बसंत (दिव्या माथुर)
काव्य साहित्य | कविता दिव्या माथुर29 Nov 2007
स्वर्णिम धूप, हरा मैदान
पीली सरसों हुई जवान
चुस्त हुआ, रंगों में नहा
लो देखो वयस्क हुआ उद्यान
झील में हैं कुछ श्वेत कमल
या बादल नभ पर रहे टहल
मृदु गान से कोयल के मोहित
हैं नाच रहे मोरों के दल
यूँ पवन की छेड़ाछेड़ी से
उद्विग्न हैं कालियाँ
फूलों का पा संरक्षण
निश्चिंत हैं कालियाँ
फूलों से चहुं ओर घिरे
भौंरे जैसे मद पान किए
ख़याल तेरा भी भंग पिए
आया बसंत को संग लिए
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