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भक्त की फ़रियाद

लगभग आधी रात बीत चुकी थी। चारों और अंधकार और सन्नाटे का वास था। लेकिन सामने घाटी में, नदी के किनारे बसे छोटे से उस कस्बे में कहीं-कहीं अभी भी एक्का-दुक्का 'लेम्प' टिमटिमाते नज़र आते थे। नदी धीरे-धीरे अपनी मौज-मस्ती में बह रही थी। मंद-मंद हवा चल रही थी। ऐसे में एक भक्त उँचे पर्वत पर मौजूद शिवजी के मंदिर में अपने हाथ बाँधे कई दिनों से प्रभु की उपासना में लीन था।

भक्त ने काफी दिनों तक अपना शीश झुकाये रखने के बाद प्रभु से विनती की -

"ए भगवन! मैं पिछले कईं वर्षों से तुम्हारे चरणों में अपना शीश झुकाता आया हूँ। मुझे कोई दिन ऐसा याद नहीं जब मैने तुम्हारे चरणों में अपना ध्यान न लगाया हो।"

भक्त की विनती सुनकर भगवान का दिल पसीज गया।

सहसा, भकत के कानों में आवाज़ पड़ी - "भक्त, हम तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हुए! भक्त, वर माँग!"

यह सुनकर भक्त गिड़गडाया, थोड़ा हकलाया और फिर चिल्लाया, "प्रभू आँखें खोलिये, मुझे "वर" नहीं "वधु" चाहिए!"


 

 

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