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बाँसुरी

वह युवा था, उत्साह और उमंग से भरपूर और बहुत महत्वाकांक्षी भी। वैसे इस उम्र में तो आमतौर पर  सभी ऐसे ही होते हैं लेकिन वह थोड़ा अलग क़िस्म का इसलिए था क्योंकि संगीत से उसे बहुत प्रेम था। इतना प्रेम कि कहीं भी जा रहा हो, कुछ भी कर रहा हो, बाँसुरी हमेशा उसके हाथ में रहती। मौक़ा मिलते ही बाँसुरी वह होंठों से लगा लेता और आँखें मूँद कर उसकी सुरीली धुन में खो जाता।

बाँसुरी उसका प्रिय वाद्ययंत्र इसलिए था क्योंकि उसे लगता था कि बाँसुरी होंठों से लगा कर जब वह कोई धुन निकालता है तो वह संगीत उसके अंतरतम की आवाज़ होती है। हर धुन के ज़रिये दरअसल वह अपनी अलग-अलग मनोभावनाओं को वाणी दे रहा होता है। जो शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता उसे वह अपनी बाँसुरी की धुन से हूबहू व्यक्त कर सकता है। बाँसुरी, इन मायनों में उसकी ज़ुबान कही जा सकती थी। इसीलिए उसे वह हमेशा अपने पास रखता – चाहे भीड़ भरी सड़क पर चल रहा हो या किसी शांत जगह पर बैठा हो, शोर-शराबा हो या सन्नाटा, अकेला हो या लोगों की बातचीत सुन रहा हो, बस में सफ़र कर रहा हो या फिर अपने ऑफ़िस में काम कर रहा हो। 

ऑफ़िस की उबाऊ और नीरस दिनचर्या हालाँकि उसके कलाप्रेमी स्वभाव के बिलकुल विपरीत थी और शुरू-शुरू में उसका मन वहाँ हरदम छटपटाता, फिर भी वह वहाँ इसलिए टिका रहा क्योंकि उसके पास रोज़गार का कोई अन्य साधन नहीं था। उसे विश्वास था कि वह वक़्ती तौर पर ही यह काम कर रहा है और मौक़ा मिलते ही वहाँ से उड़नछू हो जायेगा। इसी भरोसे एक के बाद एक दिन गुज़रते गए और उसकी छटपटाहट भी शनैः शनैः कम होती गई। बाँसुरी के कारण ही उसकी ज़िंदगी मधुर और मृदु बनी रही और चौगिर्दा संगीतमय।

उसकी सहज-असहज चल रही ज़िंदगी में परिवर्तन तब आया जब उसने अपने कैरियर के अगले पड़ाव पर क़दम रखा। बात ही ऐसी थी। इतनी जल्दी तरक्क़ी मिल जाना आसान नहीं होता जबकि उसके काम के क्षेत्र में तो इतनी प्रतिस्पर्धा थी कि वह मानो युद्धक्षेत्र जैसा ही था। उसे तब हुआ जब सभी सहकर्मियों ने उसे मुबारकबाद दी। हालाँकि मन ही मन हर कोई उससे जल-भुन रहा था फिर भी सब प्रसन्नता व्यक्त कर रहे थे। यह देख कर उसे अपनी श्रेष्ठता का अहसास हुआ। मन ही मन वह बहुत ख़ुश था।  

ऑफ़िस में तो उसने किसी तरह अपने आप को रोके रखा लेकिन घर पहुँचते ही सबसे पहले ब्रीफ़केस में से उसने बाँसुरी निकाली और बॉलकनी में बैठ कर अपनी प्रिय धुन बजाने लगा। आँखें बंद किए वह धुन का आनन्द ले रहा था कि तभी उसे अपने हाथ पर सरसराहट-सी महसूस हुई। उसने देखा भूरे-मटमैले रंग का एक पतला-लंबा कीड़ा बल खाता हुआ उसके हाथ पर रेंग रहा था। हड़बड़ा कर तुरंत उसने हाथ झटक दिया। कीड़ा छिटक कर नीचे जा गिरा। घृणा से उसने कीड़े को देखा जो फ़र्श पर उल्टा पड़ा छटपटा रहा था। वह सोच में पड़ गया कि कीड़ा उसके हाथ पर आया कैसे?  एक बार उसका मन किया कि कीड़े को  वहीं मसल दे लेकिन छटपटाते हुए वह सीधा हो गया और फ़र्श पर रेंगता हुआ कोने की तरफ़ चला गया।

वह उठा और नल पर जाकर उसने अपना हाथ रगड़-रगड़ कर अच्छी तरह से धोया। एक बार सूँघ कर भी देखा कि कहीं कीड़े की बदबू तो नहीं आ रही? फिर वह अपनी जगह पर लौट आया। बाँसुरी उसने होठों से लगाई लेकिन उसका मन कहीं और था। जाने क्यों इतनी मामूली-सी बात पर वह इतना अशांत हो उठा था। भूरे-मटमैले कीड़े की घिनौनी सूरत उसके ज़ेहन से न हट पा रही थी।

तरक्क़ी के बाद ऑफ़िस में उसका काम अब बढ़ गया था। बाज़ार की माँग को देखते हुए कई तरह के नये प्रोजेक्ट्स, कई तरह के क्लाइंट, कई तरह की वार्ताएँ, मोल-तोल, लेन–देन और समझौते। बॉस का वह ख़ास आदमी बन चुका था इसलिए भी हर काम में उसकी शमूलियत रहती। इन सब व्यस्तताओं के चलते उसका बाँसुरी बजाना कम हो गया। जब भी वह बाँसुरी बजाने के लिए उठाता तभी कोई ज़रूरी फोन आ जाता या किसी काम के लिए उसे तुरंत निकलना पड़ता। पहले जहाँ उसे अपने आस-पास की   हर चीज़ संगीतमय लगती थी, अब लगने लगा कि हर तरफ़ शोर-शराबा उठ रहा है जिसमें वह संगीत डूबने लगा है।     

एक दिन जब वह क्लाइंट्स के साथ एक महत्वपूर्ण और सफल मीटिंग के बाद अपने बॉस को इण्टरकॉम पर रिपोर्ट देते हुए मंद-मंद मुस्करा रहा था तो उसे कान पर कुछ सरकता हुआ महसूस हुआ। उसने कान पर हाथ फेर कर मुट्ठी खोली तो भूरे-मटमैले रंग का एक वैसा ही पतला-लंबा कीड़ा उसकी हथेली पर पड़ा था। घबराहट में उसने हाथ झटक दिया। फ़र्श पर पड़े छटपटाते हुए कीड़े को देख कर उसे इतना ग़ुस्सा आया कि उसने अपने जूते से उसे मसल दिया। कीड़ा पिचक गया और फ़र्श पर उसकी सफ़ेद-सी लार बह निकली। उसे उबकाई आने को हुई। चिल्ला कर उसने सफ़ाई करने वाले को बुलाया और ख़ुद नल पर जाकर देर तक अपने हाथों को धोता रहा।                              

उस दिन घर पहुँच कर वह अपनी बाँसुरी हाथ में लिए बड़ी देर तक बॉलकनी में यूँ ही बैठा रहा। जैसे ही वह कोई धुन बजाने की कोशिश करता, आँखों के आगे फ़र्श पर पिचके उस घिनौने भूरे-मटमैले कीड़े का अक्स झलकने लगता। उधर से जबरन ध्यान हटा कर बाँसुरी वह फिर होंठों से लगाता, आँखें बंद करके संगीत की लय के साथ बहना चाहता लेकिन थोड़ी देर बाद ही बंद आँखों के परदे पर वह बिम्ब फिर से बनने लगता। जितनी बार भी उसने बाँसुरी बजाने की कोशिश की हर बार ऐसा ही हुआ। आख़िर वह उठ खड़ा हुआ और बाँसुरी उसने आलमारी में रख दी। 

अब उसके साथ ऐसा अक्सर होने लगा। भूरे-मटमैले रंग का वैसा ही लंबा-पतला कीड़ा कभी उसकी कमीज़ के कॉलर पर चिपका होता, कभी कंधे पर तो कभी बाजू पर रेंग रहा होता। एक बार वह विदेश से आई टीम के साथ एक बड़ी महत्वपूर्ण मीटिंग में बैठा था। एम.ओ.यू. पर दस्तख़त करते हुए बॉस उसके काम से बहुत ख़ुश था। औपचारिक मीटिंग ख़त्म होने के बाद जब हल्की-फुल्की बातचीत चल रही थी तभी एक कीड़ा उसकी कमीज़ के अंदर घुस कर छाती पर रेंगना लगा। कमीज़ के अंदर हाथ डाल कर वह कीड़ा निकालता तो बड़ा भद्दा लगता इसलिए वह चुपचाप कीड़े का छाती पर रेंगना झेलता रहा। तभी उसे महसूस हुआ कि कीड़ा एक नहीं दो-तीन हैं। वे छाती पर, पेट पर रेंग रहे थे और एक तो नाभि में घुसने की कोशिश कर रहा था। किसी बात पर टीम के लोग हँसे तो उसने इतनी ज़ोर से ठहाका लगाया कि बाक़ी सब चौंक कर उसे देखने लगे। वह दरअसल अपने जिस्म पर कुलबुल करते कीड़ों से पैदा हो रही कसमसाहट को छिपाना चाह रहा था। 

टीम के जाने के बाद उसने बॉस से अपने व्यवहार के लिए क्षमा माँगी और अपनी मजबूरी भी बताई। बॉस को इसमें कोई अनोखी बात नहीं लगी। कुछ बोलने की बजाए उसने अपनी टाई की गाँठ ढीली की और कमीज़ के बटन खोल दिए। वह यह देख कर हैरान रह गया कि बॉस के बदन पर वैसे ही भूरे-मटमैले कई कीड़े रेंग रहे थे।

“आगे से ऐसी बदतमीज़ी न हो” बॉस ने कमीज़ के बटन बंद करते हुए चेतावनी दी, “नाउ गो एंड कंसन्ट्रेट ऑन द प्रोजेक्ट!“

कुछ उलझन और सोच में डूबा हुआ वह वापिस अपने केबिन की ओर चल पड़ा। एक बार रुक कर हॉल में बैठे उसने बाक़ी लोगों की ओर देखा। सब अपने-अपने काम में व्यस्त थे और बीच-बीच में गर्दन या छाती पर हाथ फेर लेते। उनमें से सबसे वरिष्ठ कर्मचारी की कमीज़ पर लहरें सी उठ रही थीं लेकिन उससे बेख़बर वह गम्भीरता से काम करने में जुटा था। उन सबको देखते हुए वह अपनी कमीज़ में से कीड़ों को निकालना भूल ही गया। जब याद आया तो उसे स्वयं अपने ऊपर बड़ी हैरानी हुई कि उसे क्या होता जा रहा है?  

कुछ दिन इसी तरह कशमकश में गुज़रे। फिर वह तरह-तरह के कामों में दिन-रात इतना व्यस्त हो गया कि ख़ुद अपनी ही होश न रही। इस बीच कई बार उसने अपने बदन पर कीड़े रेंगते देखे लेकिन परेशान होना उसने छोड़ दिया था। कीड़े को चुटकी में पकड़ कर वह परे फेंक देता और अपना काम जारी रखता। बल्कि कई बार तो उन्हें झटके बिना ही लापरवाही से वह दूसरी ओर मुँह फेर लेता। 

इस बीच उसके व्यवहार में सचमुच बहुत परिवर्तन आ चुका था। कंपनी की सालाना टर्नओवर में उसके महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए उसे हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट बना दिया गया था। लेकिन इस तरक्क़ी से उसे वैसी ख़ुशी बिलकुल नहीं हुई जैसी कि अपनी पहली तरक्क़ी से हुई थी। दरअसल इस पद को हासिल करने के लिए उसने अन्य प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़ने में हर क़िस्म की जोड़-तोड़ की थी और इस कुर्सी पर अपना हक़ समझता था। यह तो उसकी दूरगामी योजनाओं को पूरा करने के रास्ते का सिर्फ़ एक पड़ाव था। अब उसकी नज़र अपने अगले निशाने पर थी। उसे भेदने की कोशिश में दिन कैसे गुज़रते गए उसे पता ही न चला। 

एक सुबह जब उसकी नींद खुली तो उसने देखा कि उसके सारे बदन पर भूरे-मटमैले रंग के लंबे-पतले  कीड़े रेंग रहे हैं। बिना हिले-डुले देर तक वह ऐसे ही चुपचाप लेटा रहा। कीड़े उसकी गर्दन पर, बाजुओं पर, टाँगों पर ऊपर-नीचे रेंग रहे थे लेकिन उनकी सरसराहट तक उसे महसूस न हो रही थी। जैसे कि वे उसके शरीर पर नहीं, मिट्टी पर चल-फिर रहे हों। उन्हें देखते-देखते उसे वह दिन याद आया जब पहली बार उसने अपने हाथ पर एक कीड़ा रेंगता देखा था। अपनी तब की हालत याद करते हुए उसने अपनी नाक छाती की ओर नीचे करके ज़ोर से दो-तीन बार सूँघा। उसकी साँस से खिंचता हुआ एक कीड़ा नाक पर चिपक गया लेकिन तब भी उसे किसी तरह की गंध महसूस न हुई। आख़िर बिस्तर से वह उठ खड़ा हुआ। 

जब वह शीशे के सामने शेव बनाने के लिए खड़ा हुआ तो उसने देखा कि उसका चेहरा थुलथुल हो रहा था, ठुड्डी और गालों पर सफ़ेद बाल तिनकों की तरह चिपके थे और कनपटियों पर भी सफ़ेदी झलकने लगी थी। कीड़ा उसकी नाक पर कुंडली मारे अभी भी चिपका हुआ था। देर तक वह ऐसे ही वहाँ जड़वत खड़ा रहा। उसे लगा शीशे में से झाँकता चेहरा उसका नहीं, किसी मसखरे का है जो व्यंग्य से उसे देख रहा है। उसकी आँखों में विद्रूपता का जो भाव था उसकी चुभन से वह क्षुब्ध हो उठा। वह सोचने लगा कि मसखरे का चेहरा उसकी गर्दन पर क्यों चिपका हुआ है ? उसका अपना चेहरा कहाँ है? 

ऑफ़िस जाने के लिए देर हो रही थी फिर भी उसने कोई जल्दी न की। बल्कि नहाए बिना ही वह बाथरूम से बाहर आ गया। गुमसुम-सा वह बॉलकनी में आकर खड़ा हो गया। धीमी हवा चल रही थी और गुलमोहर के सुर्ख़ फूलों के गुच्छे बॉलकनी के पास हौले-हौले झूम रहे थे। उसे याद ही न था कि गुलमोहर के अपने प्रिय पेड़ों को आख़िरी बार उसने कब देखा था और कि उन पर फूल कब आए? 

कुछ देर तक वह ऐसे ही फूलों को देखता हुआ मूर्तिवत-सा वहाँ खड़ा रहा। तभी उसके कानों ने हरे छितराए पत्तों के झुरमुट में से फूटती कुछ आवाज़ें सुनीं। ‘चिकचिकचिकचीं~~~ चिकचिकचिकचीं~~~’ ‘हुक्कू, हुक्कू, हुक्कू’, ‘तिर्तीर्तिर~~~ तिर्तीर्तिर~~~’. . . उन आवाज़ों को सुनते हुए उसे लगा जैसे कोई भूली-बिसरी बात फिर से याद आ रही हो। या उसके बहरे कानों ने अचानक सुनना शुरू कर दिया हो। इस विस्मित-सी हालत में ‘कू~~अऊ. . .कू~~अऊ. . .’ की जानी-पहचानी आवाज़ उसके कानों में पड़ी। वह आवाज़ कानों से होती हुई उसके भीतर तक उतरती चली गई। ‘कू~~अऊ. . .कू~~अऊ. . .’ उसके भीतर गूँजने लगी और उसका सारा बदन सिहर उठा।  

सहसा उसे कुछ ख़्याल आया। वह मुड़ा और अंदर अपनी मेज़ तक जाकर उसके दराज़ों में कुछ खोजने लगा। न मिला तो शो-केस में रखी चीज़ें उलट-पलट करने लगा। फिर उसने आलमारी खोली और ऊपर-नीचे के खाने देखने के बाद कपड़ों को उलट-पलट कर देखने लगा। आख़िर जब वह वहाँ से हटा तो उसके हाथ में बाँसुरी थी जिसे वह एकटक देखे जा रहा था। उसने याद आया कि यह वही बाँसुरी है जो हमेशा उसके पास रहती थी और कि जिसे होंठों से लगा कर वह जब भी कोई धुन निकालता तो लगता था मानो अपने अंतरतम को वाणी दे रहा हो।   

बाँसुरी लेकर वह फिर से बॉलकनी में लौट आया। बाँसुरी को उसने अच्छी तरह से पोंछा और दो-तीन बार फूँकें मार कर साफ़ करने के बाद उसे होठों से लगा लिया। 

आँखे बंद करके जब उसने अपनी मनपसन्द धुन निकालने की कोशिश की तो बड़ी बेसुरी और भोंडी-सी आवाज़ बाँसुरी में से निकली।  

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