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बच्चे और किताबें

जहाँ पढ़ने के लिए पुस्तकें मिल जाती है,  वहाँ भी चयन सम्बन्धी लापरवाही  साफ़ झलकती है। जहाँ बच्चे पुस्तकें पढ़ने के  लिए लालायित हैं, वहाँ उन्हें न पुस्तकें मिल पाती हैं और न पढ़ने का  अवसर। बच्चे क्या पढ़ें? यह ठीक वैसा ही प्रश्न है जैसा -बच्चे क्या खाएँ? जिस प्रकार शरीर को  स्वस्थ रखने के लिए  सन्तुलित आहार की ज़रूरत है, उसी तरह मानसिक स्वास्थ्य के लिए अच्छी पुस्तकें अनिवार्य हैं। अच्छी पुस्तकें वे हैं; जो मानसिक पोषण दे सकें, बच्चों को सहजभाव से संस्कारवान बना सकें। पुस्तकों की विषयवस्तु बच्चों के मानसिक स्तर, आयुवर्ग, परिवेशगत अनुभवों के अनुकूल हो। बच्चे को समझे बिना उसका पोषण नहीं किया जा सकता, इसी तरह बच्चे के मनोविज्ञान को समझे बिना लेखन नहीं किया जा सकता है। ऐसा  नहीं है कि बच्चों के लिए कुछ नहीं लिखा जा रहा है। लेकिन बाल-लेखन में ऐसा ढेर सारा लेखन है जो या तो बच्चे  को कोरी स्लेट मानकर लिखा जा रहा है या यह सोचकर कि यह बच्चे को जानना ही चाहिए। भले ही उस लेखन का बच्चे के व्यावहारिक जीवन से कोई लेना-देना न हो। चित्रकथा, कार्टून, कविता, कहानी, पहेलियाँ, खेल गीत, ज्ञान-विज्ञान सबका  अपना महत्त्व है। बाल–साहित्य के नाम पर कुछ भी लिखना या व्यवसाय की दृष्टि से छापकर बेच देना कुपोषित अन्न परोसने जैसा ही है। बहुत से लेखक एवं प्रकाशक यह काम बेरोकटोक कर रहे हैं। भूत-प्रेत, डाकू-चोरों की धूर्त्तता और चालाकी के जीवन को नायकत्व में बदलने वाली रचनाएँ आज का  बड़ा खतरा हैं। बच्चों के लिए जो लिखा जाए, यह विचार भी किया जाना चाहिए कि उसका प्रभाव क्या होगा? इस समय इलेक्ट्रानिक मीडिया की धूम है। इसका त्वरित प्रभाव भी नज़र आ रहा है। बहुत सारी चिन्ताजनक विकृतियों  का जन्म हो रहा है। बच्चों की सहजता तिरोहित होती जा रही है। माता-पिता के पास इतना समय नहीं  है कि वह ठण्डे मन से कुछ समाधान सोचें। उन्हें तो अभी आगामी संकट का आभास भी नहीं है। ऐसे कितने  अभिभावक या रिश्तेदार हैं जो जन्म दिन के अवसर पर बच्चों  को  उपहार में पुस्तकें देते हैं? मैं समझता हूँ न के बराबर। खिलौनों में अगर पिस्तौल दी जाएगी तो वह  उसके कोमल मन को एक न एक दिन ग़लत दिशा में ले जाएगी। स्कूलों में ही छात्रों को पुरस्कार–स्वरूप कितनी बार पुस्तकें दी जाती हैं? बच्चों को उनकी रुचि के अनुकूल अगर किताबें मिलेंगी तो वे ज़रूर  पढ़ेंगे। पत्र-पत्रिकाओं को बच्चों से कोई लेना–देना नहीं है। जो अखबार रविवार को बच्चों का एक पन्ना निश्चित रूप से देते थे; विज्ञापन के मायाजाल ने उसको भी ग्रस लिया है।

नेशनल बुक ट्रस्ट, चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट जैसी संस्थाओं ने इस दिशा में गम्भीर कार्य किया है। नन्दन, बालहंस,  बालवाटिका, बाल भारती, पाठक मंच बुलेटिन आदि पत्रिकाएँ इस कार्य में गम्भीर हैं। स्थापित साहित्यकारों ने बच्चों के लिए जो लिखा,  वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। आरसी प्रसाद सिंह, सोहन लाल द्विवेदी, द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी, निरंकार देव सेवक,  श्री प्रसाद, अमृत लाल नागर, प्रमोद जोशी, रमेश तैलंग, प्रकाश मनु,  डॉ. शेरजंग गर्ग, अमर गोस्वामी, हरि कृष्ण देवसरे, शंकर बाम, राष्ट्र बन्धु,  जगत राम आर्य आदि की एक लम्बी परम्परा है। दिनकर  (चाँद का कुर्ता), हरिवंश राय बच्चन (चिड़िया ओ चिड़िया), सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (बतूता का जूता), डॉ. विश्वदेव शर्मा (हरा समन्दर गोपी चन्दर) जैसी कविताएँ  सहज रूप में ग्राह्य हैं।

विश्व बहुत तेज़ी से बदल रहा है। बच्चे भी बदल रहे हैं। यह बदलाव अच्छा और बुरा दोनों तरह का है। बच्चे किसी भी स्वस्थ समाज की सबसे बड़ी धरोहर है। यदि हमें समाज को सुखी बनाना है तो बच्चों पर ध्यान देना पड़ेगा। अच्छे  संस्कार देने होंगे अच्छी किताबें इस भूमिका का वहन बखूबी कर सकती हैं। प्रचार माध्यम बच्चों की मासूमियत छीन रहे हैं। अपने ऊल-जलूल उत्पाद लेकर बच्चों की ज़िद के साथ हमारे घरों में घुसपैठ कर रहे हैं। हमें इसका अहसास ही नहीं है। किताबों के कितने विज्ञापन टी वी पर आते हैं? अन्य उत्पादों से तुलना कर लीजिए। किताबों के विज्ञापन नज़र ही नहीं आएँगे।

घर में एक अच्छी पुस्तक होगी तो उसे घर के अन्य सदस्य भी पढ़ेंगे। एक अच्छी पुस्तक जीवन के लिए अमृत का काम करती है। भेंट में दी गई पुस्तक सबसे मूल्यवान् उपहार है। पुस्तकें कभी बूढ़ी नहीं होती, अपने ताज़ग़ी भरे विचारों से सदा जवान बनी रहती हैं। पुस्तकें निराशा के क्षणों में सबसे बड़ा मित्र सिद्ध होती हैं।ऐसे मित्रों को अपने घर में आने दें।

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