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भारतीय संस्कृति में पर्यावरण संचेतना

शोधसार -

भारतीय संस्कृति में पर्यावरण को दैवतुल्य स्थान प्राप्त है। भारतीय संस्कृति में वेदों, पुराणों, धार्मिक ग्रन्थों को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। आदिम सभ्यता से ही प्रकृति के विविध रूपों यथा - सूर्य, चन्द्रमा, धरती, नदी, पर्वत, पीपल, गाय, बैल आदि की पूजा का विधान भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है। पर्यावरण मनुष्य की जीवनदायिनी सत्ता है। भारतीय संस्कृति में भौगोलिक, खगोलीय एवं प्राकृतिक पर्यावरण की चिंता के साथ नैतिक एवं आध्यात्मिक पर्यावरण के प्रति भी विशेष ध्यान दिया गया है। हमारे मूलभूत संस्कारों में, धर्म में ऐसे पवित्र विचारों को शामिल कर दिया गया है कि हम स्वतः मानसिक, वाचिक एवं कायिक सुचिता का व्यवहार करें। प्रकृति तत्वों के साथ हमने रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करके उन्हें अपने व्यक्तित्व के साथ पूरी तरह जोड़ लिया है। पर्यावरण का अर्थ है - जीवन को संरक्षण प्रदान करने वाला कवच अर्थात् हमारे चारों ओर का आवरण। पर्यावरण संरक्षण से अभिप्राय है कि हम अपने चारों ओर के आवरण को संरक्षित करें तथा उसे अनुकूल बनाए। पर्यावरण और प्राणी एक-दूसरे पर आश्रित है। यही कारण है कि भारतीय चिन्तन परंपरा में पर्यावरण संरक्षण की अवधारणा उतनी ही प्राचीन है, जितना यहाँ मानव जाति का ज्ञात इतिहास है। आदिवासियों के संदर्भ में जल, जंगल, ज़मीन का महत्व आज भी नज़र अन्दाज़ नहीं किया जा सकता। सृष्टि में प्राणी-मात्र का जीवन प्रकृति के बिना असम्भव प्रायः है। प्राकृतिक असन्तुलन के कारण बढ़ते तापमान से हिमखण्ड पिघल रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग की भयावह स्थिति से पूरा विश्व आंतकित है, जिसका निवारण आज एक चुनौतीपूर्ण कार्य बन गया है।

मुख्य शब्द:-

पर्यावरण, प्रदूषण, संस्कृति, प्रकृति, पंचतत्व, संरक्षण।

विषय प्रवेश:-  

वर्तमान समय में दुनिया की सबसे भयावह स्थितियों में एक है पर्यावरण प्रदूषण। जिस धरती ने मनुष्य को जन्म दिया, वहीं मनुष्य आज इसे नष्ट करने को आतुर है। पर्यावरण प्रदूषण की समस्या आज सम्पूर्ण विश्व की समस्या है। प्राचीन भारतीय ऋषि, मनीषियों ने इस समस्या को पूर्व में ही स्पष्ट कर दिया था। यद्यपि उस समय प्रदूषण की समस्या नहीं थी, तथापि उन्हें आने वाले समय का आभास अवश्य हो गया था। भारतीय मनीषा सृष्टि के प्रारम्भ से ही प्राणीमात्र के कल्याणार्थ सतत् जागरूक एवं चिन्तनशील रही है, यही हमारी भारतीय संस्कृति का मूल उद्घोष एवं आदर्शवाक्य भी हैः-

सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद दुःखभाग भवेत॥

अर्थात् यहाँ सभी सुखी एवं स्वस्थ्य हों, यही कामना की गई है। समान्यतः पर्यावरण के अर्न्तगत प्रकृतिजन्य सभी तत्व- आकाश, जल, वायु, अग्नि, ऋतुएँ, पर्वत, नदियाँ, सरोवर, वृक्ष, वनस्पति, जीव-जन्तु, ग्रह, नक्षत्र, दिशाएँ एक तरह से अखिल ब्रह्माण्ड ही सम्मिलित हो जाता है।

संस्कृति एवं पर्यावरणः अर्थ, परिभाषाः - 

संस्कृति शब्द सम् उपसर्ग कृ धातु तिन् प्रत्यय के योग से बना है जिसका अर्थ है सुधारना, सुन्दर बनाना, पूर्ण बनाना‘परि’ एवं ‘आ’ उपसर्गपूर्वक “वृञ्‌” धातु से ल्युट (अन्) के योग से निष्पन्न पर्यावरण शब्द का अर्थ है - "परितः आवरणम्" अर्थात् चारों ओर से व्याप्त आवरण (घेरा) या वातावरण। यह वह वातावरण है जिसे हम प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से उपभोग करते हैं। आवरण का शाब्दिक अर्थ हैं - ढकना, छिपना, घेरना, चारदीवारी आदि। भारतीय संस्कृति में पर्यावरण शब्द का प्रयोग परिधि और परिवेश के रूप में प्राचीन काल से होता रहा है।

 

पर्यावरण को निम्नवत परिभाषित किया गया है - 

 

(1) डॉ. बद्रीनाथ कपूर वैज्ञानिक परिभाषा देते हैं:-

"आस-पड़ोस की परिस्थितियाँ और उसके प्रभाव से समीकृत करते हैं। "परि" संस्कृत का उपसर्ग है जिसका अर्थ अच्छी तरह से और आच्छादन भी है।"

(2) डॉ. उर्मिला श्रीवास्तव के अनुसार:- 

"परि" तथा "आ" उपसर्गपूर्वक ’वृञ्‌´ (वरणे) धातु से ल्युट् (अन्) प्रत्यय लगाकर निष्पन्न शब्द पर्यावरण जीवों की अनुक्रियाओं की जैविक, रासायनिक और भौतिक परिस्थितियों का योग हैं जो स्वयं शुद्ध तथा अनुशासित है।"

(3) यजुर्वेद में पर्यावरण की परिभाषा दी गई हैं:-

"परितः आवृणोतित पर्यावरणम्” जो चारों ओर से आवृत करता है वही पर्यावरण है।

प्राचीन भारत में पर्यावरण चिन्तन

 

प्राचीन भारत में पर्यावरण की समस्या वर्तमान की तरह विकराल नहीं थी। उस समय अगर प्रदूषण नाममात्र भी रहा हो, तो प्राचीन चिन्तक और साहित्यकार अत्यन्त सजग थे। भारतीय संस्कृति के संस्कृत साहित्य में एक कहावत प्रसिद्ध हैं कि - "प्रक्षालानादि पऽस्य दूरादस्पर्शनं वरम्।" अर्थात् पैर को कीचड़ में सानकर फिर से धोने से अच्छा है कि पैर में कीचड़ लगने ही न दिया जाए। यह वाक्य प्रदूषण निषेध की ओर संकेत करता है।
 
पंचतत्व:- पंचतत्व का संतुलन न रहना ही पर्यावरण प्रदूषण माना जाता है। मानव जीवन को भी यह प्रभावित करते हैं। तुलसीदास जी ने स्पष्ट कहा है - "क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा।  पंचरहित यह अधम शरीरा॥" अर्थात् जो ब्रह्माण्ड में है वही शरीर में है, ब्रह्माण्ड बिगड़ेगा तो शरीर भी बिगडे़गा। वैदिक ऋषि मनीषियों ने सर्वप्रथम पर्यावरण पर चिन्तन मनन करते हुए सृष्टि को प्रारम्भ अवस्था में जिस प्रकार देखा उसका वर्णन ऋग्वेद की ऋचाओं में इस प्रकार किया है - 

"नासदासीनों सदासीतदानी, हिरण्यगर्भा समवर्तताग्रे।"

अर्थात् संसार में पहले न सद् न असद् था, केवल जल ही जल विद्यमान था। इसके हिरण्यगर्भ रूपी ईश्वर ही सर्वप्रथम प्रगट हुए, तभी संसार अस्तित्व में आया। विज्ञान के अनुसार प्रकृति सदैव तीन रूपों में विद्यमान रहती हैं कण, प्रतिकण, विकरण। वैदिक सिद्धांत के अनुसार प्रकृति के मूल तीन वर्ग- त्रयःकृण्यति भूवनस्यरेता विद्यमान है।

भारतीय संस्कृति में पर्यावरण चिन्तन की अवधारणा उतना ही प्राचीन है जितना मानव का अस्तित्व। ऋषि-मुनियों ने प्राकृत सत्ता में सभी प्राणियों को स्वीकार किया है और वैदिक काल से ही स्वस्थ्य रहने के लिए मानव देवों से प्रार्थना करता आया है। यथा -

वाऽम् असन् नसोः प्रायः चश्रुरक्षणोः श्रोतं कर्णयोः।
अपलिता केशा अशोणा दन्ता बहु बाहवोर्बलम्॥

अर्थात् देवों ने हमारी जो आयु निर्धारित की है उसे हम सब पूर्ण कर सकते हैं। जब मुख में वाणी हों, नासिक्य में प्राण हो, आँखों में देखने के लिए सामर्थ्य हो, कर्णेन्द्रियों में सुनने की क्षमता हो, बालों में पकने का दोष न हो, दन्त स्वच्छ और बाहुओं में बल बना रहे। 
                     
प्रदूषण के प्रकार:- वर्तमान में संसार का हर क्षेत्र प्रदूषण की समस्या से जूझ रहा है। जल, वायु, मृदा, ध्वनि आदि सभी प्रदूषण आज विकराल रूप धारण करती जा रही है, यहाँ तक अंतरिक्ष भी प्रदूषण के प्रकोप से अछूता नहीं रहा है। इसलिए वैदिकालीन मनुष्यों ने द्युलोक (आकाश या अंतरिक्ष) से लेकर व्यक्ति तक समस्त परिवेश के लिए प्रार्थना की है। शुक्ल यजुर्वेद में ऋषि प्रार्थना करते हैं कि - द्यौ शान्तिरन्तरिक्षः।

(1) वायु प्रदूषण:- आधुनिक युग में बढ़ता औद्योगिक विकास, याता-यात के साधन (वाहन) से निकलने वाला धुआँ और कचरे को जलाने से निकलने वाला धुआँ वायु प्रदूषण का मुख्य कारणों में से है, जिनके कारण आज मानव अनेक बीमारियों का शिकार हो रहा है। आज वायु प्रदूषण से जो हानियाँ बताई जाती हैं और वायु को शुद्ध रखने का जो महत्व बताया जाता है, उसे ऋग्वेद ने एक-दो ऋचाओं में सूत्रबद्ध कर दिया है -

" वात आ वातु भेषजम्, स नो जीवात्वे कृधि।"

अर्थात् हे! वायु तुम स्वास्थ्य की औषधि बनकर बहो। तुम्हीं हमारी जीवन-जड़ी हो आदि। दशम मंडल का यह 186वाँ सूक्त वायु के जीवनदायी स्वरूप की विशद् विवेचन करता है।

शमन्तरिक्ष दुश्यनो अस्तु - अन्तरिक्ष धुआँ, धूल से मुक्त (स्वच्छ) रहे, जिसमें हम सब स्पष्ट देख सकें।

शनो भवित्र शमु अस्तु वायु - अन्तरिक्ष में कल्याणकारी हवा बहती रहे।

शं न दूषिपरो अभिवातु वात - वायु एक स्थान पर बद्ध न होेकर दूषिपर अर्थात् स्वच्छ रूप से दाएँ-बाएँ प्रवाहित होता रहे।

ना मेध्यं प्रक्षिपेदग्नौ - आग में किसी अपवित्र वस्तु का प्रक्षेपण नहीं करना चाहिए, अन्यथा वह वातावरण को भी दूषित कर देता है। इसलिए कहा गया है कि शुद्ध वायु है तो लम्बी आयु है। 

अयं वायु सर्वेषां भूतानां मध्वस्य वायोः सर्वाणि भूतानि मधु -  वायु समस्त जीवों का मधु है, समस्त जीव वायु के लिए मधु तुल्य है। सब कुछ आदि और अंत पर टिका है।

(2) जल प्रदूषण:- मानव शरीर का लगभग तीन चौथाई भाग जलीय अवयवों से निर्मित है। समस्त जीवधारियों के लिए जल ही जीवन है। ऋग्वेद में जल को विश्व का जन्म देने वाली श्रेष्ठ माँ कहा गया है -

मातृतमा विषस्य स्थातुर्जगतो जानित्री।

 

वृहदारण्यक उपनिषद् में कहा गया है - इमा आपः सर्वेषां भूतानां मध्वासामपाँसर्वाणि भूतानि मधु।

यह जल समस्त प्राणियों के लिए अमृत है। जल में अग्नि का वास होता है अतः नग्न स्नान वर्जित था। पुराणों में ऐसी जानकारी दी गई है, जिनको किसी भी पवित्र नदी के किनारे नहीं करना चाहिए-

नाप्सु मूत्रपुरीषं कुर्यात् न निष्ठीवेत् न विवसनः स्नायात् गुह्यौ न इवोग्निः॥

 

गंगा को माँ का दर्जा दिया गया है और पावन व पवित्र मानी गई है। मनुस्मृति में मनु ने लिखा है - "किसी व्यक्ति को पानी में मल-मूत्र अथवा थूकना नहीं चाहिए, किसी भी वस्तु को या अपवित्र वस्तुओं रक्त, विष से मिश्रित जल को शुद्ध जल में नहीं डालना चाहिए।"  

(3) ध्वनि प्रदूषण:- इसके लिए उर्दू शब्द शोर का प्रयोग किया जाता है। तीव्र ध्वनि सिरदर्द, अनिद्रा, तनाव आदि बीमारियों का मूल कारण है। आजकल किसी कार्यक्रम का आयोजन बिना ध्वनि विस्तारक यंत्र के सम्पन्न नहीं होता, जहाँ पर इन यंत्रों के बिना भी कार्य चल सकता है वहाँ भी इसका प्रयोग किया जाता है। यद्यपि संगीत देवोपासना का एक महत्वपूर्ण अंग है किन्तु खेद है कि आजकल ध्वनि के साधनों का दुरुपयोग हो रहा है। रेडियों, ट्रांजिस्टर, टेलीविजन, ध्वनि विस्तारक यंत्र, औद्योगिक संस्थान और वाहन की आवाज हमें बहरा बनाते जा रहे हैं। वेदों में स्वास्थ्य की दृष्टि से तीक्ष्ण आवाज़ से बचने के लिए तथा आपसी वार्तालाप में धीमा और मधुर बोलने के लिए कहा गया है -

मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा।
सम्यश्चः सव्रता भूत्वा वाचं वदत् भद्रया॥

 

अर्थात् भाई-भाई से बहन-बहन से द्वेष न करे। परिवार के सभी लोग एक मत व एक होकर आपस में शांति से भद्र पुरुषों के समान भद्रता से वार्तालाप करें। यहाँ ध्वनि में मधुरता की आशा व्यक्त है।

(4) मृदा (पृथ्वी) प्रदूषण:- प्रत्येक आस्थावान व्यक्ति आज भी पृथ्वी को माता तथा स्वयं को उसका पुत्र मानता है। ऋग्वेद के पृथ्वीसूक्त में कहा गया है:- माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः। खेद है कि  भारत भूमि को माता मानने वाले लोग आज अपनी भूमि को ही प्रदूषित कर रहे हैं। औद्योगिक कचरे, मानव मल-मूत्र, प्लास्टिक (जो सड़ता-गलता नहीं) आदि सभी पर्यावरण को प्रदूषित कर रहे हैं। अतीत की ओर देखने से पता चलता है कि अनेक सभ्यताएँ अपने चरम सीमा पर आने के बाद किसी प्रकार से समाप्त हो गई। हड़प्पा संस्कृति के पतन का कारण में शहर व प्रदेशों के भूमि (मृदा) का बंजर होना बताया जाता है।

अथर्ववेद के पृथ्वीसूक्त के कुल 63 मंत्रों में पृथ्वी की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है। पृथ्वी के निर्माण के बारे में कहा गया है -

शिला भूमिरश्मा पांसुः सा भूमिः संघृता घृता।
तस्यै हिरण्यवक्षये पृथिव्या अकरं नमः॥

 

अर्थात् भूमि, चट्टान, पत्थर और मिट्टी है, मैं उसी हिरण्यगर्भा पृथ्वी के लिए स्वागत वचन बोलता हूँ।

 

प्रदूषण रोकथाम के उपाय

 

पर्यावरण प्रदूषण को रोकने के लिए वर्तमान में कई योजनाएँ बनाई गई हैं जिसमें नियम और कानूनी दण्ड भी शामिल है किन्तु फिर भी कोई ख़ासा परिणाम नहीं निकल सका। भारतीय संस्कृति में मानव की ऐश्वर्यभोग की अभिलाषा को ही पर्यावरण प्रदूषण का कारण माना गया है -

सुखार्थमशुभं कृत्वा य एते भृषदुः खिताः।
आस्वादः स किमेतेषां करोति सुखमण्वपि॥

 

अर्थात् सुख (ऐश्वर्य) के लिए ही मनुष्य अशुभ कर्म (पर्यावरण ह्रास) करके मनुष्य नाना प्रकार के दुःख भोग रहे हैं, सुख तो अणुमात्र भी नहीं। इसलिए मानव मन की पवित्रता पर बल दिया गया है - यतते मनसः शमे। निर्मल मन और नैतिक नियमों के आचरण से पर्यावरण संरक्षण किया जा सकता है।

वायु प्रदूषण निवारण:- 

(अ) वन संरक्षण:- वैदिक साहित्य में मनीषियों ने जगह-जगह पर वनों की वैशिष्ट्य का वर्णन किया है यथाः- ततः शिव कुसुमित बालपादपः छायाफलादयर्थ वृक्षमाश्रयते जनः॥  अर्थात् वृक्ष सदा शिव होते हैं अतः फल एवं छाया के लिए लोगों द्वारा लगाये जाते हैं।

महाभारत एवं रामायण में वृक्षों के प्रति मनोरम कल्पना की गई हैं (भीष्म पर्व में) - सर्वकाम फलाः वृक्षाः। वृक्ष का महत्व वैदिक साहित्य में बताया गया और वायु को शुद्ध करने में सहायक माना गया है। वैज्ञानिक पक्ष भी इसे स्वीकर करते हैं। वेदों में स्वीकार किया गया है - नमो वृक्षेभ्यः। मत्स्यपुराण में कहा गया है - दसकूपसमावापी दसवापीसमोहृदः दसहृदसमः पुत्रो दसपुत्रोसमो द्रुमः। अर्थात् दस कूप (कुआँ) के समान पुण्य एक वापी (पोखर) बनाने में, दस पोखरों का पुण्य एक तालाब बनाने में, दस तलाब का पुण्य एक पुत्र से तथा दस पुत्र के समान पुण्य एक वृक्ष लगाने से होता है। 

 

(ब) यज्ञ:- प्राचीन समय में मान्यता रही है कि यज्ञ द्वारा ही वायु को शुद्ध किया जाता रहा है, यजुर्वेद में यज्ञों को पर्याप्त महत्व प्रदान किया गया है, जिसका सीधा संबंध पर्यावरण शुद्धि से है। कभी-कभी पुराणों के महत्व को वेदों से अधिक माना गया हैः- 

वेदार्थः दधिकंमन्य पुराणार्थ वरानने।
वेदाः प्रतिष्ठिताः सम्यक् पुराणे नात्र संशयः॥

 

यज्ञ की महत्ता को गीता में भगवान ने संकेत दिया है:- 

अन्नाद्भवन्ति भूतानिपर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञात्भवति पर्जन्यों यज्ञः कर्म समुद्भवः॥

 

अर्थात् प्रदूषण से भूमि फलवित नहीं होती, सत्यविरोधी अधर्म आचरण से भूमि में अन्नादि नहीं फलते। यज्ञ में दी गई आहुति देवगण नहीं स्वीकारते। यज्ञाग्नि से धूम उत्पन्न होता है, जिससे बादल बनते हैं फिर वही बादल बरसात के रूप में पृथ्वी को हरा-भरा करते हैं।      

वर्तमान में कारखाने से निकलने वाला धुआँ, वाहनों से निकलने वाला धुआँ, विभिन्न प्रकार की हानिकारक गैसें जिसका पर्यावरण पर दुष्प्रभाव पड़ता है, उसे नियंत्रित किया जाना अतिआवश्यक है।

जल संरक्षण:- जल है तो जीवन है। यह वाक्य हम सुनते आ रहे हैं। बच्चे के जन्म पर धर्माभिलाषियों के द्वारा जल स्त्रोतों का निर्माण कराये जाने का वर्णन प्राप्त होता है- कूप्रपापुष्कारिणी वनानाम् चक्रुः क्रियास्तत्र च धर्मकामाः। अर्थात् धर्माभिलाषी लोगों ने कुआँ, पोखर, तलाब, बनवाया। जगत्ताय प्रतप्तानां जलराशि च वाच्छतम्:- गर्मी एवं प्यास से व्याकुल जगत् के लिए जल अनिवार्य है। इष्टं हि तर्ष प्रशमाय तोयः- जल के बिना सृष्टि का जीवित रहना असंभव है। जलं पर्युषित त्याज्यम्:- प्यास शांत करने के लिए पवित्र जल इष्ट है।

ध्वनि प्रदूषण नियंत्रण:- वेदों मे कहा गया है कि मनुष्य को आचरण की मर्यादा निर्धारित करके ही ध्वनि का प्रयोग करना चाहिए अन्यथा असंयमित ध्वनि पर्यावरण प्रदूषण की सृष्टि करता है। एक अथर्ववैदिक ऋषि प्रार्थना करते हैं -

जिव्हाया उग्रे मधु में जिव्हामूले मधूकलम्।
ममेदह कृत्तावसो मम् चित्तमुषायसि॥

 

अर्थात् मेरी जिह्वा से मधुर स्वर निकले। भगवान का भजन, पूजन तथा कीर्तन करते समय मूल में मधुरता हो। मधुरता मेरे कर्म में निश्चयपूर्वक रहे तथा चित्त की मधुरता सदैव बनी रहे।

वर्तमान समय में ध्वनि विस्तारक यंत्रों पर नियंत्रण नितांत आवश्यक है, जिसके कारण हम बहरापन, सिरदर्द, अनिद्रा, तनाव आदि बीमारियों से ग्रसित हो रहे हैं। 

मृदा संरक्षण:- "जननी जन्मभमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी" की भावना से आप्लावित प्रत्येक भारतीय इनके प्रति जीवन पर्यन्त कृतज्ञता से अभिभूत रहता है, क्योंकि हमारी पृथ्वी (धरती) को माँ का पद दिया गया है -

यस्यामन्न ब्रीहियवौ यस्या इमाः पश्च कृष्टयः।
भूम्यै पर्जन्यपत्नयै नमोऽस्तु वर्षमेदसे॥

 

अर्थात् जिस भूमि में धान, गेहूँ, जौ आदि खाद्य पदार्थ प्रचुर मात्रा में होते हैं, जहाँ शूरवीर, व्यापारी, शिल्पकार तथा सेवक ये पाँच प्रकार के लोग सुखपूर्वक निवास करते हैं, जिस भूमि में निश्चित समय पर जल वृष्टि होकर अन्नादि उत्पन्न होता है, पर्जन्य से जिसका पोषण होता है, ऐसी मातृभूमि को हमारा नमन है।

वर्तमान में मृदा संरक्षण बहुत आवश्यक हो गया है। औद्योगिक अपशिष्ट, प्लास्टिक आदि सभी भूमि की उर्वरता को ख़त्म करते जा रहे हैं, जिसका निवारण अतिआवश्यक है। 

 

निष्कर्ष:-  भारतीय संस्कृति में पर्यावरण संचेतना के विषय में मैंने विभिन्न प्रदूषण एवं निवारण की चर्चा की है, जिसमें वर्तमान की अपेक्षा वैदिक कालीन ऋषि-मुनियों की विचारधारा मानव हित में रहा है जो भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है। वैदिक मंत्रों में उल्लेख है -

 

ऊँ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

 

अर्थात् मनुष्य अपनी इच्छाओं को वश में रखकर प्रकृति से उतना ही ग्रहण करें कि उसकी पूर्णता को क्षति न पहुँचे।

इसलिए कहा गया है "वेदों की ओर लौटो" अथवा "प्रकृति की ओर वापस चलो।" यदि अभी हम प्रकृति के प्रति संवेदनशील नहीं बनेंगे तो हमारी संस्कृति एवं सभ्यता का विनाश निश्चित है। वसुधैव कुटुम्बकम् और सादा जीवन उच्च विचार वाला देश आज पाश्चात्य अवधारणा के वशीभूत होकर वसुधैव आपणम् और खाओ-पियो और मौज करो का शिकार हो गया है। आवश्यकता है पर्यावरणीय जागरूकता की। सन् 2000 में अर्थर्चाटर कमीशन में पृथ्वी संकट पर तीन दिवसीय सम्मेलन हुआ, जिसमें दो दिन में 22 सूत्र छाँटे गए तथा सम्मेलन के आख़िरी दिन अथर्ववेद की पृथ्वीसूक्त की चर्चा की गई। यह बड़ी आश्चर्य की बात है कि वैज्ञानिकों ने जिन 22 सूत्रों की चर्चा की थी, वह पहले ही अथर्ववेद में उपलब्ध है। अतः आज पर्यावरण संकट से निपटने के लिए पूरी दुनिया को आधुनिक उपायों के साथ वैदिक दर्शन की भी महत्ती आवश्यकता है, तभी हमारी भारतीय संस्कृति और सभ्यता सदैव आयुष्मान रहेगी।


संदर्भ:-

1. प्राचीन भारत में पर्यावरण (एक ऐतहासिक अध्ययन गुप्तकाल से पूर्वमध्य युग), शोधप्रबंध, डॉ.
   मृदुला चौधरी, गयाघाट वाराणसी, पृष्ठ- 1 
2. महाकवि कालिदास की शकुन्तला और पर्यावरण (आलेख), उर्मिला श्रीवास्तव), पृष्ठ-335 
3. संस्कृत साहित्य में पर्यावरण चेतना के संदर्भ में आधुनिक कवि डॉ. राधेश्याम गंगवार के साहित्य
   का विवेचन, (आलेख), पिंकी तिवारी, 3 मार्च 2016, पृष्ठ- 86-88    
4. पर्यावरण और प्रदूषण, डॉ. अरुण रघुवंशी, पृष्ठ- 1,25,44 से 
5. ऋग्वेद, 1/90/6-8,  यजुर्वेद, 13/27-29
6. पर्यावरण प्रभूत्वम् संस्कृत साहित्य एवं पर्यावरण, पृष्ठ-335    
7. मनुस्मृति 4/56 
8. संस्कृत साहित्य और पर्यावरण सुधार(आलेख), डॉ. रामहेत गौतम, 17 मार्च 2014, पृष्ठ- 21-24
9. संस्कृत साहित्य में पर्यावरण (आलेख), वीरराघव खण्डूडी, राजकीय स्नातक महाविद्यालय, उत्तरकाशी, 2017, पृष्ठ- 157 से 160
10. वैदिक साहित्य में पर्यावरण चेतना, रेनूसिंह (आलेख), गोरखपुर, 2015, पृष्ठ- 04 से 06


 

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