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बचपन की यादें

यादों में जो अक्सर आती
ऐसी ही एक कहानी है।
इसमें न कोई राजा है
इसमें न कोई रानी है
राख लगी है रोटी में
कोरे मटके का पानी है।


सिल-बट्टे की चटनी है
ईख का गुड़ भी है थोड़ा
खेल-खिलौनों में माटी के
गाय बैल हाथी घोड़ा
नानी दादी के क़िस्सों ने
मन को सबसे रक्खा जोड़ा
दिल में अब इनकी याद है बस
आँखों में खारा पानी है।


एक थान के कपड़े से
सब शर्टें बनवाया करते
जब अगल-बगल में शादी हो
बर्तन आया जाया करते
मिठया चाचा बैठे पीढ़े पर
लड्डू बनवाया करते
बातों ही बातों में देखो
आया फिर मुँह में पानी है


दशहरे से दीवाली तक
लम्बी छुट्टी हो जाती थी
घर की हर अलमारी आले
में झाड़ू फेरी जाती थी
कच्ची पक्की दीवारें सब
चूने से पोती जातीं थीं
इसमें अम्मां की कड़ी सीख
बच्चों की आनाकानी है।


अब सोचूँ वो प्यारे पल
कितने मोहक थे अच्छे थे
अपनी छोटी सी दुनियाँ के
राजाबेटा हम बच्चे थे
अनगढ़ थे बिना बनावट के
हम सीधे सादे सच्चे थे
यारी में मीठी नोंक-झोंक
झगड़ों में भी नादानी है।


पढ़ लिख कर विद्वान हुए
सो सोच समझ कर जीते हैं
कैलोरी गिन कर खाते हैं
आरओ का पानी पीते हैं
अब बैठ अकेले सोच रहे
क्या खोया क्या पाया हमने

 

काश आज फिर मिल जाए
वो राख लगा टुकड़ा आधा
काश आज फिर दिख जाए
पनघट से घट लाती राधा
काश आज फिर गरिया कर
डपटें हमको बूढ़े दादा
है तो सब सच्चाई लेकिन
लगता है कोई कहानी है।

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