बसंत
काव्य साहित्य | कविता डॉ. आस्था नवल9 Apr 2012
मोर की आवाज़ सुनाई देने लगी है
कोयल भी धीरे धीरे
बौर आए आम के वृक्ष पर
आने लगी है
शहतूत का पेड़ पहले जैसा फिर से
हरा हो गया है
ठंडी बयार के सुस्त होने से
काँच की खिड़कियाँ खुलने लगीं हैं
सुनाई देने लगी हैं
पड़ोसी नानी की आवाज़ें
रिश्तों में आई शीतलता भी
खिड़कियाँ खुलने से खत्म हो गई है
कितना अच्छा हो गर ना हो फिर से
सर्दियों का सा शीत जमाव
और ना हो इतनी अधिक गर्मी
कि लग ही जाए आग
ना हो ऐसी वर्षा
कि हर पहचान धुल जाए
क्या तुम रिश्तों में हमेशा नहीं रह सकते बसंत???
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