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भक्ति का अनुपम महाकाव्य: प्रो. हरिशंकर आदेश का रघुवंश शिरोमणि श्रीराम

प्रो.हरिशंकर आदेश 
(जन्म:7 अगस्त, 1936 – मृत्यु:28 दिसंबर, 2020)
 

 

 जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः।
नास्ति येषां यशः काये जरामरणजं भयम्॥

 

 

ऐसे महान कवि जो अपनी रचनाओं को रसयुक्त बनाने की कला में प्रवीण हैं, वे वास्तव में प्रतिष्ठा और कीर्ति के योग्य हैं।  इनका यशवान शरीर आयु और मृत्यु के भय से परे और निर्भय होता है। भर्तृहरि का उपर्युक्त कथन प्रो. हरिशंकर आदेश के व्यक्तित्व और कृतित्व पर अक्षरशः सत्य उतरता है। ऋषि आदेश के नाम से साहित्य जगत में अपनी पहचान रखने वाले प्रो हरिशंकर आदेश का महाप्रयाण निश्चित ही वैश्विक हिंदी जगत के लिए अपूरणीय क्षति है। विराट व्यक्तित्व के स्वामी और साहित्य सर्जक प्रो. हरिशंकर आदेश आज हमारे मध्य दैहिक रूप से विद्यमान नहीं हैं, लेकिन अपनी महान लेखनी से अर्जित यश शरीर द्वारा वे सदैव हमारी स्मृतियों में रहेंगे। लगभग साढ़े तीन सौ ग्रंथों के प्रणेता प्रो. हरिशंकर आदेश के प्रभावशाली व्यक्तित्व में साहित्य, संगीत, भारतीय भाषा और संस्कृति के प्रति अटूट प्रेम और अगाध निष्ठा का भाव है। आदेश जी का समस्त साहित्य आध्यात्मिक साधना और समर्पण का वह निचोड़ है, जिसमें भक्ति, वैराग्य और ज्ञान की अजस्र त्रिवेणी प्रवाहित होती है। भारतीय संस्कृति की महिमा को विश्व भर में मंडित करने वाले आदेश जी के समग्र साहित्य को पढ़ना और उसका विश्लेषण, मूल्यांकन करना निश्चित ही एक सुखद अनुभव है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी प्रो. आदेश का साहित्य जितना बहुरंगी है उनका व्यक्तित्व भी उतना ही बहुआयामी है। वे प्रबंधकार, कलाकार, निबंधकार, संस्मरण लेखक, अनुवादक, समीक्षक, नाटककार आदि न जाने कितनी विधाओं में लेखनी चलाकर अपने साहित्य को उन ऊँचाइयों पर ले जाते हैं, जहाँ पहुँचना हर किसी के लिए संभव नहीं। निर्विवाद रूप से हरिशंकर आदेश व्यक्ति न होकर एक संस्था हैं जिनके विपुल साहित्य पर देश-विदेश के अनेक विश्वविद्यालयों में शोधकार्य हुए हैं, हो रहे हैं। संगीत शास्त्र के उद्भट ज्ञाता, पिंगलशास्त्र के आधिकारिक मर्मज्ञ, भारतीय संस्कृति के निस्वार्थ साधक और अमर गायक प्रो. आदेश अपनी लेखनी से लोगों के हृदय को चमत्कृत करने की अद्भुत क्षमता रखते हैं।

रघुवंश शिरोमणि श्रीराम हरिशंकर आदेश का सन्‌ 2019 में प्रकाशित महाकाव्य है जिसमें श्रीराम के पावन और भव्य चरित्र के माध्यम से आदेश जी ने समाज के समक्ष एक ऐसे आदर्श पात्र को प्रस्तुत किया है, जो दैवीय होने के बावजूद मानवीय गुणों से युक्त है, व्यक्तिगत सुख- दुःख से आर्द्र है, आदर्श पुत्र, भ्राता, पति और राजा के गुणों से संपन्न है, जिसका संपूर्ण जीवन लोकमंगल की भावना से परिपूर्ण है और जो समाज के समक्ष जीवन के हर रूप और हर परिस्थिति में मर्यादित जीवन जीने का संदेश देता है। प्रो. आदेश का यह सातवाँ महाकाव्य है, इससे पूर्व वे अनुराग, शकुन्तला, महारानी दमयंती, निर्वाण, ललित गीत रामायण और देवी सावित्री नाम से प्रसिद्ध पौराणिक पात्रों को आधार बनाकर हिंदी जगत को उत्कृष्ट महाकाव्यों के बहुमूल्य रत्न प्रदान कर चुके हैं।

भारतीय संस्कृति में भगवान् श्रीराम एक ऐसे आदर्श पात्र हैं, जिनका संपूर्ण जीवन अपने आप में एक संदेश है। उनके चरित्र के अनुकरण मात्र से परिवार, समाज और राष्ट्र स्वकल्याण और उन्नति हेतु संजीवनी प्राप्त करता है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने यशोधरा में भगवान् राम के आदर्श चरित्र के संबंध में अत्यंत सुंदर परिकल्पना की है: 

राम तुम्हारा चरित्र स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है।

सत्य भी है भगवान् राम के अतिरिक्त शायद ही कोई ऐसा पात्र होगा, जिस पर विश्व की अनेक भाषाओं के अनेक कवियों द्वारा इतनी बड़ी मात्रा में स्वमति, स्वानुभव और स्व-भावना के अनुरूप अपूर्व और लोकप्रिय ग्रंथ लिखे गए हैं। रामचरित के सभी रचनाकारों ने अपनी-अपनी तरह से श्रीराम के चरित्र को विस्तार, भव्यता, मौलिकता और अनूठापन दिया है, जो भगवान् राम के उदात्त चरित्र के प्रति प्रेम, भक्ति और समर्पण का अनुपम दृष्टांत कहा जा सकता है। थोड़े बहुत परिवर्तनों को यदि छोड़ दें तो, श्रीराम चरित्र की कथावस्तु मूलतः समान होने के बावजूद उन पर रचा गया प्रत्येक काव्य अपने में अपूर्व और अद्वितीय है। इसे राम-नाम का चमत्कार ही कहा जाएगा कि वाल्मीकि जैसे डाकू भी राम-नाम को उलटा जपकर महाकवि हो गए और क्रौंचवध के कारण द्रवित होकर उनके मुख से अनुष्टुप छंद निकल पडा, “मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम्”। रामनाम से प्रेरणा पाकर ही वाल्मीकि ने रामायण जैसे महान ग्रंथ की रचना का बीज डाला, जिसकी परंपरा में भविष्य में अनगिन राम काव्यों की सृष्टि हुई। 

इसी सुदीर्घ और ऐतिहासिक रामकाव्य परंपरा का अनुकरण करते हुए महाकवि आदेश ने अष्टादश सर्गों में रघुवंश शिरोमणि श्रीराम महाकाव्य की रचना की है, जो इस विरासत की अद्भुत धरोहर के रूप में आदेश जी का हिंदी साहित्य को अनुपम प्रदेय है। आदेश जी ने इस महाकाव्य में श्रीराम विषयक अनेक चर्चित/अचर्चित प्रसंगों को लिया है और अपनी अनूठी सृजनशीलता और मौलिकता द्वारा उसे वर्तमान परिप्रेक्ष्य के अनुकूल सामयिकता प्रदान की है। पात्र और परिस्थितियों के प्रति आदेश जी की अनूठी उद्भावना और सकारात्मक दृष्टिकोण के कारण प्रस्तुत महाकाव्य देश-काल की सीमा से परे होकर सार्वदेशिक, सार्वकालिक और सार्वजनीन हो गया है। श्रीराम के परमभक्त परमवीर महावीर हनुमान के अनुगामी आदेश जी इससे पूर्व भी रामकथा सुरसरि, श्रीराम चालीसा, रामायण चालीसा, हनुमान अमृत मेधा और गुरुचालीसा जैसे काव्यों का प्रणयन करके श्रीराम के प्रति अपने उदात्त प्रेम और समर्पण भावना का परिचय दे चुके हैं। इसी प्रेम और समर्पण के कारण बहुत से विद्वान आदेश जी को भारत से बाहर एक और तुलसीदास कहना पसंद करते हैं। यह आदेश जी का श्रीराम और भारतीय संस्कृति के प्रति निष्ठा और समर्पण ही कहलायेगा, जिसने भारत से सैकड़ों किलोमीटर दूर जा बसे भारतीयों को अपनी मिट्टी, अपने संस्कार, अपने धर्म और अपनी आस्था से जोड़े रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 

उपनिषदों के गहन अध्येता, पुराण एवं पौराणिक ग्रंथों के विश्लेषक, देश-विदेश की विभिन्न रामायणों के जानकार, भारतीय दर्शन और आध्यात्मिक मान्यताओं के समर्थक आदेश जी ने भारत जैसी आध्यात्मिक पुण्यस्थली पर जन्म लेकर पाश्चात्य देशों– त्रिनिदाद, कनाडा और अमेरिका को अपनी कर्मस्थली बनाया। अपना अधिकांश जीवन भौतिक चकाचौंध से युक्त जीवनशैली वाले देशों में व्यतीत करने के बावजूद हरिशंकर आदेश जीवन भर भारतीय संस्कृति की निष्काम आराधना करते रहे। उनका संपूर्ण जीवन एक तपोभूमि के समान था, जिस कारण गंभीर शारीरिक व्याधियों और तज्जनित अनेक असहनीय कष्टों के बावजूद उनमें हनुमत आदेश पर श्रीराम चरित्र को शब्द देने की इच्छा जीवित रही और इसी दृढ इच्छा शक्ति ने उनकी जिजीविषा को बनाए रखकर असंभव से दिखने वाले इस महान कार्य को अपने चरम तक पहुँचाने में सहायता प्रदान की। साधारण मानव के लिए यह बात कल्पना से भी परे हो सकती है कि तीन-तीन बार मृत्यु को पराजित करते हुए तीन बार मृत्यु शैया से वापिस आकर, आई.सी.यू के बिस्तर पर अपना शेष जीवन बिताने वाला कोई व्यक्ति 736 पृष्ठों के वृहदाकार महाकाव्य की रचना करने का साहस रख सकता है। इसे सृष्टि नियंता की कृपा, दैवीय प्रेरणा और आदेश जी की संकल्पबद्धता और इच्छा शक्ति ही कहा जाएगा जिसके भरोसे वे अनिश्चितता, अपार कष्ट और जीवन -मृत्यु के बीच झूलते हुए भी इस अद्भुत ग्रंथ को पूर्ण करने तक अपनी सांस को थामे रहे और इस महनीय ग्रंथ को पूर्ण कर पाए। 

साहित्य सृजन स्वयं में परिश्रमसाध्य और समयसाध्य प्रक्रिया है और इस प्रकार के अद्भुत कार्य निश्चित ही समय और परिश्रम की अधिक अपेक्षा रखते हैं। प्रस्तुत महाकाव्य भी पैंतीस वर्षों के लम्बे समय में जाकर पूर्णता को प्राप्त हुआ। ग्रंथ के पुरोवाक में आदेश जी विनम्रता पूर्वक लिखते हैं: श्रीराम काव्य-सृजन की लंबी साधना यात्रा शनैः शनैः अग्रसर होते हुए अंततोगत्वा समापन बिंदु तक पहुँच ही गई। आभास होता है मानो एक बौने ने अंतरिक्ष के छोर को छू लिया है, एक अकिंचन पिपीलिका सिन्धु के उस पार पहुँचने में सफल हो गई, एक पंगु पर्वत के उच्च शिखर पर पहुँच ही गया किन्तु यह केवल भ्रम है, रामकथा अनंत है, आगामी है, अपार है। इसका पार पाना संभव नहीं है। श्रीराम-कथा को शब्दों में आबद्ध करना मानो आकाश अथवा सैकत बिंदु को मुट्ठी में बाँधना है। 

हरिशंकर आदेश जी के अनुसार इस ग्रंथ की पांडुलिपि मरणासन्न अवस्था में रात्रि के ढाई बजे से लेकर प्रातःकाल छः बजे के मध्य लिखी गई है। रघु के पूर्वजों अर्थात प्रथम महीपाल से लेकर श्रीराम के युग तक, उनके भ्राता, उनके पुत्रों आदि के जीवन के विविध रंगों और बहुमुखी चरित्र को महाकाव्य का विषय बनाया गया है। संवेदना की भावभूमि पर निर्मित इस महाकाव्य में जीवन की विशद और सांगोपांग व्याख्या मिलती है। चिंतन और अनुभव की जिस भावभूमि पर यह महाकाव्य लिखा गया है, उसके संबंध में आदेश जी का कथन है: इस महाकाव्य में ज्ञान है, कर्म है, उपासना है, योग है, अध्यात्म है, भक्ति है, विरक्ति है, त्याग है, ताप है, अनुराग है, वैराग्य है, पिंगल शास्त्रों की झाँकियों के साथ वात्सल्य सहित दस रसों से परिपूर्ण अनुभूतियों की अभिव्यक्ति है, तर्क है, वितर्क है तथा मानवीय भावनाओं और संवेदनाओं का साधारणीकरण है।     

महाकाव्य में रामवन गमन, दशरथ विलाप, श्रवणकुमार प्रसंग, सीता-हरण, कैकेयी के प्रति भरत का आक्रोश, मंदोदरी विलाप आदि ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जिनमें पाषाण को भी द्रवित करने की क्षमता है। महाकाव्य का एक बहुत ही ख़ूबसूरत पक्ष उसके नारी पात्रों का भव्य एवं गरिमामय चित्रण है। आदेश जी ने अपनी क़लम से सीता, कौशल्या, कैकेयी, श्रुति कीर्ति, उर्मिला, मांडवी, मंदोदरी आदि प्रमुख नारी पात्रों के स्वभावगत माधुर्य, कोमलता, सहनशीलता और जीवन के उन अनछुए पक्षों को उकेरा है, जो अन्यत्र उपलब्ध नहीं हैं। महाकाव्य की सभी नारियाँ अपने-अपने कर्तव्यों से बँधी होने और स्त्री सुलभ कोमल भावनाओं से पूर्ण होने पर भी देशकाल और परिस्थिति के अनुकूल मर्यादित आचरण करती हैं। ये नारी पात्र चाहे वह सीता हों, कौशल्या हो, या फिर उर्मिला हो, समाज के समक्ष अनुपम आदर्श प्रस्तुत करते हुए एक प्रेरक व्यक्तित्व के रूप में उभरकर सामने आती हैं। प्रत्येक स्त्री पात्र का अपनी प्रभावशाली चारित्रिक विशेषताओं के कारण महाकाव्य में एक विशिष्ट स्थान है, जो उन्हें अनुकरणीय छवि प्रदान करता है ।

महाकवि आदेश ने कैकेयी के चित्रण में समाज में लम्बे समय से चली आ रही दृढ़ मान्यता को तोड़ने का प्रयत्न किया है। विदित है कि भारतीय समाज में कैकेयी का चित्रण एक ऐसे नकारात्मक पात्र के रूप में किया जाता रहा है जो अपनी कुटिल प्रवृत्तियों, राम के प्रति द्वेष और स्वार्थ भावना से परिपूर्ण है। रामकथा में कैकेयी श्रीराम-सीता के वन गमन का प्रधान कारक घोषित है। लेकिन आदेश जी ने अपनी मौलिक उद्भावना से कैकेयी के चरित्र को न केवल नारी सुलभ गरिमा प्रदान की है, बल्कि तर्कों के साथ उसे श्रीराम के वनगमन का कारण बनने के दोष से भी मुक्त कर दिया है। आदेश जी ने पौराणिक ग्रंथों का अवलंब लेकर तर्क के साथ इस बात को सिद्ध भी किया है। इसके लिए उन्होंने कैकेयी के बचपन की उस क्रीड़ा का उल्लेख किया है जब वे खेल-खेल में दुर्वासा ऋषि के मुख पर कालिख लगा देती हैं और क्रोध में आकर दुर्वासा उन्हें श्राप देते हैं कि भविष्य में बिना ब्याज उसका मुख भी काला होगा। वह उस अपराध के लिए दण्डित होगी, जो उसने किया ही नहीं। आदेश जी कहते हैं कि कैकेयी को मिले दुर्वासा के इसी श्राप के कारण परोक्ष रूप में कैकेयी विश्व कल्याण का माध्यम बनीं। आदेश जी इतना कहकर ही विराम नहीं लेते, वे तेलुगु भाषा के कविवर विश्वनाथ सत्यनारायण द्वारा रचित रामायण कल्पतरु से इस तथ्य के तंतु जोड़ते हुए कहते हैं– कि प्रभु श्रीराम अपने राज्याभिषेक की घोषणा सुनकर मध्यरात्रि में गुप्त रूप से स्वयं माता कैकेयी के पास जाते हैं और उनसे अनुरोध करते हैं कि आप पिता दशरथ से वरदान में मेरे लिए वनवास माँगें ताकि मैं मही को असुरों से रहित कर सकूँ। मेरे वनवास जाने पर ही देवताओं की अभीष्ट सिद्धि हो सकेगी और मेरे अवतार लेने का उद्देश्य भी तभी पूरा हो पायेगा। उन्होंने ही अपने वाक् चातुर्य, ममता, शपथ, तथा सम्मोहन शक्ति का प्रयोग करके कैकेयी को ये दोनों वर माँगने पर विवश किया था। यह सब श्रीराम की योजना थी।" 

प्रस्तुत महाकाव्य से कैकेयी राम संवाद का एक अंश देखें: 

राजकार्य में व्यस्त हो गया, तो न विपिन को जा पाऊँगा 
आया हूँ जिस हेतु विश्व में, कार्य न कोई कर पाऊँगा 
सकल आसुरी प्रवृत्तियों को, भू से आज मिटाना होगा। 
आह! सिसकती मानवता को, माता! धैर्य बँधाना होगा, 
अन्धकार के क्षरण हेतु मुझको, विभास बन जाना होगा।
एतदर्थ माताश्री मुझको, निश्चित ही बन जाना होगा।

कैकेयी को निरपराध घोषित करने के साथ-साथ आदेश जी ने महाकाव्य के प्रतिपक्षी रावण के चरित्र के शुक्ल पक्ष को अनेक स्थलों पर रेखांकित किया है। यह सत्य है कि रावण के चरित्र के अनेक नकारात्मक पहलू थे, लेकिन इसके बावजूद वह प्रकांड विद्वान्, शास्त्रज्ञ, वीर, साहसी, अद्भुत पराक्रमी और परम शिव भक्त था। अपने अहंकार रूपी शत्रु के कारण ही उसे युद्ध में राम से पराजित होना पड़ा था। भगवान् राम रावण की इन चारित्रिक विशेषताओं से बख़ूबी परिचित थे, इसी कारण उसके अंत समय पर वह लक्ष्मण को रावण के पास जीवन की महत्वपूर्ण शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेजते हैं। इस प्रसंग द्वारा महाकाव्यकार न केवल शत्रु के प्रति राम के सौमनस्य भाव और सम्मान रखने की विशेषता दर्शाता है बल्कि यह भी सिद्ध करता है कि हमें शत्रु की अच्छाइयों को ग्रहण करने में कभी संकोच नहीं करना चाहिए:

जिससे भी विद्या लो वह हर व्यक्ति, सदा ही गुरु होता है 
मित्र, शत्रु कोई कैसा हो, गुरु तो केवल गुरु होता है।
बिना नम्रता, भक्ति, समर्पण, के कोई सद्‌ ज्ञान न देता, 
अभद्र, अभिमानी, जिज्ञासु को, कोई विद्या दान न देता।
बनो पात्र विद्या पाने के, नम्र स्वरों में करो निवेदन, 
तुम्हें ज्ञान देगा अवश्य, हे अनुज! महाविद्वान है रावण। (674 )

इसी प्रकार आदेश जी ने इस काव्य में हनुमान जी को वानर रूप मानने से न केवल अपनी असहमति प्रकट की है, बल्कि इसे अतार्किक भी माना है। विभिन्न शास्त्रों के संदर्भों द्वारा आदेश जी वानर शब्द की उत्पत्ति बताते हैं कि– हनुमान परमवीर केसरी तथा अंजनी के पुत्र हैं। रुद्र का तेज होने के कारण शिवनंदन तथा एकादशवें रुद्र होने के कारण अमर, अवध्य तथा शक्ति के अक्षय पुंज हैं। हनुमान का यथार्थ नाम 'सुंदर' था। कविवर के हनुमान 'बंदर' नहीं अपितु 'वानर' हैं। इसके अतिरिक्त हनुमान जी ही नहीं किसी भी वानर के पूँछ नहीं थी। पूँछ 'लांगूल' शब्द का ही एक पर्याय है। 'लांगूल' एक विशेष प्रकार का शस्त्र होता था जिसे हर वानर अपनी कटि में रखता था। हनुमान केवल धीर वीर एवं विद्वान ही नहीं, अपितु सिद्धियाँ प्राप्त एक महान योगी भी हैं, अर्थात 'शरीर एवं आकाश के संबंध तथा संयम से शरीर रुई के समान हो जाता है।' हनुमान जी समय एवं प्रसंग के अनुसार अपना वेश एवं आकार घटा-बढ़ा सकते थे। उन्होंने सूक्ष्म रूप रखकर सीता को दिखाया था और रौद्र रूप रखकर लंका दहन किया था–

"सूर्य नहीं हूँ सूर्य शिष्य हूँ, केसरी की संतान हूँ।
पवन देव रक्षित हूँ आशुतोष, शिव का वरदान हूँ।
नहीं, नहीं मैं राम नहीं हूँ, राम भक्त हनुमान हूँ।" (पृष्ठ संख्या 542)

महाकवि आदेश ने ब्रह्माण्ड पुराण श्लोक 223-240 तक का सन्दर्भ देते हुए कहा है कि हनुमान जी के मतिमान, श्रुतिमान, केतुमान, धृतिमान तथा गतिमान नामक पाँच भाई और थे, जिन्होंने राम-रावन युद्ध में भाग लिया था। उन्होंने गरुड़, जटायु, संपाति आदि को भी पक्षी जाति में नहीं रखा है, इसके लिए उन्होंने तर्क दिया है कि पक्षियों के नाम नहीं होते और श्रीराम ने जटायु के मरणोपरांत उसका अंत्येष्टि संस्कार किया था, जो केवल मनुष्यों का किया जाता है मानवेतर प्राणियों का नहीं।

आदेश जी ने अपने महाकाव्य में राम के पुरुषोत्तम रूप को प्रधानता दी है, वे उन्हें मानवीय गुणों से युक्त तथा सर्वगुण संपन्न धीरोदात्त तथा एक ऐसे मर्यादा पुरुष के रूप में चित्रित करते हैं जो अपने हर रूप में आदर्श है और इसीलिए पुरुषों में सर्वोत्तम है। इसी परिकल्पना के साथ वे स्थान-स्थान पर राम के उन चारित्रिक पक्षों पर भी प्रकाश डालते हैं जो किसी भी मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति हो सकती है। महाकवि आदेश के श्रीराम अपनी पत्नी सीता के वियोग में उतने ही दुखित होते हैं जितना कोई साधारण मानुष हो सकता है: 

गूँज रहे हैं सन्नाटे में, मृदु स्मृतियों के छंद।
मौन स्वरों में मन गाता है, पावन प्रीति प्रबंध।।
आज का यह दिन कटेगा किस तरह? क्या मुझे जीवित रखेगा कटु विरह?
विरह-पावक में सुलगते प्राण प्रिय! कर रहे हैं गात को निष्प्राण सा।
सृजन के पग हैं प्रकंपित, स्तब्ध हैं, क्षुब्ध मानो हो रहा निर्माण सा।।(पृ 496)

रामराज्य के माध्यम से एक ऐसे आदर्श और भेदभाव मुक्त समाज की परिकल्पना की गई है, जहाँ हर मनुष्य दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से मुक्त हो। राष्ट्र पिता महात्मा गाँधी ने भी एक समय ऐसे ही समाज को साकार और मूर्त रूप देने का स्वप्न देखा था। हरिशंकर आदेश ने भी श्रीराम के राज्याभिषेक के समय अपने प्रजाजनों के सम्मुख दिए गए भाषण के माध्यम से उन्हें सर्वहितकारी, सर्वानुकूल, सर्व सुखकारी और आदर्श समाज की स्थापना के लिए प्रतिज्ञाबद्ध दिखाया है। राम का यह वक्तव्य वर्तमान समय की वह अनिवार्यता और प्रासंगिकता है जो राजनीति में आवश्यक मूल्यों का बचाए रखने की दिशा में अनुकरणीय है। देखें: 

मैं राष्ट्र देवता, मैं एक आराधक हूँ। मैं राष्ट्र हितों का साधक, संरक्षक हूँ।
निज राष्ट्र मुझे प्राणों से बढ़कर होगा, मैं एक राष्ट्र-प्रहरी हूँ, एक सेवक हूँ।।
जो राष्ट्र केतु का मान न रख पायेगा।जो राष्ट्र गान का गान न कर पायेगा। 
उसको कठोर से कठोर दंड मिलेगा, जो शत्रु देश की प्रशस्तियाँ गायेगा।।
मैं स्वार्थवादिता के न निकट जाऊँगा। मैं पक्षपात की नीति न अपनाऊंगा। 
हित मित्र राष्ट्रों का मेरा हित होगा, सबसे ही मैत्री भाव सदा पालूंगा।।(पृ-710) 

आदेश जी ने महाकाव्य में ऐसे प्रसंगों पर भी अपनी स्पष्ट और बेबाक टिप्पणी की है जो मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की आदर्श छवि को अपनी क्षुद्र मनोवृत्ति और तुच्छ बुद्धि के कारण अनावश्यक रूप से धूमिल करने का प्रयास करते हैं। उनके अनुसार – “ ये सब कपोल-कल्पित धारणाएँ हैं, जो श्रीराम को मर्यादाहीन, उत्तरदायित्वहीन, विवेकहीन तथा अन्यायी नरेश सिद्ध करने के लिए गढ़ी गई हैं।” श्रीराम द्वारा पत्नी सीता को वन भेजना, शम्बूक वध आदि कुछ ऐसे प्रसंगों पर आदेश जी ने अपनी कठोर आपत्ति दर्ज की है और इन्हें विभिन्न तर्कों और शास्त्र-सन्दर्भों द्वारा निरस्त भी किया है। महाकवि आदेश के मत में लव कुश का रामायण-गान प्रसंग भी तथ्यहीन है। उस समय धार्मिक कथाओं को धर्म-स्थलों या समारोहों में ऐसी कथाओं को गाने वालों को कुशीलव कहा जता था। कुशीलव ब्राह्मण वर्ण के होते थे। लव-कुश क्षत्रिय थे। अतः उनके द्वारा रामायण का गाया जाना तर्कसंगत सिद्ध नहीं होता। 

प्रस्तुत महाकाव्य की भाषा प्रांजल और संयोजित है। खड़ी बोली की प्रकृति के अनुकूल ही शब्दों का समावेशन किया गया है। शब्दों के कुशल संयोजन और उनके पात्रानुकूल चयन के कारण काव्य की अंतिम पंक्ति तक भाषा में सहजता और प्रवाहमयता बनी रहती है। यही प्रवाहमयता पाठक को रसास्वादन की उस अंतिम बूँद तक ले जाती है, जहाँ पाठक मंत्रमुग्ध होकर अपनी सुध-बुध बिसरा देता है और अमृत जलधि की अनंत गहराइयों में ख़ुद को निमग्न हुआ पाता है। भारतीय संस्कृति के समान ही खड़ी बोली हिंदी भी अपनी प्रकृति में समावेशी है जो विभिन्न भाषाओं के शब्दों से अपने शब्द भण्डार को समृद्ध करती आई है। हरिशंकर आदेश जी ने भी अपने महाकाव्य में हिंदी, अँग्रेज़ी, संस्कृत तथा उर्दू आदि भाषाओं के साथ ही विभिन्न बोलियों के शब्दों का यथोपयुक्त और यथोचित प्रयोग करने में संकोच नहीं किया है।

चूँकि आदेश जी संगीत विद्या में निपुण और छंद शास्त्र के प्रकांड विद्वान थे, इसलिए उन्होंने अपने इस महाकाव्य में 1800 छंदों की योजना की है। अनेक छंदों के प्रयोग के साथ ही चौंतीस मात्राओं के जीवन छंद के अतिरिक्त संकल्प और यमुना आदि नवीन मौलिक छंदों की उद्भावना भी की है। सम्पूर्ण महाकाव्य में मात्रिक छंदों की प्रधानता मिलती है। रस, छंद, अलंकार की त्रिवेणी प्रवाहित करते हुए उन्होंने महाकाव्योचित लय, भाव और गेयता के अद्भुत सामंजस्य को संरक्षित रखा है। 

जैसा कि पूर्व में भी कहा गया है कि ‘रघुवंश शिरोमणि श्रीराम’ महाकाव्य हरिशंकर आदेश जी का सप्तम महाकाव्य है। अपनी इस रचना को अपने जीवन की अंतिम रचना मानते हुए पुरोवाक में आदेश जी ने भावुक होकर लिखा है कि अब कोई आशा नहीं है कि भविष्य में कोई अन्य काव्य या महाकाव्य का सृजन कर पाउँगा, क्योंकि मृत्यु सागर के अत्यंत दुर्बल ढहते हुए कगार पर बैठा हूँ, कृतांत थपेड़े मार रहा है। यह तट किसी भी क्षण जलमग्न हो सकता है। यदि इस काव्य में कुछ भी सार्थक, सुन्दर और सारगर्भित लगे तो वह श्रेय पवनपुत्र हनुमान जी को जाता है और यदि इस काव्य में कोई त्रुटियाँ हैं तो वे मेरी हैं।    

समग्रतः आदेश जी का यह काव्य निश्चित ही एक रामभक्त कवि के ज्ञान, कर्म, श्रद्धा तथा भक्ति की सहज अभिव्यक्ति है। कहा जा सकता है कि यह महाकाव्य भगवान् श्रीराम के चरित्रकाव्य की शृंखला की एक सुदृढ़, परिपक्व और अति महत्वपूर्ण कड़ी है जो अपनी विषयगत भावमयता, गेयात्मक्ता, सरसता, संवेदनात्मकता, समसामयिकता, छंदोबद्धता, भाषिक सौष्ठव और अनूठे शिल्प कौशल के कारण सभी साहित्यप्रेमियों के हृदय में कंठहार की तरह चिरकाल तक सुशोभित रहेगी। यह व्यक्ति का काव्य है; समाज का काव्य है; विश्व का काव्य है; यह विगत का काव्य है। आगत एवं वर्तमान का काव्य है। यह केवल हिंदुओं का काव्य नहीं, अपितु प्रत्येक धर्मावलंबी के लिए हितकारी एवं अनुकरणीय काव्य है। महाकाव्य में व्यक्ति, परिवार, समाज, देश और राष्ट्र के कल्याणार्थ निहित संदेश इस कृति का स्थान हिंदी साहित्य की कालजयी कृतियों में सुनिश्चित कर दें, इसमें कोई आश्चर्य नहीं। 

डॉ. नूतन पाण्डेय 
सहायक निदेशक 
केंद्रीय हिंदी निदेशालय, शिक्षा मंत्रालय 
भारत सरकार।
मोबाइल: 7303112607
ई-मेल: pandeynutan91@gmail.com

 

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