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बेटियाँ

हमारी कॉलोनी के इस छोटे से सब्ज़ी-बाज़ार में मेरी बहुत ही प्यारी बेटी नेहा की उम्र की सी लड़की सब्ज़ियों की छोटी सी दुकान सज़ा कर सुबह से शाम तक बैठती है। धूप-छाँव-लू-बारिश-दिसंबर की ठंडी हवाओं की परवाह के बिना।

मैं पिता हूँ- अपनी हँसमुख बेटी का, पर उस की दूसरी उदास हमउम्र हमशक्ल लड़की का पिता कौन है, जीवित है भी या चला गया, मुझे नहीं पता।

जब भी वहां से गुज़रता हूँ, लगता है- उस लड़की के धड़ पर मेरी ही बेटी का चेहरा है- सदा हँसता। मुस्कराता। और हर दफ़ा चाहता हूँ उसकी पूरी दूकान ही खरीद लूँ। महीनों से ये सिलसिला चल रहा है।

पर इतनी सज़ियाँ तो दुनिया के बड़े से फ्रिज में भी नहीं समाएँगी न? भले न आएँ, उसकी मदद तो होगी और वह धूप-छाँव-लू-बारिश-ठंडी हवा में यों बैठने से तो बच जाएगी.... पर कितने दिन? आख़िर कितने दिन? सारी सब्ज़ियाँ बिक जाने पर क्या वह दुकान में बैठना छोड़ देगी? कब तक रोज़ इस तरह उसकी दुकान की तमाम सब्ज़ियाँ खरीदता जाऊँगा ताकि वह वहाँ कभी उस हालत में न दिखे?

....और कुछ इस तरह मैं हर दिन उसकी दुकान पर पहुँचता हूँ।

मुझे भी वह मामूली सा ग्राहक जान कर आदतन मेरी तरफ़ प्लास्टिक की एक पुरानी सी टोकरी उछाल देती है। जब मैं किसी सब्ज़ी की तरफ़ हाथ नहीं बढ़ाता, तो भी मुझे उपेक्षापूर्वक देखते हुए वह पिछले ग्राहकों द्वारा तितर-बितर किये बैंगनों को करीने से ज़माने लगती है। फिर मिर्चों को। फिर लौकियों और फिर टमाटरों को।

मैं कहता हूँ, " नेहा! मुझे एकाध सब्ज़ी नहीं तुम्हारी पूरी दुकान की ये सब सब्ज़ियाँ चाहिएँ!"

वह ठिठक कर मुझे देखती है और सख़्त लहज़े में कहती है- "बाबूजी! मेरा नाम नेहा नहीं।"

ज़रूर सोचती होगी- मैं कोई बदमाश, सिरफिरा, नीम-पागल, या उसका मज़ाक बनाने वाला मनचला सा अधेड़ हूँ।

भरोसा दिलाने के लिए हज़ार रुपये के महात्मा गाँधी हरी पालक के ढेर पर सम्मानपूर्वक रख देता हूँ। सात वैसे ही महात्मा मेरे हाथ में और हैं- उसे ये यकीन दिलाने कि लिए कि मैं दुकान की सब सब्ज़ियाँ एक साथ खरीद सकता हूँ।

अब वह अचकचाती है- चारों तरफ़ घबराई सी निगाह डालती हुई। जून की दुपहर सन्नाटा। मदद के लिए आसपास कोई नहीं।

नासिक में छपे महात्मा गाँधी अब भी पालक के हरे टोकरे में लावारिस पड़े हैं।

उसके भले और भोले-भाले चेहरे पर एक के बाद एक घोर अविश्वास, हैरत, आशंका, संदेह, डर, बेबसी, जिज्ञासा और खुशी के कई रंग एक के बाद एक आते और जाते हैं।

शताब्दियों से, सालों साल, हर दिन, बस केवल यह यही पुराना जाना-पहचाना क़िस्सा घटित होता है।

****

बस दिन पर दिन गुज़रते हैं, महीने और साल ....धीरे-धीरे मेरा सारा घर सब्ज़ियों से भरने लगता है।

गुसलखाने में जाता हूँ तो ऊपर तक अंटी गोभियाँ टपकती हैं, बेडरूम में बैंगन छत तक पहुँचते हुए, कबर्ड में कमीज़ों की जगह बस कद्दू ही कद्दू नज़र आ रहे हैं, पत्तागोभी का ढेर तो दालान की ऐन छत तक पहुँच गया है, बड़े-बड़े काँटेदार कटहल गैरेज में ठुंसे पड़े लोगों को दूर से दिख जाते हैं, पालक घर के हर बिस्तर हर गलीचे हर दरी पर बिछ गई है... और हरा धनिया बरामदे में अहाते में, बैठक में चप्पे-चप्पे पर फैला हुआ है, स्टोर में नीम्बू भरे पड़े हैं, खिड़कियों पर तुरई करेले और घीया की पचासों बेलें लटकी हैं, मैं देख रहा हूँ शिमला-मिर्च का एक पौधा तो मेरे तकिये तक में उग आया है, आलू सारी छतों सारे फशों पर और...और अब तो घर में बची-खुची जगह अनगिनत तुरई, आलू, टिन्डों , गोभी, धनिया, अदरक, नीम्बू, लौकी, कद्दू, कटहल मूली-गाजरों ने घेर ली है।

न चलने फिरने की जगह बची है, न हिलने-डुलने की...। चूँकि ग़ुसलखाना हज़ारों अरबियों और अदरक की करोड़ों गाँठों से भरा है मुझे नहाने के लिए कहीं और जाने की ज़रूरत है...।

ज्यों ही में अपने आप को मोहल्ले के हेंड-पंप पर नहाने-धोने के लिए ख़ुद को अपने कपड़े उतारता देखता हूँ, डर और घबराहट से नींद टूट जाती है...।

***

मैं सीधा अपनी बेटी के कमरे में जाता हूँ। वह सो रही है- मुझ और सब्ज़ी वाली लड़की से बेख़बर!

उसका चेहरा ध्यान से देखता हूँ- यह जानने के लिए कि कहीं वह हमारी कॉलोनी के सब्ज़ी-बाज़ार में बैठने वाली उस अनाम लड़की से तो नहीं मिलता।

मुझे बेतहाशा ख़ुशी होती है....शुक्र है....नहीं मिलता, बिलकुल नहीं मिलता....।

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