अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

भगवान की सबसे बड़ी गल्ती!

यह पेट तो कुआँ है जी कि भरता ही नहीं!

इसे भरते जाओ तो 'शर्ट' में फूला नहीं समाता और अगर इसे खाली रखो तो जनाब के पेट में चूहे तक नचवा दे। संतुलन में रहे तो चेहरे पर रौनकें लाये, दीर्घायु में मदद दे। मचल जाये तो रातों की नींद उड़ा दे, बाथरूम के बाहर चारपाई बिछवा दे, डॉक्टरों के चक्कर लगवाये और यहाँ तक कि शमशान भूमि तक का रास्ता भी दिखा दे! यह चाहे तो घर-आँगन में खुशियों से झोलियाँ भर दे। कुल का नाम आगे बढ़ाये और चाहे तो पूरे कुनबे को एक दूसरे से मिलने को भी तरसा दे!

पेट विवश करने पर आये तो पूरे शरीर को भी बाज़ार में दाँव पर लगाकर बिकने पर मजबूर कर दे! पेट अपने काम में बड़ा सक्षम है। पेट है कि तन्दूर - मिट्टी-पत्थर सब को जलाकर राख कर दे और बाकी कुछ बचे तो हवा में उछाल दे! पेट बड़ा स्वार्थी और लालची भी है। भरा होने पर दिमाग के हिस्से की "ऑक्सीज़न" भी अपने पास खींच ले। जागतों को सुला दे (मधु-रोगी यह तथ्य भली-भाँति जानते हैं!) और खाली होने पर सोतों को भी उठा दे!

मेरी तरह इसके पास भी सब्र की बहुत कमी है। भोजन सामने देखा नहीं कि जिह्वा और मुँह दोनों को एक साथ उकसाकर पकवानों पर टूट पड़ने को कहता है - थोड़ा सा यह भी चख लो, और थोड़ा - सा वो भी ठूँस लो। आज ही सब कुछ खालो, पता नहीं, फिर कल हो न हो!

मेरी तरह इसकी याददाशत भी 'शॉर्ट है'। यह बड़ी जल्दी भूल जाता है कि इसने कब क्या और कितना खाया था! पेट बड़ा झूठा भी है। सब कुछ खा-पीकर भी साफ-साफ मुककर जाता है कि इसने कुछ खाया है! इसका वश चले तो इंसान को झूठा ही नहीं बल्कि एक पागल भी करार करवा दे! आज ही की बात है - सुबह नाश्ते में पेट में चार अंडे और दही-आचार के साथ दो गोभी के पराठे डाले थे। ब्रंच में 'स्नैक्स' खाने के बाद दोपहर के खाने की इंतज़ार में घड़ी से इसने अपनी अभी नज़रें नहीं हटायी और कहता है – सुबह, मैंने ठीक से नहीं खाया। मुझे भूख फिर लग गई है। माँ भी कभी-कभी कह उठती है - तेरा पेट है या कुआँ! उस रोज़ पेट ने मुझे डॉक्टर के पास अपनी शिकायत लेकर जाने के लिये मजबूर कर दिया -"डॉक्टर साहिब मुझे भूख नहीं लगती, मेरा इलाज करें। मुझे भूख नहीं लगती, डॉक्टर साहिब! मेरा कुछ इलाज करें, डॉक्टर साहिब!" सेवन की गई वस्तुओं का विवरण मेरे मुख से सुनकर डॉक्टर भी हँसता हुआ बोला – “जनाब इतना कुछ खाने के बाद भी अगर आपको यदि भूख नहीं लगती तो मुझे खा लो!" अभी समोसे और पकोड़ों के साथ शाम की चाय और रात्रि के भोज का तो मैंने ज़िक्र ही नहीं किया।

लोग तो देश-विदेशों में घूमें होंगे, पर बेचारी माँ की सारी ज़िंदगी तो चूल्हे-चौके और परिवार की "पेट पूजा" में ही इस पापी-पेट ने रसोई घर में निकाल दी है! माँ का सारा जीवन परिवार का पेट भरने में ही गुज़र गया है, लेकिन उसने कभी उफ तक नहीं की।

पेट बड़ा लापरवाह भी है! अपने ऊपर बिलकुल कोई दायित्व नहीं लेता और आपके ऊपर मोटू या मोटी का लेबल लगवा कर, रोज़-मर्रा की ज़िंदगी में हर मोहल्ले और चौंक में जलील करवाता है! अपने स्वार्थ के लिए लोगों को सामाजिक और नैतिक मूल्यों को भुलाकर ईमानदारी, सच्चाई और यहाँ तक के उनके ज़मीर को भी बेचने पर लाचार और मजबूर कर देता है। पेट खाली हो तो उठने की बात तो छोड़ो, बैठे-बैठे भजन भी नहीं करने देता! इसीलिए तो कहते हैं- "भूखे भजन न होई गोपाला!” राजनैतिक नेताओं का पेट - तौबा-तौबा! बस, मेरा मुँह बंद ही रहने दें! देश-सेवा के नाम पर गरीबों का खून चूस-चूसकर और देश को बेचकर खाने के बाद भी इनका पेट अभी तक न तो भरा ही है और या फिर भरकर फटा ही है!

मैं तो यह कहता हूँ जिसका पेट भरा है, उनके साथ अल्लाह भी है और जिसका पेट खाली है उनके लिये भगवान भला कहाँ है? जिस इंसान का पेट भरा है, वह कहता है - ईश्वर है, वह सबको देता है लेकिन इसके विपरीत क्या आपने कभी उस व्यक्ति से कभी पूछा है जिसने पिछले कई दिनों से अन्न का एक भी तिनका अपने पेट में नहीं डाला! उसके लिये तो भगवान नहीं है - वह भूखे पेट वाला इंसान पूछता है -"क्या भगवान अंधा है, क्या उसे नहीं दिखता कि मैं पिछले कई दिनों से भूखा हूँ?” आजकल भगवान न तो हमारे दिल में रहता है और न ही दिमाग में! किसी मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे या गिरजाघरों में भी भगवान नहीं रहता बल्कि लोगों के पेट में रहता है - पेट भरा है तो भगवान है लेकिन अगर पेट खाली है तो ईश्वर नहीं है!

आकड़ों के अनुसार विश्व के एक तिहाई भूखे-पेट भारत में रहते हैं! अमेरिका जैसे विकसित देशों में भी हिंसक जुर्मो की तादाद में आये दिन बढ़ावा हो रहा है। इसके कारणों में एक मुख्य कारण खाली पेट का होना है, लेकिन मेरे इस लेख का मुद्दा विश्व की मौजूदा समस्याओं पर कोई टिप्पणी करना या उनके हल ढूँढना नहीं है! मेरी तो अपनी खुद की बहुत समस्यायें हैं और भगवान ने मुझे भी एक पेट लगाया हुआ है! मैंने कोई ठेका नहीं ले रखा, किसी का! 'गुड -लक!'

भगवान ने हमें दिल दिया, दिमाग दिया, आँखें दी, नाक दिया, हाथ दिये। टाँग-पाँव दिये और इस शरीररूपी गाड़ी को सुचारु रूप से चलाने के लिए कई पुर्जे बखूबी जोड़े। यह सब बहुत अच्छा किया लेकिन पेट देकर ऐसा किया जैसे कहावत है- "बकरी ने दूध दिया, मेंगने डाल कर!" मनुष्य गल्तियों का पुतला है लेकिन भगवान भी 'परफेक्ट' नहीं है! भगवान ने यह हमें सुंदर और सक्षम शरीर देकर अपनी कारीगरी की एक अजूबी मिसाल दी लेकिन पेट लगाकर सब गुड़-गोबर कर दिया।

एक चीज़ जो खुदा ने हमें न दी होती, वह है पेट! भगवान की यह सबसे बड़ी गल्ती है। पेट ही संसार में सभी समस्याओं की जननी है! पेट न होता तो इस जगत में कोई भी जीव-जन्तु दुखी न होते! पेट ही इन्सानों से अच्छे अथवा बुरे, सब तरह के काम करवाता है। पेट है तो सभी स्मस्याएँ हैं और अगर पेट न होता तो हम सब 'हैप्पी कैम्पेर्स" होते। अपने 'बैक-यार्ड" में बैठे मुंडेर पर चहचहाती चिड़ियों को देखते। ‘लव-बर्ड’ के ‘लव सांग्स” सुनते या फिर आज़ाद रंग-बिरंगी तितलियों को ही बिना किसी फिक्र सराहते! शायद उन्हें भी सारा दिन उड़ना न पड़ता! न कोई विदेश जाता या फिर अमेरिका, कनाडा आदि परदेशों में जाकर धक्का-मुक्की खाने की ज़रूरत ही समझता! अपने देश भारत में आखिर क्या नहीं है? पता नहीं विदेशों मैं लोग क्या ‘डिस्कवर’ करने जाते हैं? भारत मेँ सब-कुछ है - यहीं रहकर सब कुछ खोजा जा सकता है! मार्ग-दर्शन के लिये यहाँ एक से बढ़कर एक बड़ा बाबा है! अमेरिका मेँ क्या ‘डबल-रोटी’ अलग मिलती है जो यहाँ अपने भारत मेँ नहीं मिलती! अपने भारत मेँ भी गेहूँ है, आटा है और चावल है – मिलावट वाला है, यह एक अलग बात है! सब किस्मत की बातें, बातें और चक्कर हैं! परदेश मेँ जाकर धक्के ही खाने थे तो अपने देश मेँ भी एक से बढ़कर एक बड़े धक्के थे – चोर-चपट्टे नेता, भ्रष्टाचार, लूटपाट, तरह-तरह की लाईनें, रिश्वत और घोटाले, मिलावट, प्रदूषण और खड्डे -मिट्टी! यह सब टंटे ही खत्म हो जाते अगर खुदा ने हमें पेट लगाने की गलती न की होती! हमारे इर्द -गिर्द यह बेकारों की पंक्तियाँ, राशन की लाईनें, बेकारों की लाईनें, बस में चढ़ने वालों की लाईनें – इन लाईनों में खड़े-खडे आधी ज़िंदगी बीत जाती है!

पेट न होता तो ईमानदारी होती, न चोर होते न चोर-बाज़ारी होती, भ्रष्टाचार का नामों-निशान न होता! हम स्वच्छ वायु में जीते और साँस लेते। किसी तरह की ज़हर से वातावरण दूषित न होता! बेगमों को भी चूल्हे-चौके से राहत मिलती और शॉपिंग के लिए थोड़ा और 'टाइम' मिलता! नौकरी के बाद घर आकर खाना बनाने के मसले को लेकर पति-पत्नी में कभी मनमुटाव न होता! घर-घर में शान्ति, कृष्णा और संतोष नाम की नारियाँ न होने पर भी हरेक घर यह सब चीजें होती! अपना और अपने परिवार का पेट भरने का मसला न होता तो यह सब दफ्तर, मालिक-नौकर , जी-हज़ूरी वगैरा-वगैरा कुछ भी न होता। न यह सोम, मंगल और बुध के लफड़े होते और बाकी के दिन भी शुभ और अच्छे ही होते! हर दिन अपनी छुट्टी होती और हर दिन का हर-पल हम अपनी मर्ज़ी से ही जीते!

पेट न होता तो यह दुनिया एक स्वर्ग होती! चारों तरफ कुछ होता तो प्यार–ही–प्यार होता! मैं अब पेट के बारे में भूलना चाहता हूँ लेकिन इसे मैं कैसे भूलूँ! रात्रि के भोज का वक़्त होने को आया है, बेगम आवाज़ लगाती ही होगी - "बब्बू, पप्पू और तुम पहले इधर आकर खाना खा-मर लो तो फिर मेरी जान भी छूटे!” पता नहीं बेगम ने आज क्या ज़हर पकाया है? मैंने बेगम को कह दिया है – “डार्लिंग, तुम पहले अपना ‘डिनर, खा लो, मैं थोड़ी देर में खाऊँगा!" लेकिन, यह पापी पेट है कि मानता नहीं। मेरी तो ज़रा–सी भी नहीं सुनता। इसका क्या है, दो रोटी के लिये, जलील तो मुझे ही करेगी, राम दुलारी!

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'हैप्पी बर्थ डे'
|

"बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का …

60 साल का नौजवान
|

रामावतर और मैं लगभग एक ही उम्र के थे। मैंने…

 (ब)जट : यमला पगला दीवाना
|

प्रतिवर्ष संसद में आम बजट पेश किया जाता…

 एनजीओ का शौक़
|

इस समय दीन-दुनिया में एक शौक़ चल रहा है,…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

ललित निबन्ध

स्मृति लेख

लघुकथा

कहानी

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

हास्य-व्यंग्य कविता

पुस्तक समीक्षा

सांस्कृतिक कथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं