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भारतीय साहित्य में अनुवाद की भूमिका

भारतीय साहित्य की मूलभूत अवधारणा भारत में प्राचीन काल से विकसित और पल्लवित विभिन्न भाषाओं के सामूहिक स्वरूप से उत्पन्न हुई है। भारत उपमहाद्वीप शताब्दियों से गौरवशाली समुन्नत सभ्यता और संस्कृति का केंद्र रहा है। विश्व मनीषा सदैव भारतीय चिंतन परंपराओं, साहित्य बोध तथा दार्शनिक पद्धतियों के प्रति विस्मयपूर्ण आदर का भाव प्रदर्शित करती रही है। भारतीय चिंतन परंपरा में एक प्राचीन काल से वैश्विक दृष्टि समाहित रही है जिसके अंतर में समूची मानव जाति के कल्याण की चेतना मौजूद रही है। इसी कारण भारत भूमि सदा से ही हर प्रकार के वैविध्य को आत्मसात करने में न केवल उदार रही है बल्कि हर उस नवीनता को स्वीकार कर उसके सर्वांगीण संवर्धन में सकारात्मक भूमिका निभाई है। भारत की यह समवेती और समावेशी प्रवृत्ति ही इसे अन्य सभ्यताओं और संस्कृतियों से भिन्न और विशिष्ट बनाती है। यह इस भूमि की ही महिमा है कि यहाँ युगों-युगों से असंख्य जातियाँ अपनी धार्मिक आस्थाओं, सांस्कृतिक विशिष्टताओं, सामाजिक रूढ़ियों और राजनीतिक प्रतिबद्धताओं को साथ लिए, सुरक्षित रहते हुए विकास के मार्ग प्रशस्त करती रहीं। संसार में ऐसी मिसाल कहीं नहीं मिलेगी जहाँ इतनी जातियाँ, भाषाएँ, संस्कृतियाँ और धार्मिक आस्थाएँ एक साथ पुष्पित और पल्लवित हो रहीं हों।

सन् 1947 में जब भारत का उदय एक राष्ट्र के रूप में हुआ, कुछ इतिहाकारों ने इस राष्ट्र को 'एक अस्वाभाविक राष्ट्र' कहा, क्योंकि अकल्पनीय बहुभाषिकता और संस्कृति बहुलता का ऐसा नमूना संसार में अन्य किसी भी राष्ट्र की संरचना में दिखाई नहीं देता।

बहु-भाषिकता, संस्कृतिबहुलता और सैद्धान्तिक विभिन्नता, भौगोलिक जटिलता आदि स्वतंत्र भारत की विशिष्टताएँ हैं जो अन्यत्र दुर्लभ हैं। इतनी विभिन्नता के बावजूद इस देश का लोकतांत्रिक सह-अस्तित्व का स्वरूप निश्चित ही बाहरी दुनिया के लिए विस्मय और ईर्ष्या का कारण हो सकता है।
भारत की बहुभाषिकता, इस राष्ट्र की अस्मिता और शक्ति है। इसकी विविधता में एक अंतर्लीन सांस्कृतिक समन्वय की ऊर्जा निहित है जो कि अनेकता में एकता की संचेतना को व्याप्त करने में सहायक है। वैविध्यपूर्ण सांस्कृतिक बहुलता के साथ लोगों के आचार-विचार-व्यवहार, धार्मिक और आध्यात्मिक चिंतन के अंतर्विरोध, सामाजिक रूढ़ियों और राजनीतिक विचार धाराओं के अंतर मंथन की प्रक्रिया यहाँ निरंतर गतिमान रही है। यही इस देश की बहुभाषिक संस्कृति की विशिष्टिता है।

भारतीय साहित्य - शब्द भारत की सभी भाषाओं में लिखित और मौखिक साहित्य के भंडार को कहा जाता है। संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त 22 भाषाओं का साहित्य सम्मिलित रूप से भारतीय साहित्य है। यह एक समुच्चय है जो कि सभी भारतीय भाषाओं में रचित साहित्य का समेकित रूप है। भारतीय समाज को चित्रित करने वाला साहित्य ही भारतीय साहित्य है। केवल भाषापरक ही नहीं बल्कि इसकी पहचान इसके भारतीय सामाजिक सरोकार से बनी है। हर वह साहित्य भारतीय समाज के राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और आंचलिक पक्ष को उजागर करता है, वह भारतीय साहित्य कहलाने का हकदार है । भारतीयता को उसके समूचेपन के साथ प्रस्तुत करने वाला साहित्य ही भारतीय साहित्य हो सकता है इसलिए विदेशों में भारतीय स्थितियों और समाज की अंतश्चेतना को प्रस्तुत करने वाला साहित्य भी भारतीय साहित्य की श्रेणी में स्थान प्राप्त करता है। केवल संविधान में उल्लिखित भाषाएँ ही नहीं वरन अन्य भारतीय बोलियों और उपभाषाओं में रचित साहित्य भी भारतीय साहित्य के दायरे में आता है।

भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में अंग्रेज़ी भाषा का उल्लेख नहीं है किन्तु भारतीय लेखकों द्वारा रचित अंग्रेज़ी साहित्य, भारतीय साहित्य का एक महत्वपूर्ण अंग है। भारतीय रचनाकारों के द्वारा रचित अंग्रेज़ी साहित्य की अपनी एक विशिष्ट पहचान है और इसे विश्व स्तर पर लोकप्रियता प्राप्त है। इस तरह भारतीय साहित्य के अंतर्गत भारतीय भाषाओं के साथ साथ भारतीय अंग्रेज़ी साहित्य भी शामिल हो गया है।

"भारतीय साहित्य की आधारभूत भारतीयता या एकता से परिचित होना तभी संभव होता है जब हम उसे अनेकता या भारतीय साहित्य की विविधता के संदर्भ में समझने का प्रयत्न करते हैं। पश्चिमी विचारधारा प्रत्येक समस्या को द्वि-आधारी प्रतिमुखता में बादल देती है और इसके विपरीत भारतीय मन जीवन की साकल्यवादी दृष्टि में विश्वास करता है और परिणामत: एकता-अनेकता जैसे विरुद्धों के समूह को एक दूसरे के संपूरक के रूप में स्वीकार करना सहज हो जाता है और स्थानीय, प्रांतीय तथा सर्व-भारतीयता तथा राष्ट्रीय अस्मिता में एक सजीव संबंध स्थापित करना संभव हो पाता है। भारतीय साहित्य अपनी एकता में विविधता को अंगीकार करते हुए प्रदर्शित करता है और यही विश्व को भारत की देन है। अनेकता से एकता की ओर ले जाने वाला यह मॉडल भारत की अनन्यता है।"1

भारतीय साहित्य भाषिक बहुवचनीयता के साथ ही एक मूलभूत ऐक्य के तत्व को धारण किए हुए है, यह एक निर्विवाद सत्य है। भारतीय साहित्य की मूलभूत्त एकता को प्रामाणित करने के लिए अनेकों ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक साक्ष्य मौजूद हैं। भारतीय साहित्य की एकता को प्रमाणित करने के उद्देश्य से सन् 1954 में साहित्य अकादमी की स्थापना हुई। डॉ. सर्वेपल्ली राधाकृष्णन ने तब कहा कि भारतीय साहित्य एक है यद्यपि वह बहुत-सी भाषाओं में लिखा जाता है। (Indian literature is one though written in many languages.) डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी ने अपनी पुस्तक लेंगवेजेज़ एंड लिटर्रेचर्स ऑफ इंडिया में भारतीय साहित्य के लिए 'बहुवचन' शब्द का प्रयोग किया है।

साधारणतया भारतीय भाषाओं का उल्लेख हम एकवचन में करते हैं परंतु जब भारतीय भाषाओं की बात की जाती है तब बहुवचन का प्रयोग होता है। भारतीय साहित्य में हमें विषय वस्तु की एकता मिलती है और शैली की विभिन्नता भी और साथ ही सांस्कृतिक विशिष्टताओं का एक वैविध्यपूर्ण संसार के साथ-साथ साहित्यिक परंपराओं के अपार उदाहरण। लेखकों द्वारा लगातार यह सिद्ध किया जाता रहा है कि भारत एक वैविध्यमय देश है जो बहुत सी जातियों, सभ्यताओं, प्रदेशों, धर्मों तथा भाषाओं का समाहार है। इसके किसी एक हिस्से का आविष्कार दूसरे हिस्से की खोज के लिए हमे रास्ता दिखाते हैं (हिंदी का भक्ति काव्य हमें अंतत: तमिल आलवारों तक पहुँचा देता है) और इस तरह एक संपूर्ण भारत का पता लगता है। जब हम मध्ययुगीन भक्ति साहित्य का उदाहरण लेते हैं, तब हम देखते हैं कि यह सर्वभारतीय घटना 6-7वीं शती में तमिल के आलवारों द्वारा घटित होकर कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान में प्रसारित होते हुए 13-14वीं शती में कश्मीर तक फैल जाती है, और 15-16वीं शती तक मध्य देश को अपने घेरे में ले लेती है। श्री चैतन्य के फलस्वरूप भक्ति के इस रूप का नवरूपण होता है और बंगाल, असम तथा मणिपुर में इस आंदोलन का प्रसार होता है। यह एक क्रान्ति थी, नवजागरण था जिसने भक्तों की कल्पना को झंझा की तरह झकझोर किया। भक्ति साहित्य में अलग-अलग भाषाओं का प्रयोग हुआ है, इसमें अनेक सांस्कृतिक विशिष्टताओं की अभिव्यक्ति विद्यमान है। विभिन्न भाषाओं में रचित इस साहित्य में मौजूद विविधता के बावजूद एक आम विश्वास, आस्था, मिथक तथा अनुश्रुतियाँ इनमें विषयवस्तु की एकता को दर्शाती हैं। इसी क्रम में आधुनिक काल के नवजागरण का उदाहरण भी लिया जा सकता है। वैज्ञानिक बुद्धिवादिता, व्यक्ति स्वाधीनता तथा मानवतावाद 14वीं शती के यूरोपीय नवजागरण की विशेषताएँ थी। भारत में समय की माँग के अनुसार इनके स्थान पर राष्ट्रवाद, सुधारवाद तथा पुनरुत्थानवाद का प्रसार हुआ। एक ही विषय वस्तु - समाज सुधार को लेकर भारत की विभिन्न भाषाओं में पहला उपन्यास लिखा गया। तमिल में सैमुअल वेदनायकम पिल्लई, तेलुगु में कृष्णम्मा चेट्टी, मलयालम में चंदु मेनन, हिंदी में लाला श्रीनिवास दास, बांग्ला में मेरी हचिन्सन के उपन्यास की विषयवस्तु में समाज सुधार की ही प्रमुखता है। वस्तुत: इन्हीं सब कारणों से यह निष्कर्ष लिया जा सकता है कि कोई भी एक भारतीय साहित्य एक - दूसरे भारतीय साहित्य से कहीं न कहीं जुड़ा हुआ है अतएव भारतीय साहित्य का कोई भी अध्ययन एक साहित्य के संदर्भ में अध्ययन के प्रति न्याय नहीं कर सकता। इन सारी विविधताओं का समाधान 'अनुवाद' के माध्यम से ही संभव है। भारतीय साहित्य की भाषिक विविधता को दूर करने में 'अनुवाद' की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है।

भारतीय साहित्य की अवधारणा भाषा साहित्य के समीकरण पर आधारित नहीं क्योंकि यहाँ बहुत सी भाषाएँ हैं। हमारी बहुभाषिक स्थिति में एक लेखक बहुत सी भाषाओं में लिखता है। इसीलिए भारतीय साहित्य को किसी एक भाषा से संबद्ध करके उसे चिह्नित नहीं किया जा सकता। जब कोई भारतीय साहित्य की बात करता है तब एक भौगोलिक क्षेत्र और राजनीतिक एकता की बात उठती है। भौगोलिक क्षेत्र की अपेक्षा भारतीयता का आदर्श हमारे लिए ज़्यादा आवश्यक है। "पंडित नेहरू कहते थे, यह एक नेशन स्टेट नहीं है मगर एक राष्ट्र निर्मिति की स्थिति में है। रवीन्द्रनाथ कहते थे कि हमारा राष्ट्र मात्र भौगोलिक सत्ता नहीं, मृण्मय नहीं। वह एक विचार का प्रतीक है, वह चिन्मय है। हमारा राष्ट्रवाद हमारे प्राचीन आदर्शों तथा गांधीजी द्वारा प्रस्तुत बहुलवाद, आध्यात्मिक परंपरा, सत्य और सहिष्णुता के विचारों तथा नेहरू के समाजवादी तथा अपक्ष ग्रहण (non-alignment) के विचारों पर आधारित है। और सबसे बड़ी बात हमारे साहित्य की अवधारणा जनता तथा साहित्य के संपर्क की पहचान पर आधारित है। वस्तुत: भारत के साहित्य को केवल भाषा, भौगोलिक क्षेत्र और राजनीतिक एकता से ही पहचाना नहीं जाता मगर कहीं अधिक उस देश की जनता के आश्रय से पहचाना जाता है।"2

भारतीय साहित्य की मूलभूत एकता :

भारतीय साहित्य भारतीय जनता की स्मरणीय अभिव्यक्तियों का समाहार है। यह सत्ता राजनीतिक अनिवार्यता से नहीं बल्कि समुदाय और समुच्चय की भावना से निर्धारित हुई जो भावना सदियों से हमारे भीतर मौजूद है। समुदाय की भावना से प्राप्त शक्ति भारतीय जनता और उसके क्रिया कलापों को समायोजित करती है और इसीलिए भारतीय साहित्य में लोक और शास्त्र का अनुशासन, आदर्श की अभिव्यक्ति और लोक की चुनौती और लोक से प्रेरित त्रासदी की अभिव्यक्ति सभी इकट्ठे दिखाई पड़ते हैं। समुदाय की यह भावना न तो उपनिवेशवाद की प्रतिक्रिया है और न ही राष्ट्रीय आंदोलन का परिणाम। यह एक सार्वकालिक यथार्थ है।

भारतीय साहित्य का विचार भारत की बहुभाषिकता का स्वाभाविक परिणाम है। भारतीय साहित्य की एकता भाषागत एकता नहीं, विचारों और भावनाओं की एकता है। भारतीय साहित्य की संचलित भारतीयता का प्रमाण उसके बहुलवादी संदर्भ में ही मिलता है। विविधता का यह स्वरूप जो एकता की ओर हमें ले जाता है भारत के लिए एक आदर्श नमूना है और यह एकता जैसा कि कहा गया है भाषिक नहीं, वैचारिक है। उदाहरणतया - अशोक के शिलालेख कई बोलियों में उपलब्ध हैं परंतु उनमें एक ही बौद्ध धर्म के आदर्श विचारों की अभिव्यक्ति हुई है। कालिदास के नाटक शकुंतला में संस्कृत के अतिरिक्त शौरसेनी, महाराष्ट्री तथा मागधी प्राकृत का प्रयोग हुआ है परंतु एक ही वैचारिक दर्शन की अभिव्यक्ति हुई है और वह यह कि मनुष्य के लिए सांसारिकता से ही आध्यात्मिकता तक की यात्रा संभव हो पाती है। विद्यापति ने अपने काव्यागत विचार अवहट्ट, संस्कृत और मैथिली में प्रस्तुत किए हैं। और गुरुग्रंथ साहिब एक बहुभाषिक कृति है जिसमें एक ही सत् की अभिव्यक्ति हुई है। इस तरह भारत में विभिन्न भाषाओं के आश्रय से एक साहित्यिक संसार की रचना हुई है। इस देश में हर प्रकार की विविधता, भाषिक और गैरभाषिक के बावजूद पिछले एक हज़ार वर्षों में रूपकों, बिंबों, मिथकों अनुश्रुतियों, परिपाटियों, नियमों का एक जैसे निकाय का विस्तार हुआ है और परिणामत: विभिन्न भाषाओं के साहित्य का एक दिशा से दूसरी दिशा में अभिसरण संभव हो पाया है जैसे कि एक परिवार की भाषाओं का होता है। भारतीय साहित्य अनेकों भाषाओं में अभिव्यक्त भारत की सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और धार्मिक परिस्थितियों एवं तद्जनित परिणामों का वृहद कोष है। इन भाषाओं में रचित विपुल साहित्य के परस्पर आदान-प्रदान के लिए एक भाषिक उपकरण की आवश्यकता होती है। 'अनुवाद' ही वह उपकरण, औज़ार तथा माध्यम है जिससे भारतीय साहित्य की विपुल धरोहर और समकालीन रचनाशीलता को एक दूसरे के सम्मुख रखा जा सकता है। भारतीय साहित्य को एकभाषिक संप्रेषणीयता की स्थिति से अनुवाद के माध्यम से द्विभाषी अथवा बहुभाषी संप्रेषणीयता की स्थिति में लाया जा सकता है। 'अनुवाद' ही वह माध्यम है जो अंतरभाषिक साहित्यिक संवाद स्थापित करने में सक्षम है। साहित्य के दोनों रूपों पर जब चर्चा की जाती है तब सृजनशील साहित्य (गद्य और पद्य, आलोचनात्मक साहित्य) और ज्ञानात्मक साहित्य (समाज विज्ञान, मानविकी, विज्ञान, प्रबंधन, जनसंचार, व्यापार-वाणिज्य, विपणन, प्रौद्योगिकी आदि का साहित्य) का संदर्भ अनुवाद के दो वृहद क्षेत्रों को लेकर उपस्थित होता है। दोनों ही क्षेत्रों में अनुवाद की व्यापक संभावनाएँ निहित हैं। अनुवाद ही भाषिक विभिन्नता और अलगाव को दूर करने की क्षमता रखती है।

भारतीय भाषाओं में रचित साहित्य के अक्षय भंडार के अंतरभाषिक रूपान्तरण के लिए अनुवाद की प्रक्रिया ही एक मात्र उपाय है। 'अनुवाद' के द्वारा ही विभिन्न भाषाओं के मध्य मौजूद संप्रेषण के गतिरोध को तोड़ा या मिटाया जा सकता है। इस दृष्टि से अनुवाद एक अपरिहार्य उपकरण है जिससे भारतीय साहित्य में वर्णित विषय वस्तु और उसके भाव सौंदर्य का आस्वादन किया जा सकता है।

स्रोतभाषा की पाठ - सामग्री को लक्ष्यभाषा की समानान्तर पाठ सामग्री से प्रतिस्थापन ही अनुवाद है (कैटफर्ड)। अनुवाद के प्रकारों में साहित्यिक अनुवाद का विशेष स्थान है। इस वर्ग के अनुवाद के अंतर्गत साहित्यिक पाठ का स्रोतभाषा से लक्ष्यभाषा में भाषिक रूपान्तरण किया जाता है। अनुवाद में लक्ष्यभाषा के पाठ के अर्थ की प्रधानता महत्वपूर्ण है।

अनुवाद प्रक्रिया में अर्थ प्राण तत्व है। अनुवाद की समूची प्रक्रिया अनूद्य एवं अनूदित पाठ के अर्थ-सामीप्य को सार्थक बनाने की है। इसीलिए अनूद्य पाठ के अर्थ की तुलना अनूदित पाठ के अर्थ से की जाती है। अनुवाद में अनूद्य (स्रोत भाषा पाठ) और अनूदित(लक्ष्य भाषा) पाठ के अर्थ में सामंजस्य और निकटता अनिवार्य है। अनूदित पाठ में मूल पाठ से अर्थ विचलन, अर्थ संकोच और अर्थ विस्तार स्वीकार्य नहीं होता, अर्थात अनूदित पाठ में मूल पाठ का ही अर्थ ध्वनित होना चाहिए। साहित्यिक अनुवाद की समस्याएँ साहित्येतर अनुवाद की समस्याओं से अनेक अर्थों में भिन्न होती हैं। भारतीय साहित्य के अनुवाद का अर्थ, भारत की विभिन्न भाषाओं में रचित साहित्य के सभी विधाओं के पाठ का अनुवाद है। यदि अनूदित पाठ में स्रोत भाषा के पाठ का अर्थ अक्षुण्ण हो और यदि प्रभाव की दृष्टि से वह मूल के निकट तथा अनुरूप हो तो अनूदित पाठ भी मौलिक पाठ की ही तरह पाठकों को आकर्षित करेगा। रवीन्द्रनाथ ठाकुर को उन्हीं के द्वारा बांग्ला से अंग्रेज़ी में अनूदित 'गीतांजलि' के पाठ के लिए 'नोबल पुरस्कार' (1913) प्राप्त हुआ था। अनुवाद की शक्ति अपरिमेय और अजेय होती है। भारतीय साहित्य में कुछ कालजयी कृतियों के अनूदित संस्करण मूल कृति का विश्वास दिलाती हैं। जैसे शरतचंद्र कृत देवदास, चरित्रहीन और श्रीकांत, बिराजबहू, बंकिमचन्द्र का आनंदमठ, रवीन्द्रनाथ ठाकुर का गोरा और महाश्वेता देवी कृत जंगल के दावेदार आदि कृतियों के अनूदित पाठ प्रामाणिक अनुवाद के उदाहरण हैं।

भारतीय साहित्य के अनुवाद की आवश्यकता :

  1. सांस्कृतिक चेतना को जागृत करने के लिए
  2. देश में सांस्कृतिक एकता का प्रचार करने के लिए
  3. राष्ट्रीय चेतना जागृत करने के लिए
  4. देशवासियों में विभिन्न प्रान्तों और भाषाओं के प्रति सजगता तथा संवेदना उत्पन्न करने के लिए
  5. विभिन्न भाषा समुदायों के मध्य भावनात्मक एकता विकसित करने के लिए
  6. सांस्कृतिक आदान-प्रदान के लिए
  7. विभिन्न प्रदेशों के सामाजिक संस्कार एवं लोक संस्कृति के ज्ञान के लिए
  8. भारतीय साहित्य में निहित मूलभूत एकता के तत्वों से अवगत कराने के लिए
  9. भारतीय साहित्य में निहित गौरवशाली साहित्यिक परंपराओं को पुनर्जीवित करने के लिए
  10. वर्तमान संदर्भ में प्रांतीय विभेदों को दूर करने के लिए
  11. समाज के विभिन्न सामाजिक वर्गों में स्नेह, सौमस्य और सौहार्द्र के भाव को विकसित करने के लिए।

भाषा संस्कृति की वाहिका होती है। अनुवाद प्रक्रिया में स्रोतभाषा के साहित्य के सांस्कृतिक तत्वों का लक्ष्यभाषा में रूपांतरण होता है। इस तरह 'अनुवाद' सांस्कृतिक आदान-पदान की प्रक्रिया को सम्पन्न करती है। भारतीय साहित्य के अंतरभाषिक अनुवाद से देश में सांस्कृतिक आदान-प्रदान तथा सांस्कृतिक एकता के प्रचार को प्रभावी बनाया जा सकता है। भारतीय साहित्य में विभिन्न प्रान्तों की सामाजिकता और संस्कृति बोध के साथ साथ लोक संस्कृति भी व्यक्त होती है। अनुवाद के माध्यम से विभिन्न प्रान्तों की सामाजिक, आर्थिक स्थितियों के प्रति देश के अन्य क्षेत्रों के लोगों में विशेष संवेदना और भावनात्मक लगाव पैदा होता है। राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक बोध उत्पन्न करने के लिए भारतीय साहित्य का अनुवाद इस प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाने में सहायक सिद्ध होगा। देशवासियों में ह्रासोन्मुख राष्ट्रीय चेतना विकसित करने के लिए विभिन्न भाषाओं में रचित भारतीय साहित्य को अनुवाद द्वारा उपलब्ध कराना आवश्यक है। आज का युग विभेदों और विखंडन का युग है। सारा देश विषम सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों से गुज़र रहा है, ऐसे में इस विखंडन और विभेदीकरण की प्रक्रिया को अनुवाद के माध्यम से भारतीय साहित्य में अंतर्निहित मानवीय संवेदनाओं और मूल्यों के प्रति जागरूकता पैदा कर मानवीय गुणों को संवर्धित किया जा सकता है। अनुवाद के माध्यम से वर्तमान युवा पीढ़ी को भारतीय साहित्य की अनमोल धरोहर से परिचय कराया जा सकता है, जिसकी आज नितांत आवश्यकता है। भारतीय साहित्य के अंतर्गत संस्कृत से लेकर आधुनिक भारतीय भाषाओं में रचित साहित्यिक परंपराएँ सम्मिलित हैं। भारतीय साहित्य में प्राचीन से वर्तमान तक, वैदिक साहित्य से लेकर समकालीन साहित्य तक गद्य-पद्य की सभी विधाएँ सम्मिलित हैं। भारतीय समाज बहुभाषिक समाज है, किसी भी व्यक्ति के लिए सभी भाषाओं का ज्ञान दु:साध्य है इसीलिए विभिन्न भाषाओं में रचित साहित्य को अनुवाद के माध्यम से ही इतर भाषा में रचित साहित्य का आस्वादन किया जा सकता है। भारत में साहित्यिक अनुवाद की स्थिति संतोषजनक नहीं है। भारत में संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त बाईस भाषाओं के प्रयोक्ता मौजूद हैं, साथ ही अनेकों बोलियों और उपभाषाओं के प्रयोक्ता भी बड़ी संख्या में देश की जनसंख्या का हिस्सा हैं। भारतीय साहित्य अंग्रेज़ी, उर्दू और फारसी के साथ-साथ संविधान में उल्लिखित सभी भाषाओं में, साहित्य की सभी विधाओं में रचा जाता है। संस्कृत साहित्य और उसके बाद पालि, प्राकृत और अपभ्रंश का साहित्य भी भारतीय साहित्य की अमूल्य धरोहर के रूप में विद्यमान है। भारतीय भाषा समुदाय विस्तृत भौगोलिक सीमाओं में आवागमन करता है और सारा देश भारत की प्राचीन साहित्यिक संपदा से परिचित है। संस्कृत में रचित वेद, उपनिषद, आगम तथा ब्राह्मण ग्रंथ आदि अनुवाद के माध्यम से ही आज सारे भारत में हिंदी तथा इतर भारतीय भाषाओं में उपलब्ध हैं। इससे संस्कृत से अनभिज्ञ पाठक वर्ग इन अमूल्य साहित्यिक ग्रन्थों से ज्ञान प्राप्त कर रहा है। संस्कृत में रचित वैदिक साहित्य और साथ ही नाना पुराण निगमागम आदि महत्वपूर्ण ज्ञान के ग्रंथ अनुवाद के द्वारा ही जनसामान्य को उपलब्ध हो सके हैं। अनुवाद के बिना ज्ञान का अंतरण इस रूप में संभव नहीं होता। भारतीय साहित्य की अमूल्य धरोहर का अनुवाद विदेशी भाषाओं में भी हुआ है और विदेशी समाज भी प्राचीन भारतीय संस्कृत साहित्य के अनुवाद से लाभान्वित हो रहा है। भारत के वैभवपूर्ण सांस्कृतिक अतीत को विदेशी समाज अनुवाद के माध्यम से ही जान सका है।

मध्यकालीन भारतीय साहित्य का प्रचार और प्रसार अनुवाद द्वारा ही संभव हुआ है। भक्ति साहित्य और संत साहित्य जो कि विभिन्न क्षेत्रों में स्थानीय भाषाओं में रचा गया, अनुवाद के माध्यम से देश के कोने कोने में व्याप्त हुआ। भक्ति साहित्य का अधिकांश हिस्सा अलिखित अथवा जनश्रुति का साहित्य का है जिसकी परंपरा मौखिक है। इस प्रकार के साहित्य का प्रचार समूचे देश में विभिन्न भाषाओं में अनूदित पाठ के द्वारा ही संभव हो सका। उत्तर और दक्षिण, पूर्व और पश्चिम के संत एवं आचार्यों के द्वारा प्रतिपादित दार्शनिक सिद्धांतों का व्यापक प्रचार केवल अनूदित पाठ के माध्यम से ही विस्तृत रूप से संभव हुआ। इन सबमें वैचारिक समानता तो थी ही लेकिन भाषिक विभेद से परस्पर विचारों के आदान-प्रदान में कठिनाई थी। इसी गतिरोध को अनुवाद - प्रक्रिया के द्वारा सुलझा लिया गया । इस तरह कबीर, जायसी, सूर, तुलसी, मीरा आदि के पद मूल भाषा में रचित तथा गेय होने के साथ-साथ भारत की अन्य भाषाओं में भी उपलब्ध हुए और उतने ही लोकप्रिय हैं जितने कि मूल भाषा में। दक्षिण के अन्नमाचार्य, त्यागराय, पोतना, वेमना, आन्डाल, अक्क मादन्न, मोल्ल, अव्वैय्यार आदि के साथ आलवारों के संकीर्तन, तमिल संगम साहित्य आदि अनुवाद के माध्यम से अपनी गरिमा और महत्व को प्रतिपादित कर सके हैं। रामानुज, रामानन्द, वल्लभाचार्य, शंकराचार्य, मध्वाचार्य, निम्बार्काचार्य आदि दार्शनिक आचार्यों के संदेश और उनके सैद्धान्तिक विचार अनुवाद के माध्यम से सारे भारत में ग्राह्य बन पड़े हैं। उसी प्रकार उत्तर भारत के साधु-संत और महात्माओं के संदेश भी दक्षिण में अनुवाद के माध्यम से ही पहुँच पाए हैं। उपनिषद के विचार उत्तर से दक्षिण की ओर जाकर - शंकराचार्य और रामानुजाचार्य के द्वारा अद्वैतवाद तथा विशिष्टाद्वैतवाद के रूप में प्रकट होते हैं। इसी तरह भक्ति अनुवाद के माध्यम से दक्षिण से उत्तर की ओर यात्रा करती है। कश्मीर का शैव सिद्धान्त जाकर तमिल क्षेत्र में अपना स्थान बनाता है। गांधी जी का सत्य और अहिंसा को लेकर किए प्रयोग की अनुगूँज अनुवाद के माध्यम से ही देश के कोने-कोने तक पहुँचती है। रवीन्द्र की मनुष्य और प्रकृति में सौन्दर्य की खोज सारे भारत की खोज बन जाती है। फकीरमोहन सेनापति के द्वारा उपन्यासों में सर्वप्रथम प्रसारित सामाजिक यथार्थ प्रेमचंद के द्वारा प्रयुक्त होकर सर्वभारतीय स्थान ग्रहण कर लेता है। दलित साहित्य गुजरात, महाराष्ट्र से कर्नाटक होते हुए हिंदी क्षेत्र में प्रवेश कर जाता है। इस तरह कृति और उनके लेखक एक वृहत् साहित्यिक परंपरा का हिस्सा बन जाते हैं और तब उनका भाषिक अस्तित्व राष्ट्रीयता की संवेदना के प्रसारण में बाधा नहीं बनता।

साहित्यिक के शैलीगत अनुवाद के प्रकारों में भावानुवाद, सारानुवाद, शब्दानुवाद आदि प्रमुख हैं। पद्य पाठ का सरल सारानुवाद गद्य में रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। भारतीय साहित्य के अनुवाद में सारानुवाद की प्रमुखता अधिक है। कालिदास, बाण, भास, आदि संस्कृत कवियों के महाकाव्यों और पद्य नाटकों का गद्यानुवाद तथा सारानुवाद मौलिक रचना के सारांश को सरलता पूर्वक समझने में अत्यंत उपयोगी रहा है। शेक्सपियर के नाटक जो कि सारे पद्य शैली में ही रचे गए, उनका गद्य के रूप में सारानुवाद पाठकों को शेक्सपियर के नाटकों का आस्वादन करने में उपयोगी सिद्ध हुए हैं। भारतीय साहित्य के अमूल्य धरोहर, संस्कृत में रचित रामायण और महाभारत महाकाव्यों को अधिकांश पाठक अनुवाद के माध्यम से सभी भारतीय भाषाओं में पढ़कर लाभान्वित हो रहे हैं। भगवद्गीता का मूल पाठ संस्कृत में है लेकिन संस्कृत से अनभिज्ञ पाठक अन्य भाषाओं में अनूदित पाठ पढ़कर गीता के संदेशों का सार समझकर जीवन में उनका आचरण कर रहे हैं। पद्य का अनुवाद मौलिक कृति के अनुरूप छंदबद्ध और छंदमुक्त दोनों तरह से किया जाता है।

भारतीय साहित्य की प्राचीन धरोहर अनुवाद से ही आज जीवंत है तथा समाज में भारतीय मूल्यों एवं संस्कृति के प्रति नवचेतना जागृत करने में सफल हुई है।

आधुनिक भारतीय भाषाओं में रचित पद्य साहित्य जिसमें काव्य और महाकाव्य प्रमुख हैं, इनके अनूदित पाठ भारत के इतर भाषा समुदायों के लिए महत्वपूर्ण हैं। उदाहरण के लिए हिंदी में रचित प्रियप्रवास, वैदेही वनवास, कामायनी, साकेत, उर्वशी और कुरुक्षेत्र आदि महाकाव्य भारतीय भाषाओं में अनूदित हुए हैं। इस प्रकार भारतीय साहित्य की प्रमुख कृतियों रूपान्तरण इतर भाषा में उपलब्ध कराने से भारत की सांस्कृतिक अस्मिता की समरूपता का ज्ञान देशवासियों को होगा। गद्य के क्षेत्र में कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, जीवनी, आत्मकथा, निबंध आदि साहित्यिक विधाओं का अंतरभाषिक अनुवाद भारतीय साहित्य में निहित सामाजिकता को दर्शाने के लिए सहायक हुआ है। भारत की राष्ट्र भाषा और राजभाषा हिंदी है, साथ ही हिंदी क्योंकि सर्वाधिक समझी तथा बोली जाती है, इसलिए हिंदी से ही सर्वाधिक साहित्य का अनुवाद इतर भाषाओं में हुआ है। उसी प्रकार अन्य भारतीय भाषाओं से हिंदी में सर्वाधिक साहित्यिक कृतियों का अनुवाद हुआ है और यह प्रक्रिया जारी है। भारतीय साहित्य के अनुवाद की एक प्रमुख समस्या अंतरभाषिक अनुवाद की है अर्थात हिंदी के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं का साहित्य परस्पर अनूदित नहीं हो पा रहा है। इस तरह के अनुवाद की आज भारतीय समाज को आवश्यकता है। उदाहराणार्थ, हिंदी के कथाकारों में प्रेमचंद - साहित्य का अनुवाद भारत की लगभग सभी भाषाओं में उपलब्ध है। बंगाली के बंकिमचंद्र और शरतचंद्र का कथा साहित्य भी हिंदी एवं अनेक भारतीय भाषाओं में उपलब्ध है। इसी तरह बंगाली के अनेक बड़े और लोकप्रिय लेखकों की रचनाएँ पद्य और गद्य दोनों विधाओं में हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित हुई हैं। हिंदी का पाठक वर्ग अतिविशाल होने के कारण इनकी ख्याति सर्वत्र व्याप्त है। बांग्ला साहित्य की लोकप्रियता और महत्व अनुवाद के ही कारण राष्ट्रव्यापी हो सका है। क्षेत्रीय भाषाओं की मूल रचनाओं की पठनीयता उस भाषा समुदाय के आकार पर निर्भर करती है इसीलिए हिंदी का पाठक समुदाय अति विशाल होने से भारतीय साहित्य की खपत भी हिंदी पाठक वर्ग में ही अधिक है। यह भी एक महत्वपूर्ण कारण है कि आज क्षेत्रीय भाषाओं में रचित साहित्य पहले हिंदी में उपलब्ध होता है। साहित्य अकादमी पुरस्कृत हिंदेतर कृतियों का अनुवाद हिंदी में तथा हिंदी की रचनाओं का सभी भारतीय भाषाओं में करवाती है।

इधर भारतीय अंग्रेज़ी रचनाकारों के द्वारा लिखित अंग्रेज़ी साहित्य बहुत लोकप्रिय हुआ है और भारतीय साहित्य में भारतीय अंग्रेज़ी लेखकों की बाढ़ सी आ गई है। चेतन भगत, अनीता देसाई, अरुंधती राय, आमिश आदि नई पीढ़ी के युवा लेखकों के उपन्यास लाखों की संख्या में पढ़े जा रहे हैं और इनके हिंदी अनुवाद भी लोकप्रिय हो रहे हैं।

भारतीय साहित्य के अनुवाद की समस्याएँ -

  1. भारतीय साहित्य के अनुवाद के लिए संगठित संस्थाओं का सरकारी और
  2. गैरसरकारी स्तर पर अभाव है। केवल साहित्य अकादमी सरकारी स्तर पर यह कार्य सीमित दायरे में कर पा रही है। भारतीय साहित्य की व्यापक बहुभाषिक स्वरूप के अनुरूप अनुवाद के प्रयास अत्यल्प और अपर्याप्त है।
  3. भारत में स्वैच्छिक रूप से अनुवाद कार्य नहीं किया जाता है। कुछ ही अनुवादक आत्मतुष्टि के लिए अपनी अभिरुचि के अनुसार भारतीय साहित्य के अनुवाद में रुचि रखते हैं।
  4. भारत में साहित्यिक अनुवाद को पर्याप्त प्रोत्साहन प्राप्त नहीं है। सरकारी और गैरसरकारी दोनों स्तरों पर साहित्यिक अनुवाद कार्य को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता और इसे व्यवसाय (प्रोफेशन) के रूप में भारत में इसे मान्यता प्राप्त नहीं है।
  5. इधर कुछ प्रकाशकों द्वारा व्यापारिक दृष्टि से चुनिन्दा भारतीय साहित्य की कृतियों का अनुवाद करवाया जा रहा है लेकिन यह अपर्याप्त है। इसका उद्देश्य केवल व्यापारिक है न कि भारतीय साहित्य का संवर्धन अथवा भारतीय सांस्कृतिक चेतना जागृत करना है।
  6. भारतीय साहित्य के अनूदित पाठ के प्रति जनसामान्य में अभिरुचि का अभाव।
  7. भारतीय साहित्य के प्रति उदासीनता का भाव।
  8. भारतीय साहित्य की संकल्पना अस्पष्ट है और अभी पूरी तरह से जनसामान्य में इसकी स्पष्ट छवि स्थापित नहीं हो पाई है।

भारत की भाषाओं के दो अस्तित्व हैं। पहला भाषिक और दूसरा सांस्कृतिक, जो भाषा को अतिक्रमित कर प्रकट होता है। यही कारण है कि फारसी और अंग्रेज़ी भाषाएँ भारतीय नहीं होने पर भी इन भाषाओं में रचित साहित्य को भारतीय साहित्य में स्थान मिलता है। भारतीय साहित्य भारतीय जनता की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति का इतिहास है। उनकी साहित्यिक परंपराओं, परिवर्तन और परिणति, उत्थान और पतन तथा पुनरुत्थान का इतिहास है।

भारतीय साहित्य की मूलभूत संकल्पना को साकार बनाने के लिए अंतरभाषिक अनुवाद प्रक्रिया को प्रभावी बनाना होगा। भारतीय जनमानस में राष्ट्रीय चेतना और सांस्कृतिक समन्वय का प्रचार करने के लिए भारतीय साहित्य को ही अनुवाद के माध्यम से सक्रिय करना होगा। भारतीय साहित्य जो कि भारत की सभी भाषाओं में रचित साहित्य का समुच्चय है, एक सम्मिलित स्वरूप है, इसे प्रत्येक भारतवासी को आत्मसात् करना होगा। भारतीय साहित्य किसी एक भाषा में रचित साहित्य की संज्ञा नहीं है बल्कि यह एक समावेशी और समेकित वृहत्तर साहित्य रूप है जो कि समूचे भारत की अस्मिता को अपने भीतर समेटे हुए है। भारतीय साहित्य की मूलभूत एकता अनुवाद के माध्यम से ही साध्य है।

संदर्भ :

1 पृ 99 तुलनात्मक साहित्य : भारतीय परिप्रेक्ष्य - इन्द्रनाथ चौधुरी
2 पृ 104 तुलनात्मक साहित्य : भारतीय परिप्रेक्ष्य - इन्द्रनाथ चौधुरी

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