बेकार
काव्य साहित्य | कविता निवेदिता शर्मा8 Jan 2019
औरतें ही तय करती हैं कि
चादरें बदलनी हैं और
गिलाफ गंदे हो गये हैं
या कि अब ये पर्दे
बैठक के क़ाबिल नहीं रहे,
और चमचमा देती हैं घर
ख़ुद धूल में लिपटकर....…
वो अक्सर सुनती हैं ये जुमला -
"तुम करती क्या हो दिन भर…?"
और ऐसा नहीं कि जवाब नहीं है
लेकिन पूछने वाला जानता नहीं
कि वो झेल नहीं पायेगा
जवाब का वज़न......
ये ऐसा ही है कि जैसे
कोई हिमालय से कहे,
"तुम करते क्या हो??
या समंदर से कहे कि,
"बेकार इतनी जगह में पसरे पड़े हो"
वो दोनों भी औरत की ही तरह
ख़ामोश रह जायेंगे
पूछने वाले की अक़ल पर
मन ही मन हँसते हुए
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