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बंकू भैया 

कहानी पुरानी नही है, इसमें राजा और रानी भी नहीं हैं, कहते हैं कहानी वही अच्छी होती है जो आपकी और मेरी हो। ऐसी ही एक कहानी सुनाने जा रही हूँ। 

10 साल के बच्चे की कहानी, आपकी और मेरी कहानी, 4 जुलाई 2008 को बंकू भैया का अवतार हुआ, अवतार भी कोई साधारण बात नहीं थी। 3 जुलाई को भारत बंद था। दवा, डॉक्टर, अस्पताल तीनों का मिलना मुश्किल था। जैसे-तैसे एक अस्पताल मिला और 4 जुलाई की सुबह-सुबह डॉक्टर दादी की कृपा से बंकू भैया का अवतार हुआ। जैसे ही भैया घर आये पता चला कि वो अस्पताल तो बिक गया। ख़ैर . . .। घर में तो बधाइयों का सिलसिला चल रहा था लेकिन कोई था घर में जो बंकू के आने से बहुत ख़ुश नहीं था। उनकी दीदी। दरअसल उन्हें तो गुड़िया चाहिए थी। भैया को फ्रॉक नहीं पहनाई जाती थी और न ही उनको ज़्यादा सजाया जा सकता था। दीदी ने बंकू का एक्सचेंज ऑफ़र निकाला और आस-पास जन्मी हर गुड़िया की माँ के पास गईं। सब दीदी पर हँस देते और दीदी की योजना असफल रही। इसी के साथ बंकू का अपने ही घर में संघर्ष शुरू हुआ। जैसे-तैसे सर्दी, ज़ुकाम, उलटी-दस्त, मलेरिया, डाइरिया जैसी बीमारियाँ झेलते हुए बंकू भैया का जीवन आगे बढ़ रहा था। अभी बस डेढ़ साल ही हुए थे कि बंकू भैया इतने बीमार हो गए थे, कि लगा अब तो भगवान की तरफ़ ही चल दिए। जैसे-तैसे डॉक्टर ने संघर्ष के बाद बंकू भैया को बचा लिया। 

ये सब आप को इसलिए बता रही हूँ कि आप समझ सके कि बंकू भैया को जीवन में बहुत संघर्ष झेलने पड़े। पूरी ज़िंदगी तो दूसरों के हिसाब से बितानी पड़ती है, आप के जीवन को चलाने के लिए आप के अलावा सब कि मर्ज़ी चलती है . . . दीदी भी स्कूल जाती थी सो भईया भी स्कूल जाने की ज़िद करते उनको ख़ुद ही नहीं पता था कि अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। बस आव देखा न ताव मासूम बच्चे का दाख़िला उसी स्कूल में करवा दिया गया जहाँ दीदी भी जाती थी। 

सवा तीन साल की उम्र में उनको एक अद्भुत ज्ञान प्राप्त हुआ कि ये जो स्कूल है—कोई बहुत अच्छी जगह नहीं है। यहाँ घर के जैसी मर्ज़ी नहीं चलती। माँ नख़रे नहीं उठाती मन उदास हो गया,  लेकिन अब पीछे नहीं हटा जा सकता था। फ़ीस भर दी गयी थी,  यूनिफ़ॉर्म कॉपी किताब भी आ गए थे। सब से ख़ास बात स्कूल के शिक्षक, बंकू भैया ओर उनकी दीदी से बहुत प्यार करते थे। छोटे से बंकू! कई बार थक कर स्कूल में बेंच पर या मैडम की गोद में सो जाया करते थे। उनका सफ़र आगे बढ़ा, उनकी कक्षा में मोहल्ले के और भी बच्चे पढ़ते थे; बस यहीं से शुरू हुई जीवन की प्रतियोगिता। निधि के नंबर कितने आये हैं, आकाश का कक्षा में क्या स्थान था। सबसे पड़ी परेशानी दीदी, जिनकी मार्कशीट में अच्छे नंबर के साथ अच्छे वाले रिमार्क भी लिखे होते थे। बंकू भैया ने ठान लिया था कि उनको दीदी जैसा बनना था! ज़िद्दी इतने थे—अपने पापा से भी झगड़ा करते थे और घर छोड़ कर जाने की धमकी देते थे। एक दिन तो पापा और बंकू के बीच इतना झगड़ा हुआ कि बंकू घर छोड़ कर चले गए। योजना बहुत सफल नहीं हो पाई। क्लोज़ कैंपस था ना ! गार्ड भैया ने रोक लिया। पापा बहुत हँसे। बंकू भैया कि हिम्मत के और भी चर्चे हैं . . . उन्होंने मधु मैम को जंगल में छोड़ आने की धमकी दी लेकिन उन पर इसका कोई असर न हुआ, संघर्ष बढ़ता जा रहा था। उनका स्थान कहाँ है, ये समझ भी तो नहीं आ रहा था। 

बंकू भैया कितना भी पढ़ लें पड़ोस वाली चाची रोज़ अपनी बेटी की तारीफ़ों के पुल बाँधती रहती। उनकी बेटी बंकू की क्लास में ही थी, वह उसकी और बंकू की तुलना करने और बंकू को नीचा दिखाने में कोई कसर न छोड़ती थी। ये प्रतियिगिता युद्ध स्तर पर थी हारने के डर से बंकू रो पढ़ते थे। मोहल्ले में लड़कियाँ बहुत थीं। लोग कहते लड़कियाँ लड़कों से अच्छी होती हैं। वे सब ज़्यादा समझदार, सुंदर और ज्ञानी साबित हो जातीं, शायद चाची के जीवन का यही लक्ष्य था। लेकिन माँ हमेशा साथ देतीं कहती कि डटकर सामना करो। कई बार बंकू भैया का दिल टूटा भी लेकिन उन्होंने अपना संघर्ष नहीं छोड़ा। हर बार दीदी और माँ समझाते कि तुम्हारी प्रतियोगिता ख़ुद से है पर ये बात उनकी समझ में नहीं आती। जैसे-तैसे प्ले स्कूल का दौर ख़त्म हुआ। अब उन्हें अब एक बड़े स्कूल जाना था। 

इतिहास अपने आपको दोहराता है, जहाँ दीदी पढ़ रही थी वहीँ उन्हें भेजा गया। और अब तो हद हो गई लॉटरी सिस्टम से दाख़िला होना था, चाची की बेटी का तो नाम आ गया लेकिन बंकू की क़िस्मत यहाँ भी साथ न दे सकी और दूसरी ब्रांच में एडमिशन लेना पड़ा। ये बात और है कि कुछ ही दिनों में दीदी बंकू वाले स्कूल आ गई। प्यारी दीदी अब बंकू दीदी को स्कूल के तौर-तरीक़े बताते थे। कहीं तो समझदार साबित हुए!

 याद है इस स्कूल का पहला दिन, लग रहा था मानो पूरी दुनिया ही बदल रही है . . . सारे दोस्त छूटने वाले हों, मन कह रहा था कि मैडम अब आप ही नैया पार लगा दो . . . ये सोचते हुए बस उनकी ओर अपना हाथ बढ़ा दिया . . . मैम ने हाथ थामा . . .। मैडम के हवाले बंकू को छोड़कर पापा घर चले गए . . . धीरे-धीरे कहानी आगे बढ़ती गई। कई बार बंकू भैया ने दोस्तों से आगे बढ़ने का प्रयास किया, कभी दीदी के जैसे तो कभी और के जैसे। अक़्सर असफल ही रहे। कभी जीते भी तो पता नहीं क्यों ख़ुशी न मिली। 

कई बार रो पड़ते कि मैं और जैसा क्यों नहीं लिख पाता . . .। एक दिन पापा ने समझाया कि बंकू अगर तुम यूँ ही दूसरों के जैसे बनने की कोशिश करोगे; तो तुम तुम कब रहोगे? तुम अलग हो सबसे प्यारे, कोई भी किसी और के जैसा नहीं होता। तुम्हारी अपनी जगह है। अपनी ख़ासियत है। किसी और से अपनी तुलना मत करो। प्रतोयोगिता करनी है तो अपने आप से करो। अब तक जो सीखा है उससे आगे और क्या सीख सकते हो ये सोचो। 

अब बंकू को थोड़ा-थोड़ा समझ आने लगा था। सारे शिक्षक अपना प्यार और ज्ञान बंकू के ऊपर उड़ेल रहे थे। जो चाची की नज़रों में सबसे बदमाश बच्चा था अब स्कूल के अनुशासित बच्चों में जाना जाने लगा था। कुछ प्रतियोगितायें भी जीतने लगा; उसका मन सभी विषयों में लगने लगा था अब। मालूम था कि संघर्ष ही जीवन है। अगर आगे बढ़ना है तो ख़ुद से प्यार करना होगा और हमेशा यूँ ही उतार-चढ़ाव को पार करते हुए चलते रहना होगा। इस साल बंकू भैया को कक्षा 5 में स्टूडेंट ऑफ़ द इयर का अवार्ड भी मिल गया। वो ख़ुश था, वो हैप्पी वाले स्कूल का हैप्पी बच्चा था। उसने ये बात चाची से न कही क्योंकि चाची तो बदलने वाली न थी; बदलना तो बंकू को था। बस इतनी सी थी कहानी . . .बंकू भैया का सफ़र अभी बाक़ी है उनको अभी और कई इम्तिहान देने हैं। क्योंकि जीना इसी का नाम है!

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