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बैठे अपने दूर

कोरोना से सीख ले, जीवन के प्रसंग।
पतझड़ भी आते यहाँ, है सावन के संग।।
 
जब नदियाँ उफान ले, करती पार निशान।
नाव डूब तल में लगे, छूटे हाथ सामान।।
 
शहरों की दौड़े रुकी, गाँवों बसा तनाव।
शांत-शांत सागर दिखे, मगर चली न नाव।।
 
खो बैठे पल में यहीं, जो पाया भरपूर।
बेगानों की क्या कहें, बैठे अपने दूर।।
 
सूना-सूना जग लगे, संकट करे उदास।
जब आती है जान पर, झूठे पड़े क़ियास।।
 
क़िस्मत का ये खेल है, या फिर ख़ास क़ुसूर।
जितने भी हम जब चले, दिल्ली उतनी दूर।।
 
दो गज दूर चले नहीं, अफ़वाहों के पैर।
वक़्त बड़ा बलवान है, नहीं किसी की ख़ैर।।
 
कोरोना से सीखिए, करता ये आगाह।
जानबूझ मत कीजिये, कोई पाप गुनाह।।
 
देखो कितनी काम से, है फ़ुरसत लो आज।
रुकी-रुकी सब गाड़ियाँ, तैरे नहीं जहाज़।।
 
पिघलेंगे पत्थर कभी, आएँगी तब याद।
अपने हाथों खो चले, अपनेपन का स्वाद।।

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