात् भी हम अपना निर्धारित लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाये हैं। जवाहर लाल नेहरु ने कहा था कि समाज में किसी भी पुरुष और महिला के साथ जाति, भाषा और लिंगभेद के आधार पर अन्याय और शोषण नहीं किया जायेगा और भेदभाव की समस्या को समाप्त करने का वादा भी किया गया था। लेकिन इस हिंदू समाज में महिलाओं की स्थिति अत्यंत ही दयनीय और दुःखदायी बनी हुई है। यह अतिशियोक्ति नहीं होगी कि हिंदू समाज की मानसिकता में परिवर्तन अवश्य हुआ है। लेकिन यह कहना सत्य प्रतीत होता है कि एक बालिका को शिक्षित करने से पूरे परिवार को शिक्षित किया जा सकता है। महिलाओं के पिछड़नेपन का कारण है शिक्षा का अभाव। देश के विकास और जन कल्याण के कार्यो में महिलाओं का प्रतिनिधित्व अनिवार्य है। डॉ. अम्बेडकर ने कहा था कि भारत का पिछड़ने का कारण है महिलओं के प्रतिनिधित्व का अभाव और देश के विकास में महिलाओं की भागीदारी होना नितांत आवश्यक है। इस पुस्तक में बालिका शिक्षा से संबंधित सभी पक्षों का पूरी ईमानदारी से विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है। बालिका शिक्षा के विषय को सुस्पष्ट तरीके से समझाने के लिए पुस्तक को 10 भागों में विभाजित किया गया है।

इस पुस्तक के लेखक मधूसूदन जी ने प्रथम अध्याय बालिका शिक्षा का महत्व में बालिकाओं के लिए शिक्षा के महत्तव को बड़ी कुशलता के साथ पाठकों और अभिभावकों को समझाने का प्रयास किया है। शिक्षा अंधकार को समाप्त करने का वह स्रोत है जो जीवन के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित करता है। कुछ विद्वानों का ऐसा मानना है कि ज्ञान बालिका के सर्वांगीण विकास, सामाजिक और राष्ट्रीय प्रगति, सभ्यता एवं संस्कृति के लिए अत्यंत आवश्यक है। किसी भी देश का वास्तव में विकास तभी संभव है, जब वहाँ की संपूर्ण आबादी में से महिलाओं का योगदान हो। देश में दहेज, बालविवाह, वेश्यावृत्ति जैसे घिनौने अपराधों के उत्पन्न होने का कारण है शिक्षा की कमी। बालिका शिक्षा का सबसे बडा लाभ यह है कि बालिकाएँ शिक्षित होंगी तो वे अपने स्वास्थ्य का बेहतर तरीके से ध्यान रख सकेंगी। जब महिला स्वस्थ रहेगी तो पूरा परिवार और विशेषकर बच्चे भी स्वस्थ होंगे। कहने का तात्पर्य है कि बालिका शिक्षा पर अधिक से अधिक ध्यान दिया जाये।

पुस्तक के द्वितीय अध्याय में आज़ादी से पूर्व बालिका शिक्षा में आज़ादी से पूर्व की बालिकाओं की शैक्षिक स्थिति का सूक्ष्म अध्ययन किया गया है। आर्य युग, बौद्ध काल, मुस्लिम काल, वैदिक युग, हार्टोग के दौरान बालिकाओं की शैक्षिक स्थिति की विवेचना भी की गई है। प्राचीन काल में बालिका शिक्षा पर अत्यधिक ध्यान दिया जाता था। वैदिक युग में महिलाओं का एक ऐसा वर्ग था, जो जीवन भर पठन-पाठन में लीन रहती थी। इन्हें ब्रह्मवादिनी कहा जाता था। रुप्पला, विश्ववारा, गार्गी और अत्रेयी इस समय की विदुषी दार्शनिक महिलाएँ थी और वैदिक युग में अविवाहित कन्याओं को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी। वैदिककाल में महिलओं की शैक्षिक स्थिति सुदृढ़ थी और बिना भेदभाव के शिक्षा का अवसर प्राप्त था। बौद्ध धर्म और जैन धर्म की तुलना में हिंदू धर्म में उनकी समाज में स्थिति निरंतर गिरती चली गई। मुस्लिमकाल में उच्च घराने की लड़कियों को ही शिक्षा का अधिकार था जैसे- हमीदा बानू बेगम, जैबुन्न्सिा आदि। सन् 1882 ई. में हंटर कमेटी ने भारत में स्त्री शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया और इस दौरान बालिका शिक्षा की दिशा में काफी प्रयास किये गये। सन् 1927 ई. में हार्टोग कमेटी ने स्त्री शिक्षा के व्यापक प्रचार और प्रसार के कुछ सुझाव दिये कि बालिका विद्यालयों में निरीक्षकों की संख्या में वृद्धि की जाये और बालिकाओं के लिए अनिवार्य शिक्षा होनी चाहिए।

पुस्तक के चतुर्थ अध्याय में शिक्षा के मौलिक अधिकारों, नीति निर्देशक तत्वों के महत्तव को समाहित किया गया है। भारत के संविधान निर्माता बालिका शिक्षा से भलीभाँति परिचित थे इसीलिए उन्होंने संविधान में कई ऐसे प्रावधान किए जिनकी सहायता से बालिकाओं की शैक्षिणक दशाओं को सुधारा जा सकता है। भारत के संविधान में बिना किसी भेदभाव के महिलाओं को पुरुषों के समान ही अधिकार दिये गये हैं ताकि वे शिक्षा प्राप्त कर देश के विकास और जनकल्याण के कार्यो में अपना योगदान दे सकें। बालिका की दिशा में यह प्रयास मील का पत्थर साबित होगा क्योंकि शिक्षा प्राप्त करना बालिका का अब मौलिक अधिकार बन गया है।

पुस्तक के पंचम अध्याय में बालिका शिक्षा की उन्नति और विकास के लिए स्थापित की गई विभिन्न प्रकार की समितियों का उल्लेख हैं। बालिका शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए लंबे समय से प्रयास किये जा रहे हैं और इस समस्या का निराकरण करने के लिए विभिन्न समितियों और आयोगों का गठन समय-समय पर किया गया है ताकि उन कारणों और कारकों का पता लगाया जा सके कि बालिका शिक्षा की साक्षरता में बाधक तत्व क्या हैं? बालिका शिक्षा को उन्नतिशील बनाने हेतू माध्यमिक शिक्षा आयोग और दुर्गाबाई देशमुख समिति, श्रीमती हंसा मेहता समिति, स्त्री शिक्षा समिति और राष्ट्रीय आयोग का गठन किया गया। हंसा मेहता की समिति में इस बात पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया कि शिक्षा की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि वे घर और व्यवस्था दोनों को संभाल सके। लेकिन पूर्ण साक्षरता का अनुमान काफी दूर हैं। यह केवल सरकार की ही जिम्मेदारी नहीं है बल्कि हम सभी को बालिका शिक्षा पर विशेष रूप से ध्यान देना होगा जिससे महिलाएँ शिक्षित होकर परिवार और देश के कल्याण के लिए अपनी भूमिका अदा कर सकें।

पुस्तक के छठे अध्याय में शिक्षा नीति में बालिका शिक्षा में बुनियादी शिक्षा के लक्ष्यों की प्राप्ति हेतू बनाई गई राष्ट्रीय शिक्षा नीति की विस्तृत विवेचना की गई है। स्वाधीनता के पश्चात् भारत सरकार ने सर्वशिक्षा के लिए निरंतर प्रयास किये हैं लेकिन पूर्ण रूप से सपफ़लता प्राप्त नहीं हुई हैं। सार्वभौमिक बुनियादी शिक्षा के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भारत सरकार ने सन् 1986 ई. में राष्ट्रीय शिक्षा नीति की घोषणा की। इसमें कहा गया है कि महिलाओं के विकास में शिक्षा एक हथियार के रूप में करेगी। महिला सशक्कितरण के लिए के उददेश्य को बालिका शिक्षा के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति की समीक्षा के लिए सन् 1990 ई. में राममूर्ति समिति में कहा गया कि महिलाओं को शिक्षा का अधिकार दिये बिना देश का विकास नहीं किया जा सकता है। वर्तमान में ज़रूरत है इस बात की कि भारत सरकार इन प्रावधानों को गंभीरता से लागू करने में अपनी जिम्मेदारी निभाये और समाज भी बालिका शिक्षा के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अपना शत प्रतिशत योगदान दें।

पुस्तक के सातवें अध्याय में बालिकाओं की शिक्षा से संबंधित आंकड़ों का गहन विश्लेषण किया गया हैं। दुनिया में सबसे अधिक बच्चों का प्रतिशत दर हमारे देश में हैं लेकिन सबसे निरक्षर और कुपोषित बच्चे भी भारत में ही बसते हैं। हमारे देश में लगभग 40 करोड़ बच्चे हैं। बच्चों की कुल आबादी में बालकों की संख्या अधिक और बालिकाओं की कम है। इससे स्पष्ट होता है हमारा दकियानूसी समाज लैंगिक भेदभाव करता है और यह अतिशियोक्ति नहीं होगी कि यही कारण है कि आज भी भारत संसाधनविहीन है। इस किताब के आंकड़े इस बात को दर्शाते हैं कि लड़कियों की साक्षरता दर और मृत्यु दर लड़कों की तुलना में उच्च है। सन् 1990-2000 के बीच स्कूल जाने में लड़कों का प्रतिशत अधिक और लड़कियों का कम था। इसीलिए सन् 2001 की जनगणना से पता चलता है कि जहाँ पुरुष साक्षरता दर 76 प्रतिशत थी वहीं स्त्री साक्षरता दर मात्र 54 प्रतिशत ही थी। इससे पता चलता है कि भारत में बालिका शिक्षा की स्थिति अत्यन्त खराब है। महिलाओं की इस दशा और दिशा के लिए भारतीय समाज दोषी है न कि भारत सरकार। समाज का यह दायित्व है कि महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार दिये जायें।

पुस्तक के आठवें अध्याय कैसे बढ़े- बालिका शिक्षा में बालिका शिक्षा और राष्ट्र के मध्य संबंध स्थापित किया गया है। उन बिंदुओं पर भी प्रकाश डालने की कोशिश भी की गई है कि बालिकाओं की शैक्षिक दर किस प्रकार बढ़ाई जाये और बालिका शिक्षा के मार्ग में आने वाले बाधक तत्वों को दूर करने के सुझाव भी दिये गये हैं। बालिका शिक्षा के मार्ग मे सबसे बड़ी रुकावट है, जागरुकता की कमी। अभिभावकों की संकुचित मानसिकता को बदलना होगा और यह सोचना चाहिए कि शिक्षित बालिका ही एक अच्छी माँ, एक अच्छी पत्नी, एक अच्छी बहू और एक सभ्य और शिक्षित नागरिक बनकर देश के विकास के मार्ग में अपना शत प्रतिशत योगदान दे सकती है। बालिकाओं की शिक्षा के लिए राज्य सरकार, केंद्र सरकार, कुछ सरकारी और गैर सरकारी एजेंसियाँ भी प्रयास कर रहीं हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बालिका शिक्षा की तस्वीर कैसे बदली जाये, इस संदर्भ में सन् 1995 में चीन के बींजिग शहर में हुए चौथे विश्व महिला सम्मेलन में विस्तार से चर्चा की गई है। इसी तरह बालिका शिक्षा से संबंधित शिखर सम्मेलन सन् 1993 में दिल्ली में भी आयोजित किया गया था। बालिका शिक्षा वर्तमान की माँग है और इसके लिए हम सभी को आगे आकर अपने-अपने हिस्सों की ज़िम्मेदारियों का निर्वाहण करना होगा।

पुस्तक के नौवें अध्याय आदर्श बालिका विद्यालय के अंर्तगत यह प्रकाश डालने का प्रयास किया है कि आदर्श बालिका विद्यालय से अभिप्राय क्या है? भारत में परंपरागत समाज होने के कारण अधिकांश लोग सहशिक्षा वाले स्कूलों में भेजने से कतराते हैं और वहीं कुछ लोगों के विचार सहशिक्षा के संदर्भ में है। ऐसा कुछ लोगों का मानना है कि जब लड़के और लड़कियाँ एक दूसरे के साथ पढ़ते-लिखते हैं तो एक दूसरे विचारों को समझते और सीखते भी हैं। अंत में हम यह कह सकते हैं कि स्कूल का माहौल ऐसा होना चाहिए कि उसमें बालिकाएँ अपने-आपको पूरी तरह से सुरक्षित समझ सकें।
पुस्तक के अंतिम अध्याय में बालिका शिक्षा हेतू सरकारी कार्यक्रम में सरकार द्वारा चलाये जा रहे कार्यक्रमों और परियोजनाओं पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। सर्वप्रथम राष्ट्रीय साक्षरता मिशन कार्यक्रम चलाया गया और इस महत्तवाकांक्षी परियोजना का आरम्भ भारत सरकार द्वारा सन् 1988 में किया गया। इस मिशन का मुख्य उद्देश्य निर्धारित किया गया था सभी को बुनियादी शिक्षा प्रदान करना। उड़ीसा, झारखंड, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश आदि में महिलाओं की साक्षरता के लिए विशेष अभियान चलाये गये। सार्वभौमिक शिक्षा, मानव संसाधन विकास कार्ययोजना और शिक्षार्थी समाज के सृजन के लिए एक अनिवार्य पहलू हैं। इसके अलावा मिड डे मील, सर्वशिक्षा अभियान, प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम, ब्लैक बोर्ड अभियान, महिला समाख्या, जनशाला कार्यक्रम, राष्ट्रीय अधयापक शिक्षा परिषद्, राष्ट्रीय शिक्षा अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् आदि कार्यक्रम चलाये गये।

लेखक द्वारा यह पुस्तक बालिका शिक्षा के महत्तव पर प्रकाश डालने का बेहतरीन प्रयास है और गहन सूचनाओं की जानकारी इस पुस्तक से प्राप्त होती है जिससे पाठक के लिए यह पुस्तक अत्यन्त ही महत्तवपूर्ण दिखाई पडती है। इस पुस्तक की भाषा शैली सुस्पष्ट और सरल है। लेखक ने इस पुस्तक में कुछ गलत सूचनाएँ समाहित की हैं जो पाठक की रुचि को कम कर देती हैं। लेखक ने बताया है कि वैदिककाल में महिलाओं को सभी अधिकार प्राप्त थे और समाज में उनकी स्थिति सुदृढ़ थी लेकिन जब हम वैदिककाल का अध्ययन करते है तो यह ज्ञात होता है कि उच्च घराने की महिलाओं की ही स्थिति सुदृढ़ थी। लेखक को इन तथ्यों की तरफ ध्यान देना चाहिए जिससे पाठक को सटीक जानकारी प्राप्त हो सके और पाठक को प्रभावित कर सके। बालिका शिक्षा की तरफ ध्यान अत्यंत ही आवश्यक है जिसमें समाज को पूरी ज़िम्मेदारी उठानी चाहिए और समाज को महिलाओं को पूर्ण रूप से प्रोत्साहित करते रहना चाहिए। राज्यों, नगरों, जिलों, शहरों, गाँवों और कस्बों में महिलाओं को शिक्षा के प्रति जागरूक करने के लिए रैली निकालनी चाहिए और विश्वविद्यालयों, कालेजों में बालिका शिक्षा पर सेमिनार आयोजित कराने चाहिए और स्कूलों में बालिका शिक्षा से संबंधित महीने में विशेष रूप से लेक्चर होने चाहिएँ जिससे महिलाएँ समाज में समानता प्राप्त कर सकें और जनकल्याण के कार्यों में अपना प्रतिनिधित्व कर सकें।

नानकचन्द, शोधार्थी
इतिहास एवं सभ्यता विभाग
मानविकी और सामाजिक विज्ञान संकाय
गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय
ग्रेटर नोएडा, उ-प्र-

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