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बेगम समरू का सच - एक शासिका जिसकी सबने अनदेखी की

उपन्यास: ‘बेगम समरू का सच’
लेखक: राजगोपाल सिंह वर्मा
प्रकाशक: संवाद प्रकाशन, शास्त्री नगर, मेरठ -250004
कुल पृष्ठ: 272, (पेपरबैक)
मूल्य: 300/- (पेपरबैक) रु.600/- (हार्ड बाउंड)

इतिहास के पन्नों में गुमनाम, लेकिन ह्रासोन्मुख मुग़लकाल का एक मशहूर नाम– यानि ‘बेगम समरू’! बेगम समरू का इतिहास प्रामाणिक होते हुए भी अनेक किंवदंतियों से भरा हुआ है। इतिहास की इस ज़बर शख़्सियत को शायद ही लोग रज़िया सुल्तान, नूरजहाँ और लक्ष्मी बाई की तरह जानते हों, पर वह डूबते हुए मुग़ल शासन के दौरान अपनी क़ाबलियत से एक बुलंद पहचान बनाने वाली महत्वपूर्ण ऐतिहासिक पात्र थी। ख़ूबसूरती में वह नूरजहां से कम न थी, कुशल शासन में वह रज़िया सुल्तान से पीछे न थी और हिम्मत तथा जांबाज़ी में वह दूसरी लक्ष्मी बाई थी। फिर भी, इतिहासकारों ने न जाने क्यों उसे वह तवज्जो नहीं दी, जो उसे मिलनी चाहिए थी। इतिहास ने उसकी अवहेलना ही की। ऐसे पात्र के जीवन-तथ्यों और सच्चाई को इतिहास के अँधेरे तहखानों, ओझल दस्तावेज़ों और दुर्बोध सूत्रों से खोज निकालना और फिर इतिहास की रक्षा करते हुए, उस पर उपन्यास लिखना, दुर्गम क़िला फ़तेह करने से कम नहीं। 

उपन्यासकार राजगोपाल सिंह वर्मा का दिसम्बर, 2019 में मेरठ के प्रतिष्ठित ‘संवाद प्रकाशन’ से प्रकाशित उपन्यास ‘बेगम समरू का सच’ जब मैंने पढ़ना शुरू किया तो, इतिहास आधारित होते हुए भी वह इतना रुचिकर लगा कि इसका समापन, जिसे मैं विलम्बित सोच रही थी, वह द्रुत गति से हुआ। यह अपने में एक अमहत्वपूर्ण, पर अहम बात थी। 

इस उपन्यास में तैंतीस अध्याय हैं, जिनमें बेगम समरू की अजूबों से भरी परी-कथा जैसी लगने वाली जीवन-गाथा पाठक मन को अन्त तक बाँधे रखती है। सरधना के बारे में लेखक के ये शब्द द्रष्टव्य हैं–

’सरधना का इतिहास बहुत समृद्ध रहा है। महाभारत काल में वह कौरवों की राजधानी हस्तिनापुर का एक भाग हुआ करता था। सरधना में आज भी उस काल का प्राचीन महादेव मंदिर मौजूद है।’ (पृ.87, अध्याय 8) इसलिए ही लेखक ने उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में बसे ‘सरधना’ के इतिहास को केंद्रित कर क़लम चलाई, क्योंकि यहाँ का इतिहास बहुत समृद्ध है, लेकिन इसके बावजूद भी लोगों की नज़रों से ओझल है। 

चार मई 1778 में रेनहार्ट सोम्ब्रे की मृत्यु के बाद, अपने आँसुओं को पोंछ, पति से विछोह के दर्द को दिल में सँजोए, फ़रज़ाना ने बेगम समरू बन, अपने निधन (26, जनवरी, 1836) तक, जिस शौर्य और साहस से कुशल शासन का इतिहास रचा, वह अपने में अद्भुत था। 

उपन्यास की शुरुआत फ़रज़ाना और वाल्टर रेनहार्ट की पहली मुलाक़ात के एक बहुत रोचक चित्रात्मक दृश्य के साथ होती है। दिल्ली के चावड़ी बाज़ार के देह्जीवी इलाक़े में रहने वाली, माँ की असमय मौत की वज़ह से कोठे की मालकिन गुलबदन, जो उसकी माँ की सहेली थी, उसके संरक्षण में पली-बढ़ी, नृत्य और गायन में पारंगत, तेरह साल की ख़ूबसूरत किशोरी फ़रज़ाना उर्फ़ ज़ेबुन्निसा उर्फ़ बेगम समरू पढ़ी-लिखी न होने पर भी सोच-समझ की धनी थी और उससे भी ज़्यादा क़िस्मत की अमीर थी। शायद यही वज़ह थी कि मुग़लों का मददगार, उनकी तरफ़ से अंग्रज़ों से लड़ने वाला जर्मन सैनिक वाल्टर रेनहार्ड, एक दिन चावड़ी बाज़ार की उस रंगीन गली में दिल बहलाने की मंशा से आया, तो पहली ही नज़र में ‘नाचने वाली’ फ़रज़ाना से दिल लगा बैठा। जब वह उसके कोठे पर पहुँचा, तो उस समय बला की ख़ूबसूरत फ़रज़ाना कत्थक करती हुई दिखाई दी। उसकी शख़्सियत और उसके नृत्य में न जाने कैसी कशिश थी कि वह पहली ही नज़र में उस पर मोहित हो गया और उसके बाद जो घटा, वह अपने में मुहब्बत और जंग का एक यादगार इतिहास है। 

कहने की ज़रूरत नहीं कि बेगम समरू के जीवन-वृत्त पर केन्द्रित यह उपन्यास, शाहआलम द्वितीय के शासनकाल की घटनाओं और सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों को समेटता हुआ, फ़रज़ाना के ‘बेगम समरू’ बनने तक के इतिहास को प्रमाणिकता के साथ प्रस्तुत करता है। जैसा कि उपन्यास के शीर्षक से ही ज़ाहिर है कि इसमें बेगम समरू के ‘सच’ को तो शिद्दत से सामने लाया ही गया है, साथ ही अन्य पात्रों और तत्कालीन घटनाओं के ‘सच’ को भी ईमानदारी से सँजोने का पूरा ध्यान रखा गया है। यह एक बड़ी बात है, वरना अधिकतर लेखक थोड़े से सच में बहुत सी मनमानी ख़्याली बातें मिला कर, उसे इतिहास का नाम दे देते हैं, लेकिन राजगोपाल जी ने ऐसा नहीं किया है। उन्होंने सरापा ईमानदारी से इतिहास को निभाया है।

बेगम ने तेरह वर्ष तक, मुहब्बत और जंग का एक-एक पल दिलेरी, संजीदगी और जांबाज़ी से जीते हुए अपने शौहर के साथ गुज़ारा था। शौहर के चले जाने से वह दुःख और अवसाद में डूब गई थी, लेकिन उसकी समझ और उसका विवेक नहीं डूबा था। वह सचेत थी कि नवाब समरू की मौत के बाद उसे ही अपनी वफ़ादार प्रजा का ख़्याल रखना था और अपनी ज़िंदगी को भी एक सम्मानजनक दिशा देनी थी। सो जल्द ही अवसाद और गम के अंधेरों से निकल कर, उसने सरधना की जागीर और अपनी रिआया को सुरक्षित रखने के लिए, सेना की बागडोर सम्हाली। अपने शौहर से जुदा होने के तीन वर्ष बाद, बेगम ने शायद उसके अधिक निकट होने की चाहत से ईसाई धर्म अपनाया और ‘जोहना नोबलिस’ इस नाम को क़ुबूल किया। लेकिन जिस नाम से उसकी दूर-दूर तक पहचान बनी - वह नाम था ‘बेगम समरू’। वह अपने शौहर के प्रेम में भरी, आगरा के रोमन मिशनरी क़ब्रिस्तान परिसर में बनी उसकी क़ब्र पर अकसर जाया करती थी। शौहर की रूह के सुकूं व चैन के लिए, दुआ पढ़ती और ग़रीबों को दिल खोल कर दान देती।

बेगम द्वारा सरधना की जागीर की बागडोर सम्हालने से पहले, उपन्यास में ह्रासोन्मुख मुग़लकाल के उपेक्षित ऐतिहासिक तथ्यों का उल्लेख मिलता है। 'बंगाल में मुग़लों की नवाबी' का अन्त हो रहा था। बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को अपने नाना से अलीवर्दी खां मरते समय अँग्रेज़ों की ओर से सचेत रहने की चेतावनी मिल चुकी थी। दूसरे, सिराजुद्दौला की अनुमति के बिना अँग्रेज़ों द्वारा भवन निर्माण अदि की मनमानी के कारण, वह अँग्रेज़ों से क्रुद्ध था। कभी अँग्रेज़, नवाब के सम्मुख आत्मसमर्पण करते तो कभी नवाब उनसे संधि करने को बाध्य होता। साथ ही, अँग्रेज़ों से पराजित सिराजुद्दौला फ्रांसिसियों से सम्बन्ध बढ़ाने का प्रयत्न करने में लगा था। इधर मराठों की शक्ति उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही थी और धीरे-धीरे दिल्ली के आस पास का क्षेत्र भी उनके प्रभाव में आ चुका था। दिल्ली सम्राट बूढ़े शाहआलम (जिसके पूर्वज बाबर, हुमायूं, अकबर, शाहजहां, और औरंगज़ेब थे) उसकी कमज़ोरी को भाँप कर, मराठे, आगरे तक आ पहुँचे थे। मराठा सरदार सिंधिया उनका नेतृत्व कर रहा था। मराठे दिल्ली का तख़्तोताज़ हड़प लेने की ताक में थे। उधर रूहेले तथा उनका सहारनपुर स्थित नवाब क़ादिर बख़्श शाहआलम को अपनी ओर मिलाकर दिल्ली को अपने अधिकार में करके, मुग़ल राज्य की जड़ें दृढ़ करना चाहता था। मुग़लों के ख़िलाफ़ शाहआलम की ओर से मराठों को बढ़ावा देना, उसे सरासर मूर्खतापूर्ण लग रहा था। सिराजुद्दौला के गद्दार सेनापति मीरजाफ़र के कारण वह अँग्रेज़ों से प्लासी का युद्ध हार गया था और मीरजाफ़र बंगाल का नवाब बना दिया गया था। लेकिन कलकत्ता काँउंसिल ने मीरजाफ़र को अयोग्य बताकर, उसके स्थान पर, उसके जमाता मीरक़ासिम को बंगाल का नवाब बना दिया। तत्कालीन शासन की इस उथल-पुथल के बीच, सिन्धिया की सेना के बाद विदेशियों द्वारा सधाई हुई सबसे बड़ी सिपाही सेना सरधना की थी, जिसे ‘वाल्टर रेनहार्ड सोम्ब्रे’, ने तैयार किया था। ‘समरू’ नाम ‘सोम्ब्रे’ का ही अपभ्रंश था। वह मुग़लों की ओर से अँग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ने वाला जांबाज़ जर्मन सैनिक था, जिसे बंगाल के नवाब मीर क़ासिम का संरक्षण प्राप्त था। 

तदनन्तर रेनहार्ड गुर्गिन ख़ान का अधीनस्थ बना, जो मीरक़ासिम की सेना में एक आरमीनियाई जनरल था। वह रेनहार्ड सोम्ब्रे की योग्यता से बहुत प्रभावित था। बेगम समरू इसी जर्मन ‘रेनहार्ड सोम्ब्रे’ की दूसरी पत्नी थी, जो मेरठ के एक साधारण घराने से थी। लेकिन अपनी कार्य कुशलता, पटुता व बुद्धि के बल पर उसने अपने जर्मन शौहर ‘नवाब समरू’ की मृत्यु के बाद, उसके राज्य की बागडोर को इस तरह सम्भाला था कि सब चकित रह गए। रेनहार्ड की मृत्यु तो 4 मई 1778 ई. को हुई। रेनहार्ड के लिए प्रसिद्ध था कि उसे युद्ध से घृणा थी। उसको भय रहता था कि कोई सैनिक न मारा जाए। वाल्टर रेनहार्ड का विश्वासपात्र मंत्री था 'जार्ज टॉमस'। वह आयरलैंड निवासी था। कुछ इतिहासकारों के अनुसार टॉमस एक अशिक्षित व्यक्ति था, जो साधारण नाविक बन गया था। वह दक्षिण भारत के जंगल के सरदारों के पास रहता था, जो पोलीगार कहलाते थे। तदनन्तर वह निज़ाम की सेना में तोपची बन गया था। परन्तु 5-6 माह के अन्दर ही वह इस काम से उकताकर दिल्ली पहुँचा और वहाँ बेगम समरू की योरोपियन सेना में ले लिया गया। वह उदार और योग्य व्यक्ति था। इसी कारण बेगम समरू शीघ्र ही उस पर विश्वास करने लगी थी और ऐसा भी कहा जाता है कि वह उससे प्रेम करती थी। लेखक ने भी इस बात का संकेत उपन्यास में दिया है - 

‘जनरल थॉमस का सरधना आगमन उसके लिए एक आशा की किरण बनकर आया। थॉमस अब सिर्फ़ सेना के प्रमुख ओहदे पर ही नहीं था, देखते ही देखते वह बेगम के मुख्य दरबारी और सलाहकार भी बन गया था।’ (पृ. 103)

उपन्यास का अध्याय बारह टामस और बेगम समरू के पारस्परिक आकर्षण का स्पष्ट ख़ुलासा करता है– 

‘आज दो बार उन्हें मुस्कुराने का मौक़ा मिला था, न जाने कितने बरसों बाद। खुद उन्हें अच्छा लगा था। आँखों में कुछ सपने सँजोये यह एक बेहतर फ़ौजी लगता था उन्हें, दिल ऐसा कहता था, न जाने सही या ग़लत, यह पता नहीं था। हाँ, धड़कनें ज़रूर कुछ समझाना चाह रही थीं, पर फिर कुछ ही पलों में बेगम ने अपने चेहरे के कठोर आवरण को और सख़्ती से ओढ़ लिया।’ (पृ. 102)

तत्कालीन अनेक युद्धों और विद्रोही कृषकों के साथ लड़ाइयों में टॉमस अपनी योग्यता की परीक्षा में पूर्ण सफल हुआ था, तभी बेगम ने प्रसन्न होकर, उसे अपनी जागीर के टप्पल के इलाक़े में, जो अलीगढ़ से 32 मील उत्तर पश्चिम में है, गवर्नर नियुक्त किया। गवर्नर के रूप में टॉमस ने क़ानून भंग करने वालों की ख़बर ली। उसे टप्पल की वसूली करने अधिकार भी दिया गया था। लेकिन बाद में बेगम ने उससे, टप्पल की जागीर लेकर, अपने कब्ज़े में सुरक्षित कर ली थी। कहा जाता है कि अलग करने पर टॉमस को क़ैद भी कर लिया गया था। तब मराठा दरबार के रेज़िडेंट शाह निज़ामुद्दीन ने, जो शाही दरबार दिल्ली में महादजी सिन्धिया का कार्यकर्ता था, उसने बीच बचाव करके टॉमस को कारावास से मुक्त कराया था। 

कुछ किंवदंतियों के अनुसार टॉमस को अलग करने का कारण यह था कि उसने बेगम समरू को यह सलाह दी थी कि कुछ बेकार फ़्रेंच सिपाहियों को सेना से हटाकर सेना ख़र्च कम किया जाए। जिसके कारण सरधना का फ़्रेंच दल टॉमस का विरोधी हो गया था। उस फ़्रेंच दल का नेता था 'ली-वासी'जो एक ख़ूबसूरत, पढ़ा-लिखा और हुनरमंद युवक था। बेगम उसे बहुत पसंद करती थी और वह भी बेगम का बहुत वफ़ादार चाहने वाला था। कहते हैं कि कुछ समय बाद, दोनों ने गुप्त रूप से शादी भी कर ली थी। जब बेगम की सेना का एक दल बेगम के ख़िलाफ़ हो गया था और उस दल ने नाराज़ होकर ज़फरयाब को सरधना की गद्दी पर बैठा दिया था। अपनी फ़ौज की बग़ावत से डर कर बेगम जब अपने प्रेमी व गुप्त शौहर ली-वासी के साथ फ़रार हुई, तो दोनों ने दुश्मनों की क़ैद में रहने से बेहतर साथ मरने की ठान ली थी। इसी निर्णय के तहत आत्महत्या करने पर ली-वासी तो मर गया लेकिन बेगम ख़ून से लथपथ होने पर भी बच गई। उस मूर्च्छित दशा में उसके सौतेले बेटे ज़फरयाब खां ने, जो उस समय सरधना का मालिक बना दिया गया था, उसे क़ैद में (अक्टूबर,1795 से जुलाई 1796) डाल कर तरह–तरह से यातनाएँ दीं। 

बेगम के जीवन में जार्ज टामस और ली-वासे दो लोग ऐसे आए थे जिनसे उनके आत्मिक सम्बन्ध हुए थे। 

‘उनमें कितनी सच्चाई थी, यह आज तक साफ़ नहीं हुआ। ख़ुद बेगम ने हमेशा ऐसी ख़बरों को अनसुना किया। सिर्फ़ ली-वासे और थॉमस  से उसके ऐसे संबध विकसित हुए थे, जिन्हें वह दिल के नज़दीक मान सकती थी।’

यह उदार दिल वाला जार्ज टामस ही था जो विपरीत हालत के चलते, बेगम की प्रार्थना से द्रवित हो गुप्त रूप से सरधना पहुँचा, जहाँ बेगम के कुछ हितैषी सिपाही भी टॉमस से मिल गए तथा बेगम को पुनः सरधना की मालकिन बना दिया गया और ज़फरयाबखां को क़ैद कर लिया गया। इस एहसान को बेगम ने दिल से स्वीकार था और वह टामस के प्रति अपार कृतज्ञता से भर उठी थी। इसके कुछ दिन बाद ही टामस ने युद्ध और मार-काट की ज़िंदगी से थक अपने देश आयरलैंड वापिस जाने का निश्चय कर लिया था। उसके इस इरादे से बेगम बहुत हताश और उदास हुई थी। लेकिन बाद में वह चाह कर भी आयरलैंड नही जा सका था।

हिन्दुस्तान के तख़्तोताज़ को हड़पने के लिए विभिन्न सैनिक शक्तियाँ आपस में टकरा रही थीं। मराठे, रूहेले, जाट अवध के नवाब वज़ीर, सभी सम्राट बनने के स्वप्न देखते थे। सन् 1788 ई में जब रूहेला सरदार गुलाम क़ादिर को पकड़ लिया गया, तो यह निश्चित सा हो चुका था कि महादजी सिन्धिया पुनः दिल्ली का सर्वेसर्वा बन जायेगा किन्तु दुर्भाग्यवश सिन्धिया की स्थिति 4-5 वर्ष तक अति शोचनीय रही। 1788 ई में सिन्धिया ने आगरा और दिल्ली को विजय किया था जिससे उसके सैनिक ख़र्चे बढ़ गए थे। वेतन न पाने पर सेना चढ़ाई करने के लिए साफ़ मनाकर देती थी। इसी बीच गुलाम क़ादिर खां का सितारा फिर चमक उठा था। जब गुलाम क़ादिर ने दिल्ली सल्तनत को घेर कर उस पर कब्ज़ा किया तो उस समय मुग़ल साम्राज्य में व्यवस्था स्थापित करने वाला और मुग़ल सेना की धुरी महादजी सिंधिया दिल्ली में मौजूद नहीं था। बेगम समरू को जैसे ही शाहआलम पर आई मुसीबत का पता चला वह तुरंत अपने दल-बल सहित दिल्ली पहुँच गई और शाहआलम के तख़्तोताज की हिफ़ाजत करते हुए, क़ादिर खां को चतुराई से ऎसी शिकस्त दी कि बूढ़े शाह आलम ने बेगम की वफ़ादारी और बहादुरी से ख़ुश होकर उसे ‘ज़ेबुन्निसा’ की उपाधि से नवाज़ा। 

बुद्धिमत्ता, भावुकता, संवेदनशीलता, विवेकशीलता, ईमानादारी, वायदाबरदारी, कर्मठता और साहस बेगम के चरित्र की कुछ दुर्लभ विशेषताएँ थीं, जिनके बारे में इतिहास ख़ामोश रहा। उलटे बेगम को चरित्रहीन और ऐय्याश कहने में किसी ने संकोच नहीं किया, लेकिन उपन्यासकार ने बेगम इन गुणों का प्रमाणों सहित उल्लेख किया। 

बेगम ने उचित समय पर बादशाह, कर्नल स्टुअर्ट, महादजी शिंदे (सितम्बर, 1803 में असाईं का युद्ध) से लेकर अनेक आम लोगों की भी, वफ़ादारी और बहादुरी से रक्षा कर अपनी सच्चाई और उच्चता का परिचय दिया था। बेगम एक नरमदिल, न्याय-प्रिय, दयालु पर साथ ही अनुशासन प्रिय शासक थी। वह एक दूरदर्शी, व्यावहारिक समझ वाली निडर सेनापति थी और अपने कुशल नेतृत्व से शत्रुओं को परास्त कर देती थी। अपने इस बुद्धि-बल पर ही उसने युद्धों में जीत हासिल की थी। कर्नल स्किनर और मेजर आर्चर ने बेगम के युद्ध कौशल, हिम्मत और विलक्षणता की अपनी पुस्तकों में खुले दिल से प्रंशसा की है। वह सब धर्मों आदर को देती थी। 

बेगम उन लोगों को हमेशा याद रखती थी, जिन्होंने मुसीबत के समय उसका साथ दिया था। छोटी उम्र, संघर्षमय जीवन के चलते भावुक मनस बेगम का पहले टामस से लगाव हो जाना और बाद में ली-वासे की मुहब्बत की गिरफ़्त में आ जाना, उसके अंदर की उस नारी को प्रतिबिम्बित करता है, जो अपने साथ एक ऐसी पुरुष-सुरक्षा की कामना करती थी, जिसके साए तले वह मुहब्बत में डूबी हुई, सुख-सुकून भरी ज़िंदगी जी सके। फिर भी सरधना की जागीर की ‘नवाब’ होने के कारण, ली-वासे से शादी करने की जो भूल उसने की थी, उसका उसे बाद में पछतावा हुआ। पर उसके बाद, उसने ताउम्र किसी पुरुष के सम्मोहन में न बँधने का जो उदात्त संकल्प लिया था, उसे उसने अंतिम साँस तक निभाया। यह उसके चरित्र की दृढ़ता का परिचायक था। 

वह बेसहारा, यतीमों और बेवाओं की मसीहा थी। प्रजा का सुख-दुःख जैसे उसका अपना सुख-दुःख था। वह अपने सैनिकों के परिवारों की भी दिल से सहायता करती थी। परम्परा और नियम के तहत वह भी राजस्व वसूली करती थी लेकिन इसके लिए उसने अपने जीवन-काल में कभी भी किसानों को न तो सताया और न कभी दण्डित किया। जार्ज ईलियट ने बेगम के सम्मान में लिखा था - 

‘बेगम के चरित्र पर लोगों में बहुत विवाद है, पर वह निश्चित और निर्विवाद रूप से एक उद्यमी और साहसी महिला थी। सम्राट शाहआलम का लगातार बचाव करने और अन्य कामों को लेकर उसका सम्मान किया जाना चाहिए।‘ (पृ. 237)

उम्रदराज़ होने पर, बेगम ने अपने जीते-जी बहुत सलीके और न्यायपूर्ण सोच से अपनी मिलकियत में से असहाय मुस्लिम, हिन्दू और ईसाई, जो उसकी जागीर में रहते थे, उन सबके लिए पेंशन के रूप में आर्थिक सहायता की व्यवस्था की थी। उसके दत्तक पुत्र डेविड सोम्ब्रे जो उसके शौहर रेनहार्ट सोम्बे का पड़पोता था, यानी उसकी पहली पत्नी के बेटे ज़फरयाब खां की बेटी जूलियाना का बेटा था– बेगम ने वसीयत का सबसे अधिक हिस्सा उसके नाम किया था। 

ब्रिटिश सरकार को बेगम द्वारा लिखा हुआ एक ख़त, उसकी अपनी प्रजा के प्रति प्यार, ख़्याल और ज़िम्मेदारी को प्रतिबिंबित करता है - 

‘मेरे भाई लोगों क्या आपको अनुमान है कि मेरी रिआया में एक हज़ार अपाहिज, अंधे और लूले-लंगड़े लोग भी हैं, जिनको माकूल जगह दिलाना भी ज़रूरी है।’ (पृ. 190)

बेगम के चरित्र की उच्चता के कारण ब्रिटिश अधिकारी बेगम को अपना हितैषी मानते थे। अपने चारित्रिक गुणों के अतिरिक्त, बेगम साहित्य, संगीत, वास्तुकला आदि का भी सम्मान करती थी। इतालवी वास्तुशिल्प के आधार पर बना सरधना का सेंट मेरी चर्च इसका प्रमाण है। इसके अलावा बेगम ने एक भव्य चर्च मेरठ छावनी में भी निर्मित करवाया था। बेगम ने मुहम्मद आज़म नामक कलाकार से अपने महल में अनेक कलाकृतियाँ बनवाई थी जिन पर मुग़ल और यूरोपियन दोनों कलाओं का प्रभाव नज़र आता है। बेगम समरू ने अपने दरबार में कवियों को सम्मान देती थी और ‘फरासू’ उसका दरबारी कवि था जिसके द्वारा समय-समय पर बेगम की शान में रचनाएँ लिखी गई थीं। बेगम ख़ुद भी फ़ारसी और उर्दू की अच्छी ज्ञाता थी। 

इस प्रकार ऐतिहासिक तथ्यों तथा चरित्रों के आधार पर रचित यह उपन्यास आरम्भ से अन्त तक अत्यन्त महत्वपूर्ण बन पड़ा है। लेखक ने जहाँ कहीं, बेगम समरू से संबंधित किंवदन्तियों का उल्लेख किया है, वे सब इतिहास सम्मत हैं। यों तो बेगम समरू का इतिहास प्रामाणिक होते हुए भी बहुचर्चाओं से पूर्ण है इसलिए तथ्यों का कहीं-कहीं उपन्यास वर्णनों से मेल न खाना भी सम्भव है। लेकिन अधिकांशतः घटनाओं का उल्लेख प्रामाणिक तथ्यों पर ही आधारित है जिसके लिए लेखक ने भारतीय और पश्चिमी लेखकों की हिन्दी और अँग्रेज़ी में प्रकाशित शोध-प्रपत्र, पुस्तकें, विविध पत्रिकाओं और समाचार-पत्रों के आलेखों का विशद अध्ययन किया। इसके अलावा गज़ट, नोटिफ़िकेशंस आदि की भी सहायता ली। जिन इतिहासकारों से मिलना सम्भव था, उनसे भेंट करके बेगम समरू और उसकी जागीर सरधना के इतिहास के महत्वपूर्ण तथ्यों की सत्यता को जाना और उस पर गहन मनन व चिंतन के बाद इस उपन्यास का सृजन किया। 

यह उपन्यास रोचक ऐतिहासिक घटनाओं और भाषा के सहज प्रसाद गुण, वर्णन की अद्वितीय प्रतिभा के कारण, पाठक के हृदयमनस पर ऐसी छाप छोड़ता है कि इस में वर्णित ऐतिहासिक घटनाएँ, पढ़ते समय, चलचित्र की तरह पाठक के दिलो-दिमाग़ पर उभरती जाती हैं जिनसे पाठक का तादात्म्य स्थापित हो जाता है। बेगम परिस्थितियों की दास थी, लेकिन दास होते हुए भी, उनसे जूझने व उनके अनुकूल अपने को बदल लेने की अद्भुत क्षमता रखती थी। इसलिए ही वह अपनी कुछ भूलों पर, पश्चाताप करती है। टॉमस से आशा के प्रतिकूल अच्छा व्यवहार पाकर, उसके प्रति शुक्रगुज़ार होती है। उसकी इस तरह की पारदर्शी सोच और ग़लत को ग़लत व सही को सही कहने का गुण, उसे बहुत ऊँचा उठा देता है। 

बेगम के मानवीय और शासकीय चरित्र के मणि-कांचन योग को जिस ख़ूबसूरती से राजगोपाल जी ने ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत कर, इस उपन्यास का कलेवर बुना है, वह अपने एक लेखकीय संघटना की कालजयी मिसाल है। मेरी शुभकामना है कि राजगोपाल जी की लेखनी इसी शिद्दत से सक्रिय रहे और वह हिन्दी साहित्य जगत को समृद्ध व सम्पन्न बनाती रहे। 

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