बाँटकर दिखाओ
काव्य साहित्य | कविता शबनम शर्मा15 Sep 2019
बाँटकर ज़मीन और आसमान
बाँटकर ये आदमी, मैं हिन्दु
तू मुसलमान, कितना ख़ुश
होता है आदमी।
क्या बाँट सकते हो तुम
वो बलखाये कंटीले तार
जिसका एक बल इधर
और दूसरा उधर है।
बाँट दो उस पीपल के पत्ते,
जो उड़कर इधर से उधर,
घूम आते हैं।
क्या मज़ा आ जाये अगर
रोक लो, बाँट लो उस
बादल के टुकड़े को
जो हमें वर्षा का झाँसा
देकर उस तरफ़ बरसता है।
पक्षियों के घरौंदे इस तरफ़
और उड़ान उस तरफ़ है
कोयल उस सामने वृक्ष पर
और आ रही कूक इधर है।
शरीर से आत्मा को,
मन्दिर से परमात्मा को
मानव से इन्सानियत को
बाँट सको, तो बाँटकर दिखाओ।
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