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भारतीय भाषाओं का हिंदी में अनुवाद : स्वप्न और संकट

(गुजराती के संदर्भ में)

अनुवाद रचना का पुनर्जीवन है। साहित्य और कला में जीवन के यथार्थ अनुभवों का लेखा-जोखा अभिव्यक्ति पाता है। यूँ देखा जाय तो हमारा जीवन राजनीति एवं विचारधाराओं के तहत ही जिया जा रहा है। हमारे आस-पास जो गूँथा-बुना जा रहा है उस प्रभाव से हम अछूते नहीं रह पाते। कला में जो अभिव्यक्त होता है, अनुवाद के द्वारा उसी संवेदना को अन्यान्य तक संप्रेषित किया जा सकता है। भाषा विचारों की संवाहिका है तो अनुवाद विविध भाषाओं एवं विविध संस्कृतियों से साक्षात्कार करानेवाला साधन। अनुवाद अपने भगीरथ प्रयास से दो विभिन्न एवं अपरिचित संस्कृतियों,परिवेशों एवं भाषाओं की सौंदर्य चेतना को अभिन्न और परिचित बना देता है। पॉल एंजिल का यह कथन पूर्णतया सही है कि- "इक्कीसवीं सदी में प्रत्येक देश में दो साहित्य उपलब्ध हो सकेंगे। पहला, उसके अपने लेखकों का रचा गया साहित्य और दूसरा विश्व भाषाओं से अनूदित साहित्य।"

भारत वर्ष के अपने आंतरिक परिवेश में तो भारतीय मानक धर्म ग्रन्थों, साहित्य कृतियों के पारस्परिक अनुवाद तो बड़ी तेज़ी से आपस में होते चले आए हैं। रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत, मेघदूतम् और गीत गोविंद जैसी महान कृतियाँ हैं जिनके अनुवादों की एक लम्बी परंपरा-सी एक भाषा से दूसरी भाषा में विकसित होती चली गई है। लगभग सभी भारतीय भाषाओं के साहित्यिक इतिहास के दौर में अनुवादों का बोलबाला रहा है। चूँकि प्रायः सर्वत्र ही पद्य-रचना साहित्य की एक मात्र सरणि थीं अतः स्वाभाविक रूप से अनुवाद भी प्राय़ः पद्य-बद्ध हुए हैं।

भावों के अभिव्यक्तिकरण की पद्धतियों में स्थूल से सूक्ष्म की ओर चलें तो वास्तुशिल्प, मूर्तिकला और चित्रकला तथा संगीत का अनुवाद तो संभव ही नहीं है। इनका अनुकरण कर एक अनुकृति तैयार हो सकती है या प्रभावान्वितिपरक एक स्वतंत्र कृति तैयार की जा सकती है परंतु इनका भाषातंरण, ॠपांतरण या अनुवाद नहीं हो सकता।

भाव भाषा में व्यक्त होते हैं, तभी अनुवाद की सीमा में आते हैं। यूँ भाषा में- कविहिं अरथ आखर बल साँचा के अनुसार बात से अक्षर, अक्षर से बने शब्द और अर्थ के सहयोग से जो भावाभिव्यक्ति एक भाषा में होती है, वह उस भाषा की सामर्थ्य की सीमा के कारण पूरी तरह न हो पाने पर भी भाषा के संगीत प्रवाह, प्रौढ़ोक्ति परंपरा-निजंधरी कथाओं-आख्यान-अप्रस्तुत योजना-मुहावरेदानी-लोकोक्ति-कवि समर्थ आदि के माध्यम से उस भाषा की सीमा रेखा के भी पार की अभिव्यक्ति करवा देती है।

चरित्र के रूप में समूचा मानव सदेह अपने सांस्कृतिक वेश में उपस्थित होता है। साहित्य की विधाओं में न सिर्फ अनुभूतियों का संश्लेषण होता है अपितु जीवन-गाथा का संस्पर्श, फैलाव एवं विश्लेषण होता है।

अनुवाद को लेकर सबसे पहले जिस कठिनाई का सामना करना पड़ता है वह है कृति के चुनाव की समस्या, जिसके लिए जूझना पड़ता है। अनुवाद के लिए किसी रचना के चुनाव का मानदण्ड क्या हो सकता है, क्या वह रचना जो एक पाठक के रूप में हमें अच्छी लगती है या वह जिसकी प्रशंसा समीक्षकों ने की है या वह जो मूल भाषा के पाठक वर्ग में सबसे अधिक लोक प्रिय हुई है, या वह जिसे पुरस्कार मिला हो ? और क्या ये सही नहीं है कि किसी कृति का ठीक-ठीक मूल्यांकन तो लंबी समयावधि में समय की छलनी में छनने के बाद ही होता है। तब हमें समय के निर्णय की प्रतीक्षा करना चाहिए।

अर्थ के संप्रेषण की समस्या भी अनुवाद का महत्वपूर्ण पक्ष है। इसके अभाव में पाठक सही रूप में बात को न समझ सकता है न ही पकड़ सकता है। अनुवाद को अगर मूल के समान विश्वनीयता प्रदान करनी हो तो अर्थ का संप्रेषण अहम बात बन जाती है। इसमें अर्थ के साथ किसी भी प्रकार के खिलवाड़ की कोई गुंजाईश नहीं रहती। मूल के अर्थ को लक्ष्य भाषा में क्षति पहुँचाना अनुवाद में स्वीकार्य नहीं है। उदा. સારૂં, તો હવે આપણે શરુ કરીએ, का हिंदी अच्छा, तो अब हम शुरू करें। सही नहीं है, परंतु होना ये चाहिए कि ठीक है, तो अब हम चलेंगे। उदाहरण: घणी गोळीनां पाणी पीवा अर्थात बहुत से मटके से पानी पीना। नहीं होता, अपितु भाँति-भाँति के अनुभव होना। उदा. बजारमां गरमी छे अर्थात बाजार में कहीं आग नहीं लगी परंतु चीज़ों के दाम ऊँचे है, महँगाई तेज़ी पर है।

कथ्य का संप्रेषण भी अनुवाद का जानदार पहलू है, जिसके अभाव में सामग्री अर्थहीन हो जाती है। फिर चाहे सामग्री किसी भी क्षेत्र की क्यों न हो, चाहे साहित्य, वैज्ञानिक, व्यावसायिक, विधि, कार्यालयी, प्रशासनिक।

गुजराती से हिंदी में मैंने विविध साहित्यिक विधाएँ—जैसे कि ललितनिबंध, कविताएँ, कविता संबंधी समीक्षात्मक लेख, कहानी, नाटक, पुस्तक की भूमिका आदि के अनुवाद किए हैं। उसी के आधार पर होनवाली समस्याओं की बात करना चाहूँगी।

आ. जयेन्द्र त्रिवेदी द्वारा रचित कीडिओ निबंध के अनुवाद को मैंने चुना। चींटियां निबंध का शीर्षक है। एक सूक्ष्म जीव और उसके क्रियाकलाप के माध्यम से लेखक ने गुजराती के उत्तर आधुनिक युग के रचनाकार सुरेश जोशी की क़लम की प्रखरतम शक्ति, उनके स्पष्ट वक्ता होने का वैयक्तिक पक्ष, अत्यंत हल्की-फुल्की शैली में गंभीर बातें कहने की एक अनोखी छटा का परिचय करवाया है। आ. त्रिवेदीजी के निवास स्थान से जोशीजी का लगाव आदि की बात करते हुए, निबंध में चींटी का संदर्भ कवि पंत की लिखी कविता से जोड़ते हुए उसे पिपिलिका पांति भी कहा है। पंतजी द्वारा चींटी के लिए कहा गया संबोधन—तम का तागा अर्थात अंधकार का धागा उपमान का प्रयोग करके चींटी का महत्व स्थापित किया है। आगे ऊधई अर्थात दीमक की सामाजिकता की बात एक गुजराती के रचनाकार मशरुवाला ने की है, उसका हवाला देते हुए पंतजी भी चींटी को सामाजिक प्राणी का दर्ज़ा देते हैं। पंतजी चींटी का वंश, उपज, गढ़ आदि का नूतन उपमानों द्वारा विस्तृत परिचय करवाते हैं। उदा—प्रयुक्त शब्द— फळीयुं=आंगन, गौशाळा=गौशाला, कोठार=कोठार(गुजराती भाषा से लिया शब्द) जिसमें अनाज आदि साल भर की चीजें संजोयी जाती है। घोडियाघर=बालघर (पालने में रखे जानेवाले बच्चे का स्थान) डेली=ड्यौढी, शेरी=पौरी, राजमार्ग=राजपथ घो मरवानी थाय त्यारे वाघरी वाडे जाय= गोह जब मरने की होती है तब वाघरियों की बस्ती की ओर भागती है। (गीदड़ की मौत आती है तो शहर की ओर भागता है।) गढ़ीमां=चींटीयों के रहने का स्थान=गढ़, संघराखोर=परिग्रही।

उपर्युक्त उदाहरणों से हम जान सकते हैं कि कई शब्द यथातथ प्रांतीय भाषा से, तो कई शब्दों की अर्थ-छाया बनाये रखने के लिये फुटनोट देकर व्य़ाख्यायित कर दिए जाते हैं। यहीं पर इसके मर्म को, मूल को संप्रेषित करने का उत्तम मार्ग नज़र आता है।

मानव जीवन को सुगंधित, आनंद से परिपूर्ण और संगीतमय बनाने के लिए पुष्पों की क्यारियाँ, फुहार, शहनाई एवं गीत का महत्व होता है वैसे ही कविता भी अति महत्वपूर्ण है। भावात्मक एकता की संपूर्ति, भाव-भावनाओं का उन्नयन एवं हृदयपक्ष की समृद्धि हेतु काव्यानुवाद अनिवार्य है, उसमें भी ग़ज़ल के अनुवाद बड़ी ज़ोर-शोर से हो रहे हैं। जो भावों से ओतप्रोत है, प्रायः एक फैशन भी है और लोगों के आकर्षण का केंद्र भी है। साहित्य की सर्वाधिक भावपूर्ण विधा कविता है।

काव्यनुवाद सर्वाधिक कठिन कार्य है, फिर भी तथ्य यह है कि आज काव्यानुवाद संपन्न अवश्य हो रहे हैं। समस्या ये है कि मूल के ध्वनिसौंदर्य को बरक़रार रखना होता है, लय, तुक, प्रभावान्विति, शब्द-योजना, शब्द-शक्ति, प्रतीक-बिंब, मुहावरे, रूप, अलंकार, छंद, एवं रसात्मकता को अक्षुण्ण रखना अनिवार्य हो जाता है। गति, संगति, गेयता, संगीतात्मकता का निर्वाह भी सुरक्षितता की अपेक्षा रखता है। अतः कह सकते हैं कि काव्यानुवाद के माने रवि-रश्मियों को तृण-रज्जु में बद्धमूल करना।

गुजराती के मूर्धन्य ज्ञानपीठ पुरस्कृत कवि श्री राजेन्द्रशाह की कविताओं के अनुवाद करते समय उपर्युक्त बातों का सामना करना पड़ा था। उनकी कविता खालीघर के कुछ बंद पेश हैं:

उदाहरण:

अब खुले
द्वार में से,
संघर्षरत अंधकार के बीच टिमटिमाती
तेजस्वी दो तारिकाओं का समुत्सुक स्वागत नहीं,
बंद है द्वार।

इसमें अंधकार के लिए संघर्षरत विशेषण का प्रयोग, तथा अपने प्रिय के स्वागत हेतु नेत्र द्वय के लिए उपमा है तेजस्वी दो तारिकाएँ।

उदाहरण:

आले पर टिकी पात्र-छायाएँ,
तिरछे मुख से करे चिक्-चिक् गूढ़ हँसी।

इसमें कवि ने मूल को अखंड रखकर संप्रेषित किया है— छायाएँ हैं पर वही पात्रों की जो उनके मानसपट पर आज भी यथावत अंकित है, और वे एक विशेष प्रकार से गूढ़ हँसी के साथ चिक्-चिक् कर रही हैं।

यहाँ कवि की मनोजगत को खोलने की अद्भूत छटा दृश्यमान होती है। ये कविता की विशेषता है कि अछांदस में भी एक लय अवश्य निहित रहता है।

प्रतिक्षणबोध काव्य में कवि अपनी प्रेयसी को सूक्ष्म रूप में ख़ुद के भीतर अनुभूत करते हैं, यहाँ अलौकिकता को वर्णित करते हुए जिन शब्दों का प्रयोग किया है देखिए- बेठो छुं आंखो बंध करी-- का आसीन हूँ मैं नेत्र निमीलित।

एक जगह पर कवि प्रेमथी फर्या करे का रमण करे, किस प्रेम से में एक आत्मीय ऐक्य का दर्शन करवाते हैं। रूपरिक्त, अपरोक्ष, अगोचर आदि शब्दों का अनुवाद एक गहरी अनुभूति का साक्ष्य बनता है।

इस संदर्भ में भोलानाथ तिवारी कथन सही है---जिस व्यक्ति में कविता करने की सहज प्रतिभा नहीं होगी, वह कविता का अच्छा अनुवाद भी नहीं कर सकता, क्योंकि काव्य का अनुवाद भी एक सृजन है।

गुजराती भाषा में भी सौराष्ट्र-कच्छ प्रदेश में आंचलिकता की बहुलता दृष्टिगत होती है। कहावत है न—बार गाँवे बोली बदलाय—हिंदी में दस कोस पर बोली बदले के अनुसार गुजरात को ही देखें तो उत्तर गुजरात, मध्य गुजरात, दक्षिण गुजरात उसमें भी आदिवासी प्रजा की बोली, सौराष्ट्र-कच्छ की बोली में रचा गया साहित्य अनूठा होता है। उसके मूल उत्स को बनाये रखकर भावों के संप्रेषण में बाधाएँ आती है। फिर भी अनुवाद पूरा होकर जन-जन तक पहुँचता है पर अपनी महक को बरक़रार रखते हुए।

उत्तर गुजरात की बोली में लिखा गया गुजराती के मूर्धन्य साहित्यकार ऊमाशंकर जोशी का नाटक- बारणे टकोरा। शीर्षक सुनते ही लगता है क्या टकोरा माने घड़ी की टिक्-टिक्, क्या दरवाज़े पर ये टिक्-टिक् कभी संभव है? पर ये गुजराती बोली का शब्द है। औऱ हिंदी में है—दरवाज़े पर दस्तक (कोई पथिक के आगमन पर जो दरवाज़ा खटखटाया जाता है उसी संकेत को उजागर किया है।) मर्म ये है कि छोटे से गाँव का पंडित उदार मन से गाँव में आने-जानेवालों की आवभगत करता है, उसमें पंडिताईन भी भरपूर सहयोग करती है। परिवार में दो बेटे हैं। पंडित की मृत्यु के पश्चात बड़ा बेटा पिता की परंपरा को ज़ारी रखता है। और छोटा शहर में पढ़ाई प्रारंभ करता है। कोई बीमारी का इलाज़ कराने, कोई(हटाणुं) चीज़ें खरीदने, कोई रिश्तेदारी को निभाने के लिए आते है और पंडिताइन के घर(वाळुं) सांध्य-भोजन करके जाते है। देर-सवेर, आधी रात भी पथिक आते हैं, पर पंडिताइन की उम्र का तकाज़ा की उनका शरीर साथ नहीं देता। वह काम नही कर पाती। अपने पति के न रहने पर उनके गुण-गान करती है और दिन गुज़ारती है। इतने में एक रात को उस स्टेशन पर आनेवाली रेल के चले जाने पर देर रात को एक मुसाफ़िर दरवाज़े पर लगातार दस्तक देता है, वह उठ नहीं पाती, छोटे बेटे को कहती है, वह पढ़ाई के लिए बैठा है, अतः पंडिताइन ख़ुद धीरे से उठकर दरवाज़ा खोलती है तब तक (वटेमार्गु) पथिक आगे निकल जाता है, जो उनका ही मृत पति-सा लगता है। उन्हें आवाज़ देती हुई कहती है-- लौट आइए! आपका तो ख़ुद का ही घर है, और पूछते फिर रहे हैं। अपने बेटे से कहती है- अब हमारे दरवाज़े पर कोई नहीं आएगा।

उदाहरण:

मोडा उनाळा नी सांज़=ढलते ग्रीष्म की शाम, पडाळ=ओसारा, खापोटीओ=खपच्चियों, लबाचा=फटे-पुराने, आंगणुं=ड्यौढ़ी, ऊंचो-नीचो=टेढ़ा-मेढ़ा, झोड़=वळगाड—लप(गुजराती) अनमने मन से बात करना। अमळाइने=चक्कर खाकर, इंयाने=यहाँ का, हींडता=चल पड़ना, आवजे घर ढूंकडुं=मानो घर करीब आ गया, नावानीय सगाइ नइ=किसी भी प्रकार का रिश्ता न होना, मेरथी=ओर से, इंमने नु वे बधुंय फल्लं-फल्ला=उनके न रहते सब खाली खम्म।

गुजराती के जानेमाने लेखक धूमकेतु जिनकी कहानी का शीर्षक है पोस्टऑफिस। इस कहानी का संवेदन अत्यंत मार्मिक, दिल को छू जानेवाला है। प्रमुख चरित्र कोचमैन अली डोसा, जो बहुत अच्छा शिकारी था, खरगोश के शिकार में उसकी महारत थी। उसकी जी-जान से प्यारी बेटी थी मरियम, जिसकी शादी फौजी जवान से हुई थी, और फौजी उसे लेकर पंजाब चला जाता है। अली हर दिन बेटी के खत के इंतज़ार में पोस्टऑफिस की पायरी पर बैठकर इंतज़ार करता है। एक दिन थकहार कर पोस्टमेन लक्ष्मणदास को सोने की तीन गिनियां देकर कहता है मरियम का खत आये तो ज़रूर पहुँचाना। पोस्टमेन पूछता है कहाँ? अली उत्तर देता है मेरी कब्र पर और पोस्टमेन आश्चर्यविमूढ़ रह जाता है। एक पिता की सब्र का इम्तेहान मनुष्य को कैसे विगलित करता है यही करुण अंत इस कहानी का है कि जब पोस्टमास्टर की बेटी विदेश ब्याही जाती है और खत-खबर नहीं आता तब वह डोसा अली की वेदना को अनुभूत कर पाता है।

इसमें शिकार के संदर्भ में लेखक ने पीला राँप और कांस शब्दों का प्रयोग घास के विशेष नाम के रूरूप में किया है। ये सौराष्ट्र के गाँवों में खेत-खलिहान में प्रयुक्त साधनों के नाम है। अनुवाद करते समय पाद-टिप्प्ण में व्याख्यायित किया गया है। क्योंकि इसके समान हिंदी में उचित शब्द उपलब्ध नहीं हो पाया।

उदाहरण:

पीला राँप अर्थात ऐसा घास जो पतला करीब सात-आठ फुट लंबा घास जो खेतों के किनारे पर उगता है, उसे काटकर गोबर लिंपण किये कमरों में से झाडू निकालने के लिये उपयोग में लिये जाते हैं।

कांस वह घास है जो काफी लंबाई में उगता है खेतो के आसपास। उसको काटकर छोटे-बड़े झाडू बनाये जाते हे, जिसका उपयोग शहर के लोग घरों को साफ-सुथरा रखने के लिए करते हैं।

एक अवसर ये प्राप्त हुआ जिसमें उपर्युक्त साहत्यिक विधाओं के अतरिक्त पुस्तक संपादन के संपादक की प्रस्तावना का अनुवाद किया। गुजराती साहित्य जगत के महान दैदिप्यमान दिवाकर तुल्य श्री सितांशुयशश्चंद्र द्वारा संपादित एवं नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित पुस्तक रंग छे...... स्वातंत्र्योत्तर गुजराती नाटक में गुजराती नाटक 1947 से 2007 तक की अवधि में रचे गये नाटकों में से चयन करके संपादन किया है। इस पुस्तक की प्रस्तावना का कार्य करते हुए लग रहा था की स्वात्र्यंत्तोतर की पहली साठी के नाटक एवं रंगमंच का (सरवैयुं) लेखा-जोखा नाप-तोल के साथ प्रस्तुत किया है। उच्चतम दर्ज़े की गुजराती रंगमंच की, साहित्यिक भाषा का चुस्ती से प्रयोग किया है।

उदाहरण के लिये देखिए:

प्रारंभ का गौण शीर्षक----- विमुक्त वर्तमान की तलाश में। तलाश है पर वर्तमान की मुक्ति की।

अपटीक्षेप—यथावत हिंदी में ले लिया है। ताबामां राखवुं=अधिकार में करना, दोरीसंचार, भांडवामां=गरियाया, गणतरीबाज, लांबीखेपो। यथातथ रखा गया है कि जो तकनीकी शब्द है।

रत्नपुंजमांथी अलग-अलग झांयना, झबकारनां---- अलग-अलग झांय एवं चमकयुक्त। मातबर---सशक्त, किसी कवि की पंक्ति----होडे होडे जुद्धे नव चढ़ीए, चढ़ीए तो कटका थई पडीए= देखा-देखी के जोश में युद्ध न करें, अगर करें युद्ध तो फना होने की चाह रखें। आंधळुकियां=अविचारी। काठुं=क्लिष्ट, ढांचा। झीले छे=ग्रहण करता है। गुंगळावतो पडदो=श्वास अवरुद्ध करनेवाला पर्दा। वटेमारगुओ, केडी कंडारनारा, लसोटेला, घूंटेली श्याहीमां कित्तो झबोळी, मुहावरे का प्रयोग- बार हाथनुं चीभडुं ने तेर हाथनुं बी=दूसरे की रेखा छोटी करने के लिए अपनी रेखा बड़ी करना

अनुवाद करते समय भाषाकीय भूलों के लिये सजग रहना अति आवश्यक होता है। इसमें ध्वनि, शब्द, रूप वाक्य शब्द, अर्थ, अर्थ छवियाँ आदि समस्याओं की एहतियात न बरती जाय तो अनुवाद, अनुवाद न रहकर कुछ ओर ही स्वरूप धारण करता है।

उदाहरण: गुजराती में ळ स्वतंत्र ध्वनि है—देखिए मळवुं, जाळववुं, हळवुं। जबकि हिंदी में ळ ध्वनि के लिए ल ध्वनि ही है। तब ऐसे शब्दों को मिलना, सम्हालना, हलका—लिखा जाएगा।

शब्द में भी हम देखें तो- संधी --- जोडावुं----समझौता, घावा--- हमला---- हुमलो, संशोधन---अनुसंधान---शोध, आदि रूप के संदर्भ में देखें तो मूल धातु के कई शब्द बनते है उदाहरण: गमन से गामी, अनुगामी; क्रोध से क्रोधी, क्रोधित, क्रोधाग्नि, क्रोधवश। इस प्रकार अनेक शब्दों के कारण समस्या पैदा होती है। किसी शब्द का रूप कैसे बना है, प्रत्यय, उपसर्ग, परसर्ग आदि का ज्ञान यहाँ अपेक्षित रहता है।

वाक्य के कुछ उदाहरण:

(1)ख्रिस्तीओनो धार्मिक ग्रंथ बाइबल छे—इसका हिन्दी अनुवाद होगा----बाइबिल ईसाइयों का पवित्र ग्रंथ है। (2) तेणे त्रण गोळीओ मारी----उसने तीन गोलियां चलाईं।

शब्द-शक्ति के उदाहरण:

-युधष्ठिर के अवतार---अर्थ है---धर्मात्मा, सत्य का प्रतीक, अत्यंत झूठा, मिथ्याभाषी, बनिया----वैश्य, व्यापारी, कंजूस, कुंभ कर्ण की सखी-----कुंभ कर्ण की पत्नी, नींद, चैन, सूर्यपुत्र----कर्ण, उदारमना, मक्खीचूस आदि।

गुजराती में लिंग तीन हैं - अतः अनुवाद करते समय इसकी सजगता होना अनिवार्य है। उदाहरण: पुस्तक तो गुजराती में केवुं कहा जाता है, हिंदी में पुस्तक कैसी, स्त्रीलिंग, अवाज—केवो हिंदी में ध्वनि कैसी कहा जाता है।

हिज्जे के उदाहरण पेश हैं:

वाळ—वार, पाळ—पार, कमळ—कमर, यहाँ क्रमशः अर्थ है केश—मारना, तालाब का किनारा—उसपार, पुष्प—कटिप्रदेश। अनुवाद करते समय शब्दों में ह्रस्व-दीर्घ और हिज्जे महत्पूर्ण होते है- दिन—का दीन, पिता का पीता, माता का मीत, अभिमान का अभीमान।

यूँ तो गुजराती- हिंदी भगिनी भाषाएँ है फिर भी अर्थ बदल जाते -

उदाहरण:

अकस्मात- हिंदी---अचानक, गुजराती---दुर्घटना, उपाधि---पदवी,----दुःख, राजीनामा----त्यागपत्र—सुलेहपत्र, सही---शुद्ध---हस्ताक्षर, सत्तर---70---17।

मुहावरों, कहावतों, लोकोक्तियों की दृष्टि से भी कभी-कभी दिक्कत होती है। फिर भी हमने देखा है कि कई सारी कहावतें इन दोनों भाषाओ में समान रूप से मिल जाती हैं। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-

गुजराती में कहते हैं:

(1)काका-मामा केवाना ने घरमां होय तो खावाना।
(2) गरज पडे गधेडानेय बाप करवो पडे।
(3) जानमां कोई जाणे नहीं ने हुँ लाडा नी फोई।

हिंदी में कहते हैं:

(1)बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया, सारी पैसे की सगाई है।
(2) जरूरत के वक्त गधे को भी बाप बनाना पड़ता है।
(3) बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना।

प्रशासनिक, कार्यालयी अनुवाद के संबंध में डॉ. राजमणि तिवारी का कथन, "कार्यालयीन अनुवाद करते समय अनुवादक को छूट लेने की स्वतंत्रता नहीं है। उसे प्रत्येक शब्द का अनुवाद करने की बाध्यता सी प्रतीत होती है। इसका परिणाम यह होता है कि अनुवाद की भाषा कृत्रिम और अटपटी बन जाती है।"

स्पष्ट है साहित्यिक अनुवाद कार्यलयीन अनुवाद से अलग है अतः उसकी समस्याएँ भी भिन्न हैं। भाषा की प्रकृति, संरचना, लंबे-लंबे संश्लिष्ट वाक्य, पारिभाषिक शब्दावली, अनेक पर्यायों का प्रचलन, कार्यशालाओं का अभाव, सीमित साधन आदि।

यहाँ पर मैं कुछ गुजराती हिंदी की शब्दावली एवं वाक्यांश प्रस्तुत कर रही हूँ जिससे हमें पता चलता है कि किस प्रकार की समस्या सही मायने में उद्भव होती है

 

 

गुजराती

हिंदी

1. कार्यसिध्धि-हिसाब तपासणी

कार्य सिद्धि हिसाबी-लेखा परीक्षा

2. नामुं

हिसाबी लेखन, लेखा-कर्म, लेखा-शास्त्र

3.  3. जे नामे शेरो करायेल होय ते व्यक्ति.

पृष्ठांकित, जिसके नाम से बेचा गया हो

4. आ बाबत सरकारना हुकमो माटे सादर करवी.

मामला सरकारी आदेश हेतु प्रस्तुत करें

5. राज्यपालश्रीना हुक्मथी अने तेना नामे.

राज्यपालश्री के आदेशानुसार, उनके ही नाम से

6. वसूलात पात्र चूकवणी.

वसूली योग्य अदायगी

 7. कह्या प्रमाणे नक्की करायु

तदनुसार निश्चित किया गया है

 8. हुकमनी तामिल थाय,

आदेश जारी किया जाय

 9. अनधिकार उपयोग

अनधिकृत उपयोग

10. विवरण तुरंत मोकलो, बाबत ब जरूरी छे

विवरण तत्काल भेजें, मामला अति आवश्यक है

 11. पत्र मळ्यानी जाण करी दीधेल छे.

पत्र प्राप्ति की सूचना भेज दी गई है।

 

संरचना संबंध में चाहिए कि अनुवादक मूल सामग्री के प्रत्येक शब्द का पर्याय खोज लें, और दोनों भाषाओं की संरचना को लक्ष्य करते हुए अनुवाद करें। उदाहरण: मने आपने जणाववा कहेवामां आवे छे--- हिंदी में: मैं आपको सूचित करता हूँ, अथवा मुझे आपको सूचित करना है, होगा।

गुजरात सरकार भारत सरकार तथा अन्य हिंदीभाषी राज्यों से पत्राचार करने के लिए क़रारानुबद्ध है। पर गुजराती-हिंदी, एवं हिंदी-गुजराती शब्दकोश अधिक न होने के कारण भी समस्या खड़ी होती है। उदाहरण: एक पत्र नुं शीर्षक हतुं---गृहकर समंक संग्रहण अर्थात घरवेराना आँकड़ा एकत्रित करवा, इसमें समंक का अर्थ स्टेटिक्स—आंकड़ा ये शब्द रघुवीर के अलावा अन्य शब्दकोश में प्राप्त नहीं हुआ।

उदाहरण: सिमेन्ट के लिए वज्रचूर्ण शब्द का प्रयोग हुआ था। तब वज्रचूर्ण के दाम में बढ़ोतरी, ये समझ कर दवाई या औषध के चूर्ण मानकर उसे आयुर्वेद विभाग में भेज दिया, हालाँकि ये था रचना निर्माण विभाग का पत्र। उदाहरण: ऐसा ही एक अंग्रेजी शब्द, रेकेमेन्डेशन, जिसका भारत सरकार के शब्दकोश में अर्थ है- सिफ़ारिश, संस्तुति, अनुशंसा, राजस्थान के कोश में- सिफ़ारिश, संस्तुति, उत्तर प्रदेश के कोश में- सिफ़ारिश, अभिसंशा, गुजरात के वहीवटी कोश में सिर्फ सिफ़ारिश है।

इन सब में एकरूपता की आवश्यकता निहायत ज़रूरी है। जो कार्य आज भारत सरकार की शब्दावली समन्वय समिति कर रही है।

अनुवाद केवल गुजराती से हिंदी में हो या भारतीय आर्य भाषा से हिंदी में हो, भारतीय भाषाओं की इन रचनाओं के साथ-साथ कुछ विशिष्टताएँ भी जुड़ी हुई हैं। विभिन्न्ता होते हुए भी ये भाषाएँ अन्ततः एक ही मूल भाषा से विकसित भाषाएँ हैं। इसीलिए समानता के कुछ तत्व इन भाषाओं मे मिलते हैं। इसी प्रकार भौगोलिक अंतर होने के बावजूद एक आम भारतीय की चेतना, एक मूल सांस्कृतिक चेतना से परिचालित है। अनुवाद के लिए ये स्थितियाँ शुभ हैं।

आधुनिक यन्त्रीकरण की प्रक्रिया जैसे-जैसे हमारी मौलिक पहचानों के संकेतों को धुँधला कर रही है, हमारी सांस्कृतिक भूमि से हमें दूर ले जा रही है, वैसे-वैसे साहित्य में भाषागत अन्तराल के बावजूद समानता के लक्षण दिखाई देने लगे हैं।

इस समूची प्रक्रिया में पाठक की भी अहम भूमिका होगी। वह परायी भाषा की अनूदित कलाकृति को किस प्रकार लेता है। अपने बौद्धिक और मानसिक स्तर को पाठक ने कितना प्रौढ़ किया है। अनुवाद को आत्मसात करने के लिए, बाकी तमाम चीज़ों के साथ-साथ एक प्रणयभाव भी अनिवार्य है कि पाठक उसे तर्क की जगह संवेदना सहित ग्रहण करें। इस तरह गुजराती—हिन्दी के पारस्परिक अनुवाद के तन्तु अधिक मज़बूती से एक-दूसरे से जुड़ेंगे।

कुल मिलाकर परस्पर भारतीय भाषाओं के अनुवाद के माध्यम से मनुष्य सांस्कृतिक, राष्ट्रीय, सामाजिक एकत्व की दिशा में अग्रसर होते हुए, भाईचारा और बंधुत्व की भावना से ओतप्रोत होता है। राष्ट्रीयता उजागर होती है।

डॉ. नयना डेलीवाला, हिंदी विभाग,
एफ.डी.आर्ट्स कॉलेज, अहमदाबाद(गुजरात)
संपर्क—0-9727881031, 9327064948. n.deliwala13@gmail.

संदर्भ ग्रंथ सूची:

1 सरकारी लेखन पद्धति, भाषा नियामक कचहरी, गुजरात राज्य.
2 त्रिभाषी वहीवटी शब्दकोश, भाषा नियामक कचहरी, गुजरात राज्य.
3 अनुवादः समस्याएँ अवं समाधान, डॉ.अर्जुन चव्हाण.
4 अनुवाद कला (आलेख) पूर्व निदेशक, भाषा नियामक कचहरी, गुजरात राज्य.
5 अनुवाद – कार्यदक्षता, संपादन: डॉ. महेन्द्रनाथ दुबे.
6 राजेन्द्र शाह की कविताएँ, संपादन: डॉ. किशोर काबरा, डॉ. चीनू मोदी.
7 गुजराती ललित निबंध, डॉ. भगवतशरण अग्रवाल, डॉ. रधुवीर चौधरी
8 आधुनिक गुजराती एकांकी, संपादक: डॉ.गोवर्घन शर्मा, डॉ. चन्द्रसेन नावाणी
9 नटरंग(पत्रिका) अंक93-94, संपादक: अशोक वाजपेयी, रश्मि वाजपेयी.
10 अनुवाद एवं संचार, डॉ. पूरनचंद टंडन.
11 निसर्गलीला अनंत, आ. जयेन्द्र त्रिवेदी

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