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भारतीय साहित्य में अनूदित साहित्य का महत्व और कन्नड़ का अनूदित "हयवद्न" नाटक का विशेष अभ्यास

२०वीं शताब्दी तकनीकी के युग से जाना जाती है। इस समय में भी भाषा का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। कम्प्युटर के इस युग में पूरा विश्व एक हो गया है, तब भाषा का भी इसी दिशा में जा रही है। जिस तरह से मनुष्य का एक चीज़ सिखने से काम नहीं चलता, हमें भी अलग-अलग प्रकार का ज्ञान होना ज़रूरी होता है, उसी प्रकार एक भाषा में लिखी गयी कृति का भी अलग-अलग भाषा में रुपान्तर होना ज़रूरी है। क्योंकि समाज मेँ सभी प्रकार के मनुष्य रहते हैं, सभी मनुष्यों को अपने प्रांत की भाषा का ज्ञान ज़्यादा होता है। अगर एक भाषा की कृति को सभी समाज के मनुष्यों तक उसको पहुँचाना है, तो उस कृति का अनुवाद करना ज़रूरी है।

भारत मेँ ज़्यादात्तर लोग हिन्दी भाषा को जानते हैं, अगर कोई सहित्यकार किसी भी कृति का अनुवाद करेगा तो वह हिन्दी मेँ ही करेगा क्योंकि हिन्दी जानने वाले लोग अधिक मात्रा में हैं। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की माँग पहले इस बिना पर होती थी कि वह जनसाधरण की भाषा है और हिन्दुस्तान के ज़्यादा से ज़्यादा लोग उसे समझते हैं। लेकिन अब कुछ हिन्दी-पंडितों का संस्कृत-प्रेम उन्हें इसके लिए मजबूर कर रहा है कि वे प्रचलित भाषा को उपेक्षा की दृष्टि से देखें। श्री कन्हैयालाल मानिकलाल मुंशा तथा राहुल जी का मत है कि "हिन्दी संस्कृत-गर्भित बने क्योंकि तभी वह सारे भारत में समझी जायगी। उन्होंने अपनी यात्रा और व्याख्यानों का उल्लेख करते हुए कहा है कि गुजराती, मराठी, उड़िया, बँगला आदि भाषाओं के बोलने वाले उनकी हिन्दी अच्छी तरह से समझ लेते थे, शर्त यह थी कि हिन्दी में जब-तब आनेवाले अरबी, फ़ारसी शब्दों की जगह तत्सम संस्कृत शब्दों का प्रयोग किया जाय"।1

अनुवाद के लिये किसी भी साहित्यकार को यह बात ध्यान में रखनी ज़रूरी है कि वह किस भाषा की कृति का अनुवाद कौन सी भाषा में कर रहा है। जिस भाषा में वह अनुवाद कर रहा है उसे उस कृति के शब्दानुवाद और भावानुवाद को ध्यान में रखना पड़ता है। शब्दानुवाद में शब्द को महत्व देते हैं जैसा शब्द है उसका वैसा ही अनुवाद करेंगे। भावानुवाद में शब्द को महत्व नहीं दिया जाता केवल वह भाव के आधार पर अनुवादित करते हैं। इस बात के अलावा जैसे कि अनूदित कृति का समय, संस्कृति, जनपदीय बोलियों आदि का ध्यान रखना पड़ता है, तब जाके वह सफल अनुवाद कहलाता है।

भारत एक बहुभाषाभाषी राष्ट्र है। यहाँ बोली जाने वाली अनेक भाषाओं के बोलने वालों की संख्या विश्व के अनेक राष्ट्रों की जनसंख्या से अधिक है। हिन्दी को छोड़ दें तो भारत की अनेक प्रांतीय भाषाओं को बोलने वाले यूरोप और अफ्रीकी देशों की जनसंख्या से अधिक हैं। यहाँ बोली जाने बाली भाषाओं में से संविधान की अष्टम अनुसूची में उल्लिखित भाषाओं का स्वतंत्र साहित्यिक स्वरूप है। यही नहीं अनेक ऐसी भाषाओं का भी अपना साहित्य है जिनका उल्लेख अष्टम अनुसूची में नहीं हुआ है। भारतीय भाषाओं का यह साहित्य गुणवत्ता एवं प्रभाव की दृष्टि से विश्व की किसी भी भाषा के समकक्ष रखा जा सकता है।

भारतीय साहित्य का अर्थ भारतीय भाषाओं का साहित्य है। क्यूँकि भाषा का स्वरूप पृथक है, अत: साहित्य का स्वरूप भी लोग अलग मान लेते हैं और अंग्रेज़ी, फ्रेंच, अमेरिकी साहित्य की भाँति भारत की विभन्न भाषाओं के साहित्य को अलग-अलग मानते हैं। लेकिन साहित्य के संदर्भ में यह विभाजन उचित नहीं है। भारतीय भाषाओं के भेद के बावजूद साहित्य में अनेकता नहीं मिलती। साहित्य का सम्बंध भाषा से नहीं समाज से होता है। साहित्य समाज का दर्पण माना गया है। जब हम भारतीय साहित्य की बात करते हैं तो हमारा आशय भारतीय समाज का साहित्य होता है। उसमें भारतीय लोकजीवन के विविध रूप होते हैं। शिशिर कुमार दास ने कहा कि "यदि भाषा साहित्य का एकमात्रा घटक होती तब तो अंग्रेज़ी का सारा लेखन अंग्रेज़ी साहित्य ही होता- उसे ब्रिटिश, अमरीकन, ऑस्ट्रेलियन, कैनेडियन के अलावा अफ्रिका, भारतीय, पाकिस्तानी और श्रीलंकन दिखाने की ज़रूरत नहीं पड़ती।"2

भारतीय साहित्य का अर्थ है भारतीयों द्वारा भारतीय लोक मानस की अभिव्यक्ति। ये प्रादेशिकता उसकी एक विशिष्टता है। अत: कहा जा सकता है कि भारतीय साहित्य की आत्मा एक है। भारतीय जनता की सामाजिक राजनीतिक, लोकविश्वासों, परम्पराओं, समस्याओं का समान युग में समान रूप से चित्रण हुआ है। जब हम कभी भारतीय साहित्य का अध्ययन करते हैं तब सभी भाषाओं में एकरूपता मिलती है। एक राष्ट्र, एक भूमि, हिमालय और कन्याकुमारी, सभी नदियों का वर्णन सभी भाषाओं में मिलता है। राम और कृष्ण लोकनायक के रूप में सभी भाषा के साहित्य में मिलते हैं। हिमगिरी पर गर्व जितना हिमालयवासी करता है, उतना ही केरल का समुद्र तटवर्ती मनुष्य भी। पन्नालाल पटेल, फकीर मोहन सेनापती और प्रेमचंद ने समान समस्याओं को लेकर संघर्ष किया है। जब कि कबीर ने भक्ति का विकास दक्षिण से माना है-

"भक्ति द्राविड़ ऊपजी, लाए रामनंद।
परगट किया कबीर ने, सप्तद्वीप-नवखण्ड॥3

भारत में हम अपने कामकाजी जीवन में हर पल अनूदित करते चलते हैं। हम बहुभाषिक भाषा का प्रयोग तो नहीं करते परंतु हम दो भाषा का प्रयोग ज़रूर करते हैं। जब हमारा मन अचेतन मन होता है तब हम बहुत सारी भाषाओं के सम्पर्क में रहते हैं। इसी तरह हमारा साहित्य भी अनुवादों पर आधारित है। जैसे 'महाभारत', 'रामायाण' और 'भगवद्गीता' अलग-अलग भाषाओं में हैं और वह जनजातीय तथा लोकमंचीय संस्करण भी हमारे समृद्ध साहित्य की आधारभूमि हैं।

१९वीं सदी तक का भारतीय साहित्य मुख्यत: शास्त्रीय ग्रंथों का रचनात्मक अनुवाद/परिवर्धन/पुनर्कथन/व्याख्या/टीका-टिप्पणी सार ही था। संस्कृत, फारसी, अरबी और आधुनिक भारतीय भाषाओं के दोतरफ़ा अनुवाद समुदायों, भाषाओं, धर्मों और संस्कृतियों के आपसी गठबंधन में लगातार सहायक रहे। भारत ने तो बहुभाषिकता की स्थिति से सदियों पहले समझौता कर लिया था। "कबीर, मीरा, नानक और विद्यापति - जैसे हमारे कई कवि खुद भी बहुभाषिक रहे हैं और इसकी शायद उन्हें चेतना भी न थी। स्वर्ग-बहिष्कृति का भय हमें कभी नहीं सताता, अनुवाद हममें शर्मिंन्दगी नहीं जगाता, यह हमारी दिनचर्या का अंग-उतना ही दैहिक और आत्मीय जितना प्रणय-निवेदन।"4

भारत में २२ भाषाओं के साहित्य का अनुवाद हुआ है। भारत की बोल-चाल की भाषा में हिन्दी का प्रयोग होता है। भारत की ज़्यादातर लोग अपनी बात हिन्दी में कहना पसंद करते हैं। साहित्य में जब कभी एक भाषा का दूसरी भाषा में अनुवाद होता है तो साहित्यकार हिन्दी भाषा का प्रयोग करते हैं। हिन्दी भाषा में बहुत सारी भाषा का साहित्य अनूदित हुआ है। पहला अनूदित नाटक भारतेंदु के समय में हुआ। राजा साहब ने खड़ी बोली में "शकुंतला-नाटक" का अनुवाद किया। अंग्रेजी भाषा का साहित्य भी हिंदी भाषा में अनुवाद हुआ है जैसे शेक्सपियर के नाटक कि पूरी वर्ण माला हिन्दी में रांगेय राघव जी ने किया है। चेतन भगत की सारी कृति का हिन्दी तथा गुजराती में अनुवाद हुआ मिलता है। भारत में अनुवाद का युग १९वीं शताब्दी में साहित्य में उभरकर आया। दूसरी भाषाओं की बहुत सारी कृतियाँ हिन्दी में अनुवादित हैं। गुजराती के प्रमुख लेखक पन्नालाल पटेल की कृति "मणेला जीव" का हिन्दी में "जीवी" उपन्यास के रूप है। "माधव क्या नथी" कृति का हिन्दी में अनुवाद हुआ है। उड़िया साहित्य की प्रतिभाराय की कृत "ज्ञानाशौनी" उपन्यास का हिन्दी में शंकरलाल पुरोहित द्वारा "द्रोपदी" शीर्षक के नाम से अनुवाद हुआ है। तमिल में श्रीमती अम्बुजम अम्माल ने रामचरित मानस के आयोध्याकाण्ड का तमिल में सरल अनुवाद। प्रेमचंद का नाटक "सेवासदन" का भी अनुवाद हुआ है। तमिल से हिन्दी में "ज्ञानरथम" का हिन्दी में अनुवाद हुआ है। तेलुगु से हिन्दी में "पद्माकर" का उच्च स्थान है। श्री कृष्णमूर्ति शिष्टु ने तुलसीदास का "रामचरितमानस" का अनुवाद किया। कन्नड़ का "हयवदन" नाटक भी हिन्दी मे अनुवादित हुआ है। मलयालम में से हिन्दी खड़ी बोली का "गर्भ श्रीमान" पदों का सम्मिश्रण हुआ है। पंजाबी साहित्य का भी अनुवाद हिन्दी में हुआ है। अनुवाद से एक बात कविता के बारे में कही गयी है "कविता का अनुवाद व्यावसायिक दृष्टि से बहुत मुनाफे का विषय नहीं है- सिर्फ साहित्य अकादेमी ही इस ओर पहल कर पाई है। बाकी प्रकाशकों ने सिर्फ उर्दू कवियों के कुछ क्लासिकल पाठ अनुवाद में प्रस्तुत किए हैं।"5 अनुवाद की और बात हमारे सामने आती है, कुछ साहित्यक कृतियों के अच्छे अनुवाद मिल भी जाते है, पर अधिकतर नहीं मिलते। इस तरह साहित्यिक प्रातिदान में बहुत सारी असमानता है। जैसे कि मलयालम में बंगला की २५० कृतियाँ उपलब्ध हैं तो बांग्ला में मलयालम की दस कृतियाँ भी उपलब्ध नहीं होंगी। दक्षिण भारतीय भाषाओं की कृतियाँ हिन्दी में दक्षिण भारतीय हिन्दी विद्वानों द्वारा अनूदित होती हैं- उनके द्वारा नहीं, जिनकी मातृभाषा हिन्दी है। जैसे उड़िया और तमिल, पंजाबी और तेलुगू, गुजराती और मलयालम, राजस्थानी और कन्नड़ यानी पाली और मराठी के बीच अनुवाद कर पाने वाले नहीं के बराबर है।

भारतीय साहित्य में हर भाषा का साहित्य हिन्दी में अनुवादित हुआ है। कन्न्ड़ भाषा कर्नाटक की भाषा है। कन्नड़ का भी साहित्य हिन्दी में महत्वपूर्ण माना गया है। हिन्दी और कन्नड़ का सम्बध काफी पुराना है। कन्नड़ की बात करें तो आधुनिक कर्नाटक की भाषा कन्नड़ है। उसका क्षेत्र कुर्ग के पूर्वी भाग, पूरे कर्नाटक, मद्रास के पश्चिमी भाग और हैदराबाद तथा महाराष्ट्रा के कुछ भागों में है। कन्नड़ भाषा बोलने वाले लोगों की संख्या १९७१ में तीन करोड़ थी। कन्नड़ तमिल भाषा से मिलती-जुलती भाषा है। कन्नड़ की पहली रचना कविराज मार्ग है रचिता राजा नृपतुंग है। उसे पहला आदि कवि माना गया है। कन्नड़ भाषा में अनुवादित भी हुआ है। आदिकाल के रचनाकार में वैंकटाचार्च, शिवरामकारन्त, अ.न. कृष्णराय, बेंद्रे, पूरप्पा श्री प्रमुख हैं। हिन्दी के साथ भी सम्बन्ध का आधार कन्नड़ के प्रख्यात उपन्यासकार शिवरामकारन्त के उपन्यास हिन्दी में अनूदित हुए हैं। आधुनिक युग तक हिन्दी और कन्नड़ में पारम्पारिक सम्बन्ध बहुत बढ़ा है।

कन्नड़ की एक नाटयरचना "हयवदन" जो गिरिश कुमार कर्नाड ने लिखा है, उसका अनुवाद हिन्दी साहित्य में हुआ है। यह नाटक प्रयोगधर्मी है। इसमें लोकोपाख्यान और आधुनिकता का अद्भुत मिश्रण है। 'हयवदन' का अर्थ है "घोड़े का मुख"। इस नाम की कल्पना एक प्राचीन उपख्यान से की गयी है। कहानी में कर्नाटक की एक राजकुमारी अपूर्व सुन्दरी थी। उसके पिता ने राजकुमारी के विवाह के लिए स्वयंवर रचा जिसमें दूर-दूर के राजकुमार आए। राजकुमारी को कोई वर पसंद नहीं आया। अन्त में सौराष्ट्र का एक राजकुमार सफेद घोड़े पर सवार होकर आया। राजकुमार के स्थान पर राजकुमारी ने घोड़े को पसन्द किया और उससे ही विवाह सम्पन्न हुआ। वह घोड़ा एक गन्धर्व था। १५ वर्ष बाद वह ‌घोड़े के शाप से मुक्त हुआ। तो राजकुमारी को इन्द्रपुरी ले जाने के लिए कहा राजकुमारी के न जाने पर गंधर्व ने उसे शाप देकर घोड़ी बना दिया और इन्द्र्पुरी को चला गया। हयवदन उन्हीं का पुत्र है। जिसका शरीर मनुष्य का और मुख घोड़े का है। इस उपाख्यान के माध्यम से गिरीश कार्नाड ने आधुनिक स्त्री-पुरुष की आधी-अधूरी त्रासदी का वर्णन किया है। स्त्री-पुरुष के उलझावपूर्ण सम्बन्धों और पूर्णता की तलाश में असह्य यातनापूर्ण परिणति ही इस नाटक का उद्देश्य है। इस नाटक की नायिका पद्मिनी है। कपिल और देवदत्त के मध्य पद्मिनी अधूरी रहती है। कपिल और देवदत्त दो पुरुष पात्र हैं जिनके दो और रूप हो जाते हैं कपिल देही देवदत्त और देवदत्त देही कपिल। पद्मिनी इन चार पुरुषों के साथ रह कर सुहागिन होकर भी अभागिन रहती है और अतृप्त जीवन ही रह जाता है। डॉ. जयदेव तनेजा के अनुसार- "यह नाटक मानव जीवन के बुनियादी अन्तर्विरोधों, संकटों, और दबावों-तनावों को अत्यन्त नाटकीय और कल्पनाशील रूप में अभिव्यक्त करता है।"6

"हयवदन" नाटक में जिस प्रकार सिर और धड़ की युति शरीर है, उसी प्रकार देह और आत्मा की युति ही जीवन है और स्त्री-पुरुष की युति ही संसार इनमें से एक में बिखराव जीवन का बिखराव है। द्विशरीरी घोड़े के माध्यम से नाटककार ने इसी पूर्णता की और संकेत किया है।

'हयवदन' नाटक की सबसे बड़ी विशेषता उसका शिल्प विधान है। 'हयवदन' लोकनाट्य प्रवृत्तियों से जुड़ा है। कन्न्ड की प्राचीन लोकनाट्य परम्परा यक्ष गान है। 'हयवदन' में नाटककार ने यक्ष गान की शैली को नए रूप में प्रस्तुत किया है। स्त्री-पुरुष के आधे-अधूरे सम्बन्धों को लेकर वर्तमान साहित्य में अनेक नाट्यकृतियाँ चर्चित और मंचित हुई हैं। लेकिन परम्परा, आख्यान और शिल्प विधान की दृष्टि से 'हयवदन' नाटक एक नया प्रयोग है, जिसका कथानक परीकथाओं की भाँति है जिसमें लोकनाट्य एवं लोक जीवन का प्रयोग हुआ है किंतु नाटक की मुख्य समस्या आधुनिक है। भागवत के रूप में नाटककार ने ऐसे पात्र की कल्पना की है जो पूरे नाटक में समस्याओं को प्रस्तुत भी करता है और पाठकों से संवाद भी बनाए रहता है।

डॉ. जयदेव तनेजा के अनुसार- "विलक्षण प्रसंग, रोचक चरित्र, जटिल सम्बन्ध तथा रोमांचक नाट्य-मोड़ों के साथ-साथ दर्शन, मनोविज्ञान, हिंसा, हास्य, प्रेम और रहस्य के इतने और ऐसे आयाम मौजूद हैं, जो प्रत्येक प्रतिभावान रंगकर्मी को हमेशा नई चुनौतियों से चमत्कृत हैं।"7

'हयवदन' नाटक में कथ्य एवं शिल्प की दृष्टि से नाटककार ने जो प्रयोग किए हैं, पहला प्रयोग है शिरों की अदला-बदली का जो प्राचीन परीकथाओं या बैतालपचीसी की कहानियों की तरह आज के युग में अविश्वसनीय प्रतीत होता है किंतु इस परिवर्तन से लेखक ने जो वैचारिक परिवर्तन दिखाया है, वह विश्वसनीय है। लेखक ने इसके माध्यम से देवदत्त, कपिल और पद्मिनी के प्रेम-त्रिकोण को हयवदन की समान्तर कथा के साथ जोड़ दिया है। इस प्रकार मनुष्य की पूर्णता की कथा में शरीर और मस्तिष्क के मध्य झूलती है। देवदत्त की विद्वत्ता से प्रभावित है पर कपिल की देहायष्टि के प्रति आकर्षित। बुद्धि और शरीर की अलग-अलग माँग है। दोनों को एक साथ प्राप्त करना चाहती है पदमिनी, पर एक समय में एक ही मिल पाता है उसे। अन्तत: वह अधूरी रह जाती है। यही स्थिति देवदत्त और कपिल की भी है। इससे सिद्ध होता है कि इस जीव-सृष्टि में जब मनुष्य अपूर्ण है तो अन्य प्राणियों की क्या स्थिति होगी जिनका प्रतीक हयवदन है।

'हयवदन' का चरित्र हास्यपूर्ण दर्द का अहसास कराता है। नाटक में भागवत का चरित्र और अर्धपरी का प्रयोग यक्षगान शैली का प्रतीक है। संगीत, लोकधुनें, यक्षगान, हास्य आदि लोक तत्वों ने नाटक को लयात्मक गति प्रदान की है।

पिनल पढियार,
शोधार्थी, हिन्दी विभाग,
महाराजा सयाजीराव विश्व विदयालय,
कला संकाय, बड़ौदा ।
e-mail id: padhiyarpinal2@gmail.com
mobile no: 09924844207

संदर्भ

१ भाषा साहित्य और संस्कृति- डॉ रामविलास शर्मा पृ ५
२ भारतीय साहित्य स्थापनाएँ और प्रस्तावनाएँ- के. सच्चिनंदन पृ ३५
३ भारतीय साहित्य - डॉ लक्ष्मीकान्त पाण्डेय और डॉ प्रमिला अवस्थी पृ ३४
४ भारतीय साहित्य स्थापनाएँ और प्रस्तावनाएँ- के. सच्चिनंदन पृ २९
५ भारतीय साहित्य स्थापनाएँ और प्रस्तावनाएँ- के. सच्चिनंदन पृ ३०
६ भारतीय साहित्य - डॉ लक्ष्मीकान्त पाण्डेय और डॉ प्रमिला अवस्थी पृ ३०८
७ भारतीय साहित्य - डॉ लक्ष्मीकान्त पाण्डेय और डॉ प्रमिला अवस्थी पृ ३०९

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