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बेटियाँ (डॉ. विवेक कुमार)

बेटियाँ समय के साथ
समझने लगती हैं
इस रहस्य को
क्यों असमय बूढ़े होते जा रहे हैं उसके पिता।
वह जानती है,
उसकी बढ़ती उम्र ही है
पिता के बार्धक्य का असली कारण।

कभी-कभी
मन ही मन कुढ़ती भी है कि
आख़िर वह क्यों
समय से पहले बड़ी हो गई।

पता नहीं कब और कैसे
वह जान जाती है
लगभग सब कुछ कि
उसे क्या-क्या करना है और क्या नहीं,
कब और किसके सामने मुस्कुराना है
और वह भी कितना...

तमाम अनिश्चिंतताओं और उतार-चढ़ाव के बावजूद
बेटियाँ रहती हैं जीवन भर बेख़बर
कि बनता है संपूर्ण घर
सिर्फ़ और सिर्फ़ उन्हीं से।

वह पूरी लगनशीलता से
सँजोती हैं स्मृतियों के
गुल्लक में गुज़रे अच्छे दिनों को ।

बेटियाँ रहती हैं अपरिचित
इस सच से कि ,
वह हैं तो घर हैं
रिश्ते-नाते हैं
तुलसी चौरे पर अनवरत टिमटिमाता दीया है
व्रत-त्योहार है
नेम-धरम है
गुड्डे-गुड़ियाँ और उनकी शादियाँ हैं
सृजन है,
जीवन है।

सचमुच,
बेटियाँ होती हैं
घर परिवार में रची-बसी
फूलों की सुगंध की तरह
जो दिखाई नहीं देती
लेकिन अपनी उपस्थिति का
सदैव बोध कराती है।

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