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भैंस के आगे बीन बजाना

कमलकांत और श्रीकांत गहरे मित्र थे। कमलकांत कालेज में प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत थे, जबकि श्रीकांत अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ाते हुए परचून की दुकान चलाता था।

दोनों के बेटों के बीच भी गहरी मित्रता थी। दोनों साथ ही पढ़ते भी थे। कमलकांत का बेटा क्लास मे हमेशा प्रथम श्रेणी मे पास होता जबकि श्रीकांत का बेटा फिस्स्डी रहता।

फ़ुर्सत के क्षणॊं में दोनों मित्र बैठे चाय सुड़क रहे थे। कमलकांत ने पहल करते हुए कहा, “श्रीकांत बुरा न मानो तो एक बात कहूँ। तुम ज़िन्दगी भर पुड़िया बाँधते रहे। क्या तुम चाहते हो कि तुम्हारा बेटा भी आगे चल कर पुड़िया बाँधता रहे? वह पढ़ाई मे काफ़ी कमज़ोर है। उस पर थोड़ा ध्यान दिया करो।”

इस बात पर श्रीकांत को थोड़ा गुस्सा आया। उसने अपने मित्र को पलटकर जबाब दिया, "मित्र.. बुरा न मानना। तुम्हारा बेटा पढ़-लिख कर ज़्यादा से ज़्यादा कलेक्टर बन सकता है। मैं अपने बेटे को राजनीति में उतारूँगा। राजनीति में अकल की कोई ज़रूरत नहीं होती। उसे तो केवल वाकपटु होना चाहिए। देखना दस-पाँच साल में वह कितनी तरक्की करता है। एक दिन ऐसा भी आएगा कि वह प्रदेश का दमदार मंत्री बन जाएगा और तुम्हारा कलेक्टर बना बेटा उसके सामने खड़े होकर उसके आदेश की प्रतीक्षा करेगा। ऐसा भी हो सकता है कि उसे उसके जूते के तसमें न बाँधने पड़ें।” अपने मित्र की बात सुनकर कमलकांत की हालत देखाने लायक थी। उसे इस बात प़र गहरा क्षोभ हो रहा था कि उसे भैंस के आगे बीन बजानी ही नहीं चाहिए था।

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