अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

भरोसे का आदमी

भरोसे का आदमी ढूँढ़ते मुझे साढ़े सत्तावन साल गुज़र गए। कोई मिलता नहीं। ’मॉर्निंग वाक’ वालों से मैंने चर्चा की, वे कहने लगे, "यादव जी... 'लगे रहो'...।" 

उनके 'लगे-रहो' में मुझे मुन्ना-भाई का स्वाद आने लगा। मैंने सोचा गणपत हमेशा कटाक्ष में बोलता है। उसकी बातों की तह में किसी पहेली की तरह घुसना पड़ता है।

हम में से कई ’मॉर्निंग-वाकिये’, उनकी कटाक्ष-पहेली सुलझाने में या तो अगले दिन की ’वाक’ की प्रतीक्षा करते हैं, या ज़्यादा बेसब्रे हुए लोग उनके घर शाम की चाय पी आते हैं। गणपत को इनकी 'अगुवाई-चार्ज' शायद महँगा न लगे, मगर भाभी जी बिन बुलाये को झेलते वक़्त ज़रूर ताने देती होंगी। किचन, ड्राइंग से लगा हुआ होने से गृहणियों को अनेक फ़ायदे होने की बात में बहुत दमदार असर है। एक तरीक़े से वे बैंक-लोन, इंश्योरेंस और पास-पड़ोसियों की गतिविधियों की श्रोता बन कर, अपनी किटी-पार्टी को ज्ञान की लेटेस्ट किश्त जमा करती हैं।

अगली सुबह गणपत 'बातों की एसिड टेस्ट-किट' लिए मिला।

"यादव जी, आपने बताया नहीं, किस फ़ील्ड में भरोसा चाहिए...? यानी आदमी...?"

वो स्वस्फूर्त कैटेगरी-वाचन में लग गए।

"देखिये अभी इलेक्शन नज़दीक है नहीं, लिहाज़ा मान के चलें कि इस मक़सद से दरकार नहीं होगी। वैसे हमारे पास दमदार ख़ास इसी काम के बन्दे हैं। ज़बरदस्त भरोसेदार। आपने फ़ॉर्म भरा नहीं कि ये शुरू हो जाते हैं। 

"निर्वाचन सूची का पन्ना-प्रमुख बनकर, हर पन्ने के आठ-दस लोगों की कुटाई, उठाई और धमकाई वो ज़बरदस्त कर देते हैं कि उस पन्ने का पूरा मोहल्ला-मेंबर, एक तरफ़ा आपको छाप आता है। ये जीत की गारंटी वाले लोग हैं। हमेशा डिमांड में रहते हैं। आपको अगर अगला मेयर लड़ना हो तो बात करूँ ...?"

मैंने झिझकते हुए कहा, "नहीं, इस क़िस्म की ज़रूरत आन पड़ी तो ज़रूर कहेंगे।"

वे हुम्म करके अगले टेस्ट की ओर बढ़े, "आपको छोटे-मोटे काम जैसे माली - चौकीदार वग़ैरा चाहिए तो मैं बतलाऊँ? अरे वर्मा जी को बोल दूँगा। वे भी इन्तिज़ाम-मास्टर हैं... भेज देंगे।"

वे और ख़ुलासा, भरोसा-भेद प्रवचन में लगे थे जो शेष घुमन्तुओं के मर्म में उतर रहा था। मुझे मन ही मन अपने हाथ ग़लत जगह डाल दिए होने का शक हुआ। मैंने ’वाक’ में हाथ को झटके दिए, कहा, "गणपत भाई, भरोसे का आदमी, जैसा आपने इलेक्शन पन्ना-प्रमुख टाइप बयान किया हमारे लिए मिसफ़िट है। जिनकी बुनियाद ही धमकी-चमकी वाली हो, वे हमारे काम के नहीं हो सकते। उन्हें, जैसे हमने ख़रीदा या इंगेज किया है, वैसे ही कहीं ऊँची बोली या पैसों पर पलट भी तो सकते हैं....?"

वे मेरी तार्किक-समझदारी की बात को ग़ौर करने के बाद कहने लगे, "आप सही फ़रमा रहे हैं। हमें किसी ऐंगल से समझौता करना तो पड़ेगा...? अगर सभी, इसी सोच के हों तो आज पचासों साल से ये इलेक्शनबाज़ जिताते-हराते आ रहे हैं। ये एकाएक लुप्त हो जाने वाले जीव हैं नहीं।"

वे आगे, 'डाइनासोर के लुप्त होने की डार्विन थ्योरी' पे उतरते इससे पहले मेरा घर आ गया, मैंने गेट खोल के अंदर जूता निकालते हुए अर्धांगनी से कहा, ये गणपत जी अगले घण्टे दो घण्टे में आएँ तो कह देना मैं पूजा में बैठा हूँ। वे मेरी पूजा में लगने वाले समय को जानते हैं। ख़ास बात ये कि अनवांटेड के आशंकित-आगमन पर मेरी पूजा, मैराथन स्तर पर होने लगती है। प्रभु रिज़ल्ट भी तुरन्त देते हैं, वे जो बला माफ़िक होते हैं, टल जाते हैं।

अगले दिन गणपत अपने कुत्ते का पट्टा, मय-कुत्ते के पकड़े आये।

मैंने कहा, "आज इसे भी घुमाने ले आये....?"

वे बोले, "इसे घुमाने के लिए मेरे पास दूसरे भरोसे के ईमानदार आदमी हैं। आज मैं इसे आपको बताने के लिए लाया हूँ कि इससे ज़्यादा भरोसेमन्द कोई हो नहीं सकता। ये घर की निस्वार्थ रखवाली करता है, क्या मजाल इनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ कोई ’बाउंड्री वाल’ तक पहुँच सके। हमने इसको भरोसे के लायक़ बनाने में अपनी एनर्जी भी ख़ूब लगाई है। आप कोई चीज़ दूर फेंक देखो... जैसे ये जूता...! उतारिये, कमाल देखिये, 'सीज़न' का... आप पाँच क़दम चल भी नहीं पाएँगे, ये आपके क़दमों में ला के रख देगा...।"

मेरे संकोच की पाराकाष्ठा मुहाने पर थी। मुझे, पिछले हफ़्ते ख़रीदे अपने जूते की गति बनती सामने नज़र आ रही थी।

मैंने कहा, "गणपत जी आप अपना फेंक लीजिये।"

वे बोले, "जादूगर अगर अपनी ट्रिक, अपने सामान से करे तो लोग प्रभावित नहीं होते... कोई वाहवाही नहीं देता। कौन आपका जूता गुमा जा रहा है...?"

दीगर साथ के घुम्मकड़ों ने गणपत की बात का पुरज़ोर समर्थन किया।

सीज़न, जो गणपत की बात और अगले क़दम की जैसे जानकारी रखता हो, मेरे जूतों की तरफ़ घूर के देखने लगा। वे आनन-फानन मेरे जूते को पूरे ज़ोर लगा के उछाल मारे।

गणपत के जोश में पिछली गई रातों के फ़ुटबॉल-क्रिकेट मैच का पुरज़ोर असर था। वे धमाके की स्पीड में यूँ फेंके कि जूता सीधे दूर कीचड़ में जा धँसा। उनका 'कुत्ता-भरोसा' पाँच लोगों के बीच सिद्ध हो के टिक गया या यूँ कहूँ मेरे जूते की बलि चढ़ गई।

इसे धोने, और इसके लिए किसी लघुकथा की तात्कालिक पैदायश, घर आने से पहले मुझे करनी थी। मैं उस बयान की रूपरेखा में जुट गया।

तीसरे दिन तक कुत्ता प्रकरण की वज़ह से, भरोसे के आदमी की भूमिका समाप्त नहीं हो पाई।

चौथे दिन, मैंने विराम देने और गणपत को 'ढुंढाई-मुक्त' घोषित करने का ऐलान कर दिया। सब को बताया कि मेरे बॉस को भरोसे का आदमी मिल गया है। सबने अपनी उत्सुकता दिखाई कि भरोसे के आदमी पर मैं विस्तार से प्रकाश डालूँ। वे कहने लगे बॉस के किस काम के लिए कैसा आदमी ढूँढ़ा गया है बताओ।

मैंने कहा, "हमारे बॉस को अगले महीने फ़ॉरेन टूर पर जाना है। उन्हें आफ़िस के लिए एक ज़िम्मेदार अधिकारी, घर और परिवार की देखरेख के लिए होनहार-सज्जन-सुशील, मेरे जैसे आदमी की तलाश थी। पूरे आफ़िस ने मेरे नाम की मुहर लगाई तब जाके वे आश्वस्त हुए। आइये घर चलें, आप सभी को चाय पिलाई जाए।" 

गणपत बोले, "बड़े उस्ताद हो ..भाई! हमें क्या पता था बॉस को आप सब्सिट्यूट कर रहे हैं।" 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'हैप्पी बर्थ डे'
|

"बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का …

60 साल का नौजवान
|

रामावतर और मैं लगभग एक ही उम्र के थे। मैंने…

 (ब)जट : यमला पगला दीवाना
|

प्रतिवर्ष संसद में आम बजट पेश किया जाता…

 एनजीओ का शौक़
|

इस समय दीन-दुनिया में एक शौक़ चल रहा है,…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सजल

ग़ज़ल

नज़्म

कविता

गीत-नवगीत

दोहे

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

कविता-मुक्तक

पुस्तक समीक्षा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. शिष्टाचार के बहाने