बनैली चाहतें
काव्य साहित्य | कविता भावना सक्सैना15 May 2019
ख़्वाहिशों के प्रेत कुछ
और चाहतें बनैली
संग मेरे रही चलती
मैं कहाँ कब थी अकेली!
भस्म कुछ परछाइयों की
मस्तक चढ़ाए फिर रही
धूप-छाँव सी ज़िन्दगी
हरदम रही बनकर पहेली।
आत्मा के दाग़ कुछ
भावनाओं के संगुफन
परत-परत चढ़े अनुभव
मौन ही मन की सहेली।
चीरती आकाश को जब
बिजलियाँ उस पार तक
मन उड़ा करता असीमित
छोड़ पीड़ा की हवेली।
वासना के फेर में
जब पड़ गई मृदु चाहतें
नेह की राहें अचानक
हो गईं कितनी कसैली।
आज जो कल था वही
होकर यहाँ भी ना रही
बस यूँ ही फिरती रहीं
चाहतें मन की बनैली।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
"पहर को “पिघलना” नहीं सिखाया तुमने
कविता | पूनम चन्द्रा ’मनु’सदियों से एक करवट ही बैठा है ... बस बर्फ…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
लघुकथा
स्मृति लेख
कहानी
सामाजिक आलेख
कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं
{{user_name}} {{date_added}}
{{comment}}