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बलराज साहनी – अभिनय की बारीकियाँ सिखाता हुआ अभिनेता 

1 मई – जन्मदिन 

आज हिंदुस्तान के हर शहर और क़स्बे में नाट्य संस्थाएँ और रंगकर्मी मौजूद है। इन रंगमंच के अभिनेताओं में उत्साह तो अपने चरम पर है पर केवल उत्साह ही किसी को दक्ष अभिनेता नहीं बना देता और दक्षता प्रशिक्षण से आती है। अभिनेता का प्रशिक्षित होना इन दिनों के रंगमंच के लिए दिनों-दिन आवश्यक होता जा रहा है। हर अभिनेता प्रशिक्षण संस्थान तक नहीं पहुँच पाता है पर पहुँचना चाहता है, प्रशिक्षित होना चाहता है पर उसके पास साधन नहीं हैं। ऐसे अभिनेताओं को निराश होने की क़तई ज़रूरत नहीं है, घर बैठे वे अभिनय की बारीकियाँ सीख सकते है, अभिनेता चाहे रंगमंच का हो या फ़िल्म का आपका यह शिक्षक आपको इतना सँवार देगा कि इस विधा में आप एक निपुण अभिनेता बन कर उभर सकते हैं। आप के रंग गुरु का नाम है "बलराज साहनी "।

मैं यहाँ बात उनके जन्म स्थान, उनके संघर्ष, उनके लेखन की नहीं करूँगा जबकि बलराज जी हर विधा में निपुण थे, मैं यहाँ उनके अभिनय की चर्चा करूँगा। एक अभिनेता के अभिनय की समीक्षा। जब बलराज साहनी जी अभिनय कर रहे थे तब उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि वे अभिनय सिखा भी रहे हैं। मैंने उन्हें मंच पर अभिनय करते नहीं देखा लेकिन उनकी बहुत सी फ़िल्में देखी हैं जिनमें उनके निराले अंदाज़ चौंकाते हैं और दिमाग़ में यह बात उभरती है कि यह आदमी तो अपने आप में अभिनय का प्रशिक्षण केंद्र है। इसे अभिनय करते देख अभिनय की बारीकियाँ सीखी जा सकती हैं।

अगर हम बलराज जी की फ़िल्म "वक़्त" देखें तो उस एक ही फ़िल्म में बलराज साहनी जी के अभिनय में कई शेड नज़र आते हैं और एक ही बलराज साहनी एक ही फ़िल्म में तीन अलग-अलग अभिनेता दिखाई देते हैं। एक अतिउत्साह से लबरेज़ व्यापारी जो सफलता के मद में चूर है। इस फ़िल्म में बलराज जी ने आँखों से अभिनय किया था, उनकी आँखों से मानो क़ामयाबी टपक रही हो, उनकी आँखों में सफलता का घमंड आसानी से पढ़ा जा सकता था, फिर अगले ही क्षण जब वे दोस्तों की फ़रमाइश पर प्रेम गीत "ए मेरी ज़ोहरा जबीं –तुझे मालूम नहीं" गाते हैं तो एक प्रेम में डूबे हुए आशिक़ नज़र आते हैं, यहाँ बलराज जी की आँखों में शोख़ियाँ और मस्ती देखी जा सकती है, एक ऐसा दिलफेंक आशिक़ बन जाते हैं जिसे दीवाना मस्ताना कहा जाता है। उसके बाद जब उनका सब कुछ लुट जाता है तब उनकी आँखों में बेबसी, अकेलापन और बर्बादी की ऐसी दास्ताँ नज़र आती है कि दर्शक रो पड़ता है। बी.आर. चोपड़ा की इस फ़िल्म में बलराज जी ने यह साबित किया था कि अभिनय में आँखों का क्या योगदान होता है।

फ़िल्म "नील कमल" में बलराज साहनी जी ने वहीदा रहमान के पिता का रोल किया था जिसकी बेटी अपने ससुराल में परेशान है। बेटी का दुःख बाप के चेहरे पर बहुत ही कलात्मकता के साथ उन्होंने उतारा था। बलराज जी की हर फ़िल्म में अभिनय की शैली विकसित होती नज़र आती है। अगर हम एक छात्र की तरह उसे समझने का प्रयास करें तो उनके अन्दर ऐसी ऐसी बारीकियाँ नज़र आएँगी जिन्हें एक नया अभिनेता आत्मसात कर ले तो उसे अपनी भूमिका समझने और उसे निभाने में बहुत हद तक मार्ग दर्शन मिल सकता है। बलराज साहनी के अभिनय को देखते समय अगर हम कुछ नोट्स तैयार करें तो वह इस प्रकार हो सकते हैं –

बलराज जी का अंदाज़ हमें यह बताता है कि अभिनय के दरमियान हमारा शरीर पूरी तरह नियंत्रित होना चाहिए, भाषा के लहज़े में शालीनता का पुट होना बहुत आवश्यक है। उच्चारण में खोट तो स्वीकार हो ही नहीं सकता। बलराज जी की शाला में एक अभिनेता सबसे पहले यह समझता है कि उसे संवाद बोलने की ज़रा भी जल्दबाज़ी नहीं करनी है। पहले शरीर को तैयार करो, संवाद पहले तुम्हारी "बाड़ी लेंग्वेज" से कहे जायेंगे, फिर तुम्हारी आँखें दर्शकों से बात करेंगी, फिर अपने सम्पूर्ण आकार को पात्र के प्रकार में ढाल लेने के बाद बारी आती है संवाद बोलने की।

संवाद बोलने के लिये बलराज जी का ध्वनि और प्रवाह कमाल का था। बात ऊँची आवाज़ में कहना है तो कितनी ऊँची आवाज़ में कहना है, धीमा बोलना है तो किस हद तक धीमा बोलना है? हँसना है तो अधिक से अधिक कितना हँसना है, रोना है तो कम से कम कितना रोना है? बलराज साहनी ने किसी भी फ़िल्म में बलराज साहनी की तरह नहीं बोला बल्कि अपनी हर फ़िल्म में उन्होंने उस पात्र की तरह कहा है जिसे वे परदे पर जी रहे थे। अगर मुस्कान से काम चल जाये तो खिलखिलाकर क्यों हँसना और सिसकने भर से दर्द स्पष्ट हो जाये तो दहाड़ें मार कर क्यों रोना? यह फ़ार्मूला था बलराज जी के अभिनय का जिसे हर अभिनेता को आत्मसात करना चाहिए। बलराज जी को अभिनय करते देखो तो यह भी महसूस होता है कि यह अभिनेता कभी भी पूरी तरह निर्देशक पर निर्भर नहीं रहा होगा। हर अभिनेता को अपनी तैयारी स्वयं करनी चाहिए जिस पर निर्देशक हल्की पॉलिश भर करेगा तभी अभिनेता खिल पाता है।

फ़िल्म "धूल का फूल" में बलराज जी का एक छोटे बच्चे के प्रति स्नेह ही फ़िल्म का कथानक था। जब बलराज जी ने कथावस्तु सुनी होगी तो उन्होंने ज़रूर पहले स्वयं को उस चरित्र को जीने के लिए मानसिक रूप से तैयार किया होगा। इस फ़िल्म में अभिनय का नया ही अंदाज़ सामने आया था और वह था – कुछ नहीं बोल कर सब कुछ बोल देना, कुछ नहीं देख कर सब कुछ देख लेना, कुछ नहीं जान कर सब कुछ जान लेना, कुछ नहीं पाकर सब कुछ पा लेना और कुछ नहीं खो कर सब कुछ खो देना। इस फ़िल्म में उन्हें देख कर यह भी सीखा जा सकता है कि पात्र के अनुसार अपनी चाल कैसे निर्धारित करना।

बलराज साहनी ने अनेकों बार सिर्फ़ अपने चलने के अंदाज़ से अभिनय में बदलाव किया है। "धूल का फूल" और "इज़्ज़त" में एक रईस आदमी के किरदार में सिर्फ़ उनकी चाल में ही एक भव्यता नज़र आती थी लेकिन जब हम उनकी फ़िल्म दो बीघा ज़मीन देखते हैं, जिसमें वो गाँव छोड़ कर शहर जा रहे है और बैक-ग्राउंड में गीत "कोई निशानी छोड़ जा, कोई कहानी बोल जा, मौसम बीता जाये – मौसम बीता जाय" सुनाई देता है वह पूरा दृश्य बलराज जी के चलने के अंदाज़ पर ही फ़िल्माया गया था। फ़िल्म "वक़्त" के लाला की भूमिका में शरीर में जो अकड़ नज़र आती है, वही शरीर दो बीघा ज़मीन में बीमार होने पर कैसा निढाल हो जाता है। अभिनय का यह अंतर फ़िल्म "दो रास्ते" और "हक़ीक़त" में भी देखा और समझा जा सकता है।
     
हम जब बलराज जी की पूरी फ़िल्म देख चुके हों और फिर दुबारा उस चरित्र और अभिनेता के बारे में विचार करें तो सबसे पहले ध्यान जाता है अभिनय करते समय उनका संयम। यह अभिनेता अपने को कितना सँभाल कर प्रस्तुत करता था, कितना केल्कुलेट अंदाज़ होता था उनका। उनके संवादों की अदायगी में अनुशासन को समझा जा सकता है। यह संयम और अनुशासन यूँ ही नहीं आ जाता है, इसे बाक़ायदा अभ्यास के द्वारा अपनी आदत में पिरोया जाता है। इस तरह का संयम और अनुशासन एक अभिनेता के लिए गंभीरता पूर्वक सीखने का हुनर है।    

बलराज साहनी जी का ज़िक्र हो और ज़िक्र न हो फ़िल्म "गर्म हवा" का तो फिर वह ज़िक्र, ज़िक्र हरगिज़ माना न जाएगा। इस फ़िल्म की चर्चा के बिना यह चर्चा मुक़म्मल हो ही नहीं सकती। सथ्यू जी की यह बेमिसाल फ़िल्म में अभिनेताओं में ज़बरदस्त टक्कर थी। ए.के. हंगल, जलाल आगा, युनुस परवेज़, फारूक शेख ने इस फ़िल्म में अपना सर्वश्रेष्ठ किया था। कैफ़ी आज़मी साहब ने बेहतरीन संवाद रचे थे और दी थी एक यादगार सूफ़ी रचना "मौला सलीम चिश्ती – आका सलीम चिश्ती"। बेहद संवेदनशील विषय पर बनी यह फ़िल्म में बेहतरीन फ़ोटोग्राफी के साथ एक और अहम् हिस्सा था बलराज साहनी का। इस फ़िल्म में तो उन्होंने बोला भी बहुत कम था, चला भी ज़्यादा नहीं था, उन्हें पूरा का पूरा दिखाया भी कम ही गया था। पर्दे पर बस एक चेहरा उभरता और वह तीन-चार अल्फाज़ बोल हट जाता। हट जाता लेकिन देखने वालों के ज़हन में रह जाता, वहाँ से हटाये न हटता। वह चेहरा जिसमें उम्मीदों का दरिया था, निराशा का सूखा था, सच्चाई का भरोसा था, अपनों से खाया हुआ धोखा था। सथ्यू जी ने जो फ़िल्म बनाई थी बलराज साहनी के अभिनय की ऊँचाइयों ने उसे क्लासिकल में तब्दील कर दिया था। फ़िल्म और थियेटर में अभिनय की शुरुआत करने वालों के लिए बलराज साहनी की यह फ़िल्म जो यू ट्यूब पर उपलब्ध है उसे बार-बार, हज़ार-बार देखनी चाहिए, यह अभिनेता आपका मार्ग दर्शक बन जाएगा और सँवार देगा आपका भविष्य। 

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टिप्पणियाँ

मोईज़ हुसैन 2019/06/15 07:47 AM

प्रभावोत्पादक लेख । बलराज जी अत्यधिक शिक्षित व्यक्तित्व के धनी थे । वे सिर्फ अदाकार, कलाकार ही नहीं रचयिता थे । लेखक की परिकल्पना को रच देना कोई उनसे सीखे । फिल्म *सीमा* के गीत "तू प्यार का सागर है" में भी उनकी आंखें शब्दों के पार बोल उठीं थी । लेख एवं लेखक को नमन ।

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