बरसों से....
काव्य साहित्य | कविता तरुण भटनागर31 May 2008
बरसों से,
तुम और मैं,
एक साथ लाखों बरसात की बूँदें,
जिनमें से किसी एक को,
बहुत ध्यान से देखने पर भी आँख पकड़ नहीं पाती है।
बरसों से,
तुम और मैं,
लोहे की पटरी पर ट्रेन का पहिया,
लोहे पर लोहा,
चुकता नहीं,
पंचर होकर रुकता नहीं,
एक सी करतल धुन,
एक सा सिद्धांत,
कोई प्रतिवाद नहीं।
तुम और मैं,
दीवार पर एक तस्वीर,
बरसों से इस तरह लटकी तस्वीर,
कि,
आज अगर हटा दी जाय,
तो सतायेगा दीवार का बैरंग खालीपन,
सब पूछेंगे तस्वीर कहाँ गई।
बरसों से,
तुम और मैं,
हवा में पत्ते का कंपन,
अकेले का खेल,
सब लोगों से इस तरह छुपा,
कि कोई ध्यान भी नहीं देता,
इतना सामान्य,
और बहुत पुराना....।
पर, कितना अजीब है,
कि बरसों से,
मैंने और तुमने,
ज्यादा बातें नहीं कि,
अक्सर हम चुप ही रहे,
अपने-अपने कामों में ड़ूबकर।
क्या मेरे जीवन का खालीपन इसी रास्ते से आया है?
जब हम नये-नये थे,
तब कितना बतियाते थे हम,
तब लगता था,
कभी खत्म नहीं होंगी बातें.....।
पर फिर भी जाने कैसे तबसे आजतक,
नहीं बदल पाया है कुछ भी।
मुश्किल रहा है,
तुमसे दूर रहना,
बरसों से...।
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