बीती रात का सपना
काव्य साहित्य | कविता लावण्या शाह5 Aug 2007
बीती रात का सपना, छिपा ही रह जाये,
तो, वो, सपना, सपना नहीं रहता !
पायलिया के घुँघरू, ना बाजें तो,
फिर, पायल पायल कहाँ रहती है?
बिन पंखों की उड़ान आखिरी हद तक,
साँस रोक कर देखे वो दिवा-स्वप्न भी,
पल भर मेँ लगाये पाँख पंखेरु से उड़,
ना जाने कब, ओझल हो जाते हैं!
मन का क्या है? सारा आकाश कम है--
भावों का उठना, हर लहर लहर पर,
शशि की तम पर पड़ती, आभा है!
रुपहली रातों में खिलतीं कलियाँ जो,
भाव विभोर, स्निग्धता लिये उर में,
कोमल किसलय के आलिंगन को,
रोक सहज निज प्रणयन उन्मन से
वीत राग उषा का लिये सजातीं,
पल पल में, खिलतीं उपवन में !
मैं, मन के नयनों से उन्हें देखती,
राग अहीरों के सुनती, मधुवन में,
वन ज्योत्सना, मनोकामिनी बनी,
गहराते संवेदन, उर, प्रतिक्षण में !
सुर राग ताल लय के बंधन जो,
फैल रहे हैँ, चार याम, ज्योति कण से,
फिर उठा सुराही पात्र पिलाये हाला,
कोई आकर, सूने जीवन पथ में !
यह अमृत धारा बहे, रसधार, यूँ ही,
कहती मैं, यह जग जादू घर है !!
रात दिवा के द्युति मण्डल की,
यह अक्षुण्ण अमित सीमा रेखा है!!
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