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बात सगाई की 

 

"देखो! जानकी जिस घर में मैं तुम्हारी बेटी नीति के रिश्ते की बात चला रही हूँ कसबे के माने हुए जमींदार हैं।"

"पर बुआ..... "

जानकी कुछ आगे कह पाती बुआ ने बीच में ही टोक कर कहा, "अरी, पर वर क्या..., मैं कहती हूँ, आँख बंद करके हाँ कर दे। इतना बड़ा घर-परिवार, मुँह चढ़ कर रिश्ता माँग रहे हैं, राज करेगी तुम्हारी बेटी, उस घर में, राज।"

"पर बुआ, एक तो लड़का टाँग से सही नहीं।" 

बुआ ने फिर टोका, "अरे वो तो ज़रा-सा झुक कर चलता दीखता है, पर यूँ तो लड़का सनक्खा है।"   

"फिर कोई रोज़गार भी तो नहीं उसका।"

"क्या बात करती है, जानकी! उसे रूजगार की क्या जरूरत पड़ी है?"

"फिर भी बुआ, हम ग़रीब सही, पर अपनी पढ़ी-लिखी बेटी को ऐसे कैसे ……"  

उतावली बुआ ने गोशे में ज़ोर देते हुए कहा, "मैं कह रही हूँ बहुत बड़ा घर है, तेरी बेटी सुबह उठ कर घर बुहारेगी न, तो अपना पेट भरने से ज्यादा ही अनाज मिल जावेगा उसे, समझी!"

"हाँ! समझी बुआ। अच्छे से समझी।" 

"तो फिर ...क्या बोलूँ, उनको कि बात पक्की।"

"हाँ, एक बात पक्की बुआ, उनको कह दे …"

"क्या?"

"यही कि जानकी अपनी पढ़ी-लिखी बेटी को घर बुहार कर पेट भरने की ग़रज़ से किसी घर में हरगिज़ न ब्याहेगी। समझी।"

जानकी कह कर चल दी। बुआ हैरानी से आँखें फाड़े अपने मोटे चश्मे से उसे जाते हुए देखती रह गई।                                     
        

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