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बहुआयामी प्रतिभा की धनी : डॉ. मेहरुन्निसा परवेज़

समय के साथ क़दम मिलाकर चलना ही एक व्यक्तित्वशाली रचनाकार का पहला चरण होता है। वह शब्दों का कम से कम उपयोग करके ज़्यादा से ज़्यादा कहने की कोशिश में शब्दों का मूल्य बढ़ाता है या नहीं, यह मुख्य है। मेहरुन्निसा परवेज़ जी की रचनाएँ इससे अछूती नहीं है। जीवन जगत में न जाने कितने तरह के जीवन और समाज पद्धतियाँ देखने को मिलती हैं। लेखक समाज के वर्तमान स्वरूप की स्थितियों के लिए उन्हीं सारी स्थितियों को मानता है जिनको हम जानते हैं और अपने ढंग से उन्हें पहचानने का प्रयत्न करते हैं। मेहरुन्निसा जी भी अपने ढंग से ही चीज़ों को देखतीं हैं, पर उनका देखना इतने अलग ढंग का होता है कि उसके सामने हमारे सोचने का तरीक़ा एकदम भिन्न लगता है। सामान्य से सामान्य व्यवहार भी समाज के एक मूल्य की रचना करता है। मूल्यों से परिचालित आदर्श, समाजिक उन्नति का कारण बनता है, मनुष्य की गरिमा का विस्तार करता है और इसे ही कथाकार ने अपनी रचनाओं के माध्यम से स्पष्ट किया है। इनकी कृतियाँ अनुभूति के आधार पर रची गई हैं। अपनी रचनाओं में मेहरुन्निसा जी ने जीवन की तकलीफ़ों और विवशताओं का मार्मिक चित्रण किया है। उनकी रचनाएँ सामाजिक समस्याओं को दूर करके एक समरसता स्थापित करने का संदेश देती हैं। 

मेहरुन्निसा परवेज़ जी का जन्म 10 दिसम्बर 1944 को मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले के बहेला गाँव में हुआ। बचपन से ही लेखन पठन मनन के प्रति उनकी रुचि झलकती है। इनके जिवन विषयक बातें उनकी रचनाओं के माध्यम से ही उपलब्ध है। 

मेहरुन्निसा जी एक बहुमुखी साहित्यिक प्रतिभाशाली लेखिका हैं। लेखन कार्य के साथ-साथ सामाजिक कार्यों में भी रुचि रखतीं हैं। इसका प्रभाव उनके लेखन पर भी पड़ा और आदिवासी, महिला एवं बाल विकास तथा कमज़ोर वर्गों के उत्थान कार्य में संलग्न होने के कारण इस वर्ग के लोगों की समस्याओं का भी असर उनकी लेखनी पर पड़ा। मेहरुन्निसा जी ने सातवें दशक के प्रारंभ में जब लेखन आरंभ किया तब नए लेखकों को प्रोत्साहित करने के लिए अखिल भारतीय स्तर की अनेक पत्रिकाएँ चल रहीं थीं जिनमें "धर्मयुग", "सारिका" तथा "साप्ताहिक हिन्दुस्तान" आदि काफ़ी प्रेरक पत्रिकाएँ रहीं। मेहरुन्निसा जी ने स्वयं स्वीकार किया है कि "धर्मयुग आदि पत्रिकाओं ने हमें बहुत ही महत्वपूर्ण तरीक़े से छापकर स्थापित किया।" 

मेहरुन्निसा जी का लेखकीय जीवन का आरंभ जहाँ एक ओर साहित्यिक पत्रिकाओं के स्वर्णयुग से संबंधित है, वहीं उनका अविभाज्य मध्यप्रदेश की प्रथम मुस्लिम लेखिका होना भी उल्लेखनीय है। सामाजिक समस्याओं पर आधारित मेहरुन्निसा जी की कहानियाँ तथा साक्षात्कार दूरदर्शन जैसे प्रसार माध्यमों में भी प्रसारित हुए। उनकी लंबी कहानी "जूठन" पर आधारित "सिल्ली" नामक धारावाहिक दिल्ली दूरदर्शन से प्रसारित हुआ। उन्होंने वेश्यावृत्ति जैसे निन्दनीय कार्य पर स्वयं टेलिफ़िल्म "लाजो बिटिया" (1977) और स्वतन्त्रता संग्राम पर आधारित एक लोक प्रिय धारावाहिक "विरांगना रानी अवंतीबाई" (1998) का निर्माण एवं निर्देशन किया। 

मेहरुन्निसा जी द्वारा की गई साहित्यिक सेवा के लिए देश-विदेश के सरकार ने तथा विभिन्न संस्थाओं ने उनके प्रति आदर प्रकट करते हुए विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित किया। 2005 में भारत के राष्ट्रपति द्वारा "पद्मश्री" से सम्मानित किया गया। 1980 में "कोरजा" उपन्यास के लिए मध्यप्रदेश सरकार की तरफ़ से "अखिल भारतीय महाराज वीरसिंह जावेद" राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किया गया। इसी उपन्यास को उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ द्वारा भी पुरस्कृत किया गया। 1995 में उनको "सुभद्राकुमारी चौहान" पुरस्कार मिला तथा राष्ट्रभाषा प्रचार समिति द्वारा उन्हें हिन्दी साहित्य की उत्कृष्ट सेवा के लिए सम्मानित किया गया। 1995 में क्रियाशील लेखक एवं जनजाति सेवा के लिए दुर्ग में आयोजित छत्तीसगढ़ सम्मलेन में पुरस्कृत, सम्मानित किया गया। 1995 में उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा "साहित्य भूषण" सम्मान से अलंकृत किया गया। 1999 में लंदन में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन में राष्ट्रभाषा स्वर्ण जयंती के अवसर पर हिन्दी भाषा एवं साहित्य की सेवा के लिए उन्हें विशेष रूप से सम्मानित किया गया। इस अवसर पर उनके कहानी संग्रह "समर" का विमोचन लंदन में हुआ। सर्वश्रेष्ठ पत्रिका "समर लोक" के सुसंपादन के लिए 19 जून 2003 को "श्री रामेश्वर गुरु" पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्होंने लंदन, फ्रांस, रूस आदि देशों की यात्रा की और कई सम्मेलनों में भाग लिया। इस प्रकार से मेहरुन्निसा जी साहित्य और समाज की सेवा में निरंतर कार्य कर रहीं हैं। 

मेहरुन्निसा जी ने साहित्यिक लेखन के अतिरिक्त समाज सुधार और नारी उत्थान की दृष्टि से भी अनेक लेखन कार्य किए। पत्र-पत्रिकाओं में उन्होंने नियमित रूप से लिखा। "पुनश्च" के संपादक दिनेश द्विवेदी जी ने इस विषय पर लिखा कि – " वे ’धर्मयुग’, ’सारिका’ और ’साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ जैसी पत्रिकाओं की नियमित और प्रमुख कहानीकार रहीं। उन्होंने ’रविवार’ जैसे प्रसिद्ध साप्ताहिक तथा ’नई दुनिया’ जैसे दैनिक में नियमित रूप से स्तंभ लिखे।" परन्तु लेखन के क्षेत्र में उनके आई .ए.एस. पति भगीरथप्रसाद को छोड़कर उनके अपने परिवारजनों में किसी ने भी सहयोग या उत्साहित नहीं किया। इतनी प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करती हुई निरंतर अपनी लेखनी से हिन्दी की सेवा और समाज सेवा करती चली आ रहीं हैं। अब तक प्रकाशित उनकी कलाकृतियों का विवरण इस प्रकार है – मेहरुन्निसा जी ने अपने लेखन का आरंभ कहानियों से किया परन्तु बाद में उपन्यास लेखन से भी जुड़ीं। अब तक उनके छह उपन्यास प्रकाशित हुए हैं (1) आँखों की दहलीज (1969), (2 ) उसका घर (1972), (3) कोरजा (1977), (4) अकेला पलाश (1981), (5) समरांगण (2002), (6) पासंग (2004)। इन छह उपन्यासों में से कुछेक उपन्यास मुस्लिम समाज, ईसाई समाज और आदिवासी से संबंधित है जबकि "समरांगण" उपन्यास में लोककथा को ग्रंथ के साथ जोड़ कर एक नया संदर्भ प्रदान किया है। 

मध्यप्रदेश का बस्तर अंचल, वहाँ की प्रकृति, इतिहास, लोकजीवन और संस्कृति मेहरुन्निसा जी के उपन्यासों में व्यापक रूप से आई है। निम्न-मध्यवर्ग की नारी के जीवन की यथार्थ की मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति के रूप में उनके उपन्यासों का विशेष महत्व है। आकार की दृष्टि से मेहरुन्निसा परवेज़ जी के उपन्यास बहुत बड़े या छोटे नहीं हैं। उनकी अब तक की प्रकाशित कहानियाँ सौ से भी अधिक हैं। ये सभी कहानियाँ निम्नलिखित संग्रहों में संगृहित हैं। (1) आदम और हव्वा (1972), (2) गलत पुरुष (1977), (3) टहनियों पर धूप (1977), (4) फाल्गुनी (1978), (5) अंतिम चढ़ाई (1982), (6) अयोध्या से वापसी (1991), (7) ढहता कुतुबमीनार (1993), (8) रिश्ते (1993), (9) अम्मा (1997), (10) समर (1999), (11) मेरी बस्तर की कहानियाँ (2006), (12) कोई नहीं (2008)।

अपने तमाम दायित्वों का निर्वाह करने के साथ-साथ मेहरुन्निसा जी ने संपादन जैसा चुनौतीपूर्ण कार्य भी किया। बेटे समर के असामयिक निधन से जो आघात उन्हें लगा था उससे उबरने के लिए वह तमाम रास्ते टटोल रहीं थीं कि उन्हें लगा – समर की स्मृति को बनाए रखने का एक मात्र उपाय उसकी याद में "समरलोक" नाम से एक पत्रिका का प्रकाशन हो सकता है। इस प्रकार से मेहरुन्निसा जी का एक और पक्ष हमारे सामने आया जो कि संघर्ष पूर्ण रहा। वह, "भारत की प्रतिष्ठित ’समरलोक’ (हिन्दी) सामाजिक सरोकारों की साहित्यिक पत्रिका का संपादन तथा प्रकाशन कर रही हैं। इस पत्रिका ने देश-विदेश के साहित्य जगत में ख्याति अर्जित की।" 

मेहरुन्निसा जी ने अपने उपन्यासों के माध्यम से समाज को चेतावनी और संदेश के साथ-साथ एक सही मार्गदर्शन देने का भी स्तुत्य कार्य किया। स्वातंत्र्योत्तर काल की महिला कथाकारों में मेहरुन्निसा जी एक ऐसी कथाकार हैं जिनके कथा-साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता नारी जीवन और इसकी विसंगतियों का चित्रण है। उन्होंने मुस्लिम समाज को तो समझा ही है और आदिवासियों के गहन संपर्क में रहने के कारण उनकी अशिक्षा और ग़रीबी को दूर करने के लिये बाल एवं परिवार कल्याण जैसे समाज-सुधार के अनेक कार्यक्रम चलाए। शहरी और ग्रामीण परिवेश में रहनेवाली प्रत्येक वर्ग की नारी चाहे वह शिक्षित हो या अशिक्षित उनके संपूर्ण जीवन को मेहरुन्निसा जी ने अपने कथा-साहित्य में बड़ी सूक्ष्मता से उभारा है। नारी जाति के विविध प्रश्न, मुसीबतें, दुख, वेदना, घुटन, अकेलापन, कमज़ोरी, नारी का बलिदान, उसके बिखरे सपने, आकांक्षाएँ – सब की कहानी मेहरुन्निसा जी कहतीं हैं। उनके हर उपन्यास में नारी चेतना उभरकर आती है। नारी को उन्होंने परिवार के एक सदस्य के रूप में उकेरा है। 

उनका पहला उपन्यास "आँखों की दहलीज" है जिसकी नायिका तालिया अपने पति शमीम को उसके ख़ानदान का वारिस नहीं दे पाती है क्योंकि डाक्टरों ने कह दिया था कि वह कभी माँ नहीं बन सकती। परन्तु परिवार में तथा तालिया की माँ के कारण पारिवार में धोखाधड़ी और नमकहरामी का खेल-खेल जाता है जिससे तालिया हताश हो जाती है और आत्महत्या तक करने के लिए स्वयं को तैयार कर लेती है। उसकी सहेली शशि उसे जीवन का नया फ़लसफ़ा बताती है और समझाती है कि माँ बनने के सिवाय भी नारी के लिए अनेक काम है जो जीवन को सफल बनाने के लिए आवश्यक हैं। इस प्रकार से उसमें चेतना जाग्रत होती है और वह महत्वहीन परंपराओं के जाल निकल आती है। 

"कोरजा" निम्न-मध्यवर्गीय मुस्लिम समाज पर आधारित मेहरुन्निसा जी का तीसरा उपन्यास है। इस उपन्यास के मुस्लिम नारी पात्रों के साथ हिन्दू नारी पात्रों को सम्मिलित कर नारी के शोषण की बात को बड़े प्रभावशाली ढंग से कहा है। यद्यपि मेहरुन्निसा जी के उपन्यासों में लेखन के क्रम के विकास के साथ-साथ नारी चेतना भी बढ़ती गई है तथापि कट्टर मुस्लिम संस्कृति में पली और बड़ी हुई स्त्रियाँ अब जागने लगी हैं। अब लड़कियाँ अपने जीवन-साथी स्वयं चुनने लगी हैं और समय के बदलाव को देखते हुए माता-पिता भी इस प्रकार के रिश्तों को मान्यता देते नज़र आते हैं। इस प्रकार की अनेक घटनाओं के द्वारा लेखिका ने अपने विचारों को अभिव्यक्त किया है। "पासंग" उपन्यास में भी नारी चेतना ही कथा के मूल में है। उनका कहना है कि यदि प्रत्येक युवती अपने जीवन का अहम फ़ैसला लेने को स्वतन्त्र हो तो पुरुष समाज उसका मनमाना इस्तेमाल नहीं कर सकता है। इस उपन्यास में नारी के चेतना की अभिव्यक्ति सामाजिक स्तर पर हुई है। 

"अकेला पलाश" उपन्यास का मुख्य केंद्र ही स्त्री और उसकी एकाकी लड़ाई है। उपन्यास के स्त्री-संसार के बारे में यह कहा जा सकता है कि "यहाँ स्त्रियों की पूरी एक दुनिया है। उनके सपनों की दुनिया – उनकी कुंठाओं की कामनाओं की दुनिया, उनके चारों तरफ़ घेरे की दुनिया। इन स्त्रियों की ज़िन्दगी को तह-दर-तह खोलते हुए लेखिका सहज ढंग से उनकी व्यथा तथा संघर्ष को व्यक्त करती जाती है।" (पुनश्च – संपादक दिनेश द्विवेदी पृष्ठ 66) मध्यवर्ग की नारी पात्र का प्रतिनिधित्व उपन्यास की प्रधान नारी पात्र अमीना और उसकी दूर की रिश्तेदार डॉ. नाहिद वाजी करती हैं। दोनों ही उच्च शिक्षा पूरी और आधुनिक सुख-सुविधाओं से युक्त जीवन बिता रहीं हैं। पुरुष के समान अधिकार और आचरण की स्वच्छता को लेकर दोनों स्पष्ट हैं। तहमीना उच्च पद पर है पर अपने परिवार से असंतुष्ट है पर अंत में स्वनिर्भर होकर जीती है डाॅ. नाहिदा बाजी अंतर्जातीय विवाह का साहस करके सभी अवरोधों का सामना कर निश्चित जीवन जीती है। ये नारी पात्र अपनी जागरूकता और व्यापक सोच का परिचय देते हैं। 

यहाँ मेहरुन्निसा जी के सभी उपन्यासों का विवरण देना संभव नहीं है अतः कुछेक उपन्यासों के विषय में ही बताया है। उनके छ्ह उपन्यासों में से चार उपन्यासों का संबंध मुस्लिम समाज और एक उपन्यास का संबंध ईसाई समाज से है। "उसका घर" उपन्यास ईसाई समाज पर आधारित है। मेहरुन्निसा जी ने इस उपन्यास में दिखाया है कि नारी की स्थिति ईसाई समाज में भी मुस्लिम समाज की तुलना में अधिक श्रेष्ठ नहीं कही जा सकती है। उपन्यास में पारिवारिक स्तर पर नारी चेतना की अभिव्यक्ति ऐलमा, रेशमा आंटी और सोफिया आदि पात्रों के माध्यम से हुआ है। और एक अन्य उपन्यास "समरांगण" का आधार स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास है और अधिकांश पात्र हिन्दू समाज के हैं। इस उपन्यास में वह इंसानियत की खोज करती प्रतीत होतीं हैं। आदिवासी समाज की युवतियाँ शैक्षणिक दृष्टि से न सही आधुनिकता के प्रभाव के फलस्वरूप इतनी जागरूक तो हो ही गई हैं कि अपना भला बुरा समझने लगी हैं और सामाजिक बंधनों से मुक्त होने का प्रयास कर रहीं हैं। उपन्यास की स्त्रियाँ अपने उज्वल भविष्य के लिए शिक्षा के महत्व को समझने लगीं हैं, लेकिन परिवार और समाज का कर्ता-धर्ता पुरुष अब नारी की जाग्रति को उचित नहीं समझता है और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बाधा बनता है और विरोध कर रहा है। नारी-मुक्ति का प्रयास सर्वत्र परिलक्षित होता है। नारी के इस क्रांतिकारी रूप को लेखिका ने अपने लेखनी में प्राथमिकता दी है। 

स्वतंत्रता के उपरांत महिला कथाकारों ने बड़ी संख्या में उपन्यास तथा कहानियाँ लिखकर नारी चेतना का डंका बजाया है। मेहरुन्निसा जी उनमें से ऐसी प्रमुख व्यक्तित्व हैं जिनका कथा-साहित्य नारी चेतना की अभिव्यक्ति की दृष्टि से अद्भुत है। कोमलता, करुणा और ममता नारी-हृदय की विशेषता होती है और ये विशेषताएँ कहानियों में प्रायः सभी नारी-चरित्रों में विद्यमान हैं। "समर" शीर्षक कहानी संग्रह की "जगार" कहानी की नायिका गोमती नारी सुलभ कोमलता की दृष्टि से प्रभावशाली चरित्र है। उसकी यह कोमलता सास-ससुर तथा धन के जैसे आसक्त पति से व्यवहार करने में झलकती है। "सूखी बयड़ी" एक ग़रीब कृषि मजदूर नीमड़ा की आर्थिक विपन्नता की कहानी है जिसे अपनी बेटियों के ब्याह के लिए कर्ज़ लेने पर ज़मानत के रूप में अपने बेटे टेसुआ को सेठ दागीलाल के पास रखना पड़ता है। सेठ नीमड़ा के बेटे से तमाम अनैतिक काम कराता है और अपनी तिजोरी भरता है। अंततः जब सेठ की बेटी और नीमड़ा में प्यार हो जाता है तब सेठ नीमड़ा को उसके बाप को सौंप देता है और मुंशी कहता है, "सेठ जी, छोटे जानवर हाँका में रखकर बड़े जानवर फँसे तो कोण नुकसान। फायदा-ही-फायदा।" इस प्रकार से अपनी कहानियों में मानव-चरित्र के हर पहलू को लेखिका ने विभिन्न चरित्रों के माध्यम से उभारा है। उनका कहानी साहित्य एक दर्जन से अधिक कहानी संग्रहों में संगृहित है जो विविधता से युक्त भी है। अपने उपन्यासों और कहानियों में उनकी दृष्टि शोषण पर रही है और नारी की मुक्ति का प्रयास सर्वत्र परिलक्षित होता है। निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि मेहरुन्निसा जी के उपन्यास और कहानियों में उनकी दृष्टि नारी के बहुविध शोषण पर ही रही है। 

मेहरुन्निसा परवेज़ जी एक विलक्षण कथा-लेखिका होने के साथ-साथ एक उच्चकोटि की समाज-सेविका भी हैं। उन्होंने जीवन के आरंभ से लेकर निरंतर उपेक्षित, अभावग्रस्त, शोषित और पीड़ित समाज के लिए कार्य किया है, संघर्ष किया है और इन विभिन्न वर्गों को पूर्ण सहानुभूति प्रदान की है। नारी जो सदियों से पुरुष के दबाव में रही और पराधीन होकर रही, उसे समर्थ बनाकर पुरुष के समकक्ष खड़ा कर देना मेहरुन्निसा जी का स्वप्न रहा है और ऐसा करने में उनको आश्चर्यजनक सफलता भी मिली है। उनकी लेखनी की विशेषता यह रही कि अधिकांश रचनाओं में उन्होंने अपने भोगे हुए यथार्थ को कल्पना के रंग में डुबो कर चित्रित किया है। उनके लेखन की प्रेरणा प्रारंभ में उनके जज पिता से और फिर बस्तर के परिवेश से और अंततः बाल्यावस्था के स्वयं देखे और भोगे कटु यथार्थ से मिली। मेहरुन्निसा जी ने बाल्यकाल से लेकर पहले विवाह के फलस्वरूप ससुराल में रहने तक जो कुछ देखा और भोगा उसकी अभिव्यक्ति उपन्यासों में तो हुई ही, अनेक कहानियों में भी हुई। पात्रों के नाम भिन्न हैं लेकिन व्यक्त यथार्थ सब वही है जो लेखिका ने भोगा है। बाल्यकाल से लेकर यौवन काल तक की अनेक घटनाओं पर नज़र डाली जाय तो अनेक ऐसी बातों की जानकारी मिलती है जिसका संबंध नारी जीवन की यातनाओं से है। उनके माता-पिता के कटु संबंध, पिता का ऐय्याशी स्वभाव, अशिक्षित माँ का प्रतिशोध पूर्ण स्वभाव आदि सब बालिका मेहरुन्निसा ने निकट से देखा था। छोटी उम्र में विवाह होने की असलियत जानकर उनके कोमल हृदय पर जो चोट पड़ी थी, उसके दर्द से वो उबर न सकी। मुस्लिम जीवन और उसमें नारी की स्थिति, आदिवासी जीवन और वहाँ की नारी की पशुवत् स्थिति, और ईसाई समाज की नारी की स्थिति, सब कुछ उन्होंने क़रीब से देखा था और उनके बालमन पर अंकित हो गया था। इन सब स्थितियों से उनकी दृष्टि नारी उत्पीड़न और इसके कारणों पर लग गई थी। उनकी कहानियों में बेरोज़गारी और अनुपयोगिता बोध, आर्थिक अभाव, प्रेम, वियोग, तलाक़ आदि विभिन्न प्रवृत्तियों का चित्रण होने से विविधता बहुत है परन्तु लेखिका की दृष्टि यहाँ भी प्रमुख रूप से नारी शोषण पर ही रहती है। यह कहना उचित होगा कि मेहरुन्निसा परवेज़ जी का पात्र चयन उनके कौशल का परिचायक है। 

मेहरुन्निसा जी के समग्र कथा-साहित्य भाषा और शैली के प्रयोग की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। विविधता भाषा और शैली का प्रमुख गुण है। उनके कथा-साहित्य के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उनकी रचनाएँ समाज को उसमें रहने वालों की पीड़ा, संघर्ष से रूबरू कराती हैं। सशक्त क़लम की तथा बहुआयामी प्रतिभा की धनी मेहरुन्निसा परवेज़ जी की प्रतिभा दिन-ब-दिन और अधिक निखरते रहने की कामना है। 

डॉ. रानू मुखर्जी 
A.303. Darshanam Central Park 
Parashuram Nagar.Sayajigaung. 
Baroda-390020.Gujarat.
M:-+919825788781.
ranumukharji@yahoo.co.in

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टिप्पणियाँ

Sarojini Pandey 2021/05/15 01:37 PM

अच्छी जानकारी ,

पाण्डेय सरिता 2021/05/15 09:59 AM

अद्भुत लेखिका पर अद्भुत लेखन

कृपया टिप्पणी दें

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