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भरत का संन्यास! 

माता ने स्वार्थ कुछ ऐसा साधा, 
भगवान के जीवन में आई बाधा। 
 
राम ने भी पिता के वचनों को मान लिया, 
चौदह वर्ष रहूँगा वन में ये ठान लिया। 
 
कैकेयी ख़ुश थी मन में फूल गयी, 
बेटे का चरित्र शायद भूल गयी। 
 
भरत ने आते ही सब कुछ नकार दिया, 
अपनी माता को भी जैसे धिक्कार दिया। 
 
आँखों में जल भर मन में विश्वास लिए, 
चले भरत वन में राम मिलन की आस लिए। 
 
मिले राम भारत से जैसे भक्त से भगवान मिले, 
हुईं रोशन दिशायें जैसे नभ को दिनमान मिले। 
 
भरत के आँखों से रुकती नहीं थी जल की धारा, 
 देख उन्हें राम का भी जब धीरज हारा। 
 
बोले राम कहो भाई जो कहने आये हो, 
दे दो मुझे जो कुछ भी देने लाये हो। 
 
ज्ञानी बहुत हो तुम धर्म का बस ध्यान रहे, 
कहना वही जिससे पिता का भी मान रहे। 
 
कहा भरत ने  राज्य अवध का अर्पण करने लाया हूँ, 
छल से दिया गया मुझे सब समर्पण करने आया हूँ। 
 
अब लौट चलो घर भईया अवध में घोर निराशा है, 
आस देखते नगर के वासी तुमसे बहुत आशा है। 
 
छल किये मेरी माता ने मेरा कहो क्या दोष है, 
क्षमा करो भईया मेरे  मन में यदि कुछ रोष है। 
 
आया हूँ प्रण कर तुमको लेकर ही जाऊँगा, 
जो न माने तुम चिता अपनी यहीं सजाऊँगा। 
 
विचलित हुए राम सुन भरत की ऐसी भाषा, 
अश्रु धारा बही दृगों से टूटी मन की आशा। 
 
राज्य जो तुम देने लाये हो मैं सहर्ष अपनाता हूँ, 
जीत गए तुम भाई मेरे जग को आज बताता हूँ। 
 
नहीं मानता तुमको दोषी ना ही दोषी मेरी माई, 
दोष किसी का नहीं सब विधाता की थी चतुराई। 
 
उपाय करो कुछ ऐसा की पिता का मान भी रह जाए, 
समाज में मर्यादा और वचन की आन भी रह जाए। 
 
मेरे वन में रहने तक तुम अवध मे राज करो, 
मेरी जगह राजा बनो पूरन सारे काज करो। 
 
भारी मन से भरत ने आदेश राम का मान लिया, 
भाई के मुख से भगवन का संदेश जैसे जान लिया। 
 
बोले भरत कुछ माँगू तो क्या मुझको दोगे? 
कहा राम ने इस वन में भईया मेरे क्या लोगे? 
 
चरणों की धूल तुम्हारी पावरी भर ले जाऊँगा, 
जब तक रहोगे वन में इन पर ही सीश झुकाऊँगा। 
 
लौटे भरत लेकर राम की अजब निशानी,
मन में भाव भरे थे, आँखों से बहता था पानी। 
 
नंदिग्राम में कुटी बना करने लगे अब वास, 
राज्य का पालन किया भरत ने धारण कर संन्यास। 

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