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भारतीय संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में नाट्यशास्त्र प्रतिपादित वस्त्राभूषण

भारतीय संस्कृति में जब-जब नारी अलंकरण की चर्चा होगी तब-तब सर्वप्रथम षोडश शृंगारों पर दृष्टि अवश्य जायेगी। वह षोडश शृंगार - उबटन, मंजन, मिस्सी, स्नान, केश विन्यास, अंजन, सिन्दूर, महावर, बिन्दी, तिलनिर्माण, मेंहदी, सुगन्धि, ताम्बूल, पुष्पमाला, सुवस्त्र और आाभूषण हैं।

आदौ मज्जनचीरचारुतिलकं, नेत्रांजनं कुण्डलम्।
नासामौक्तिकहारकेशकुसुमं, सिन्दूरवस्त्रं परम्॥
देहे चन्दनलेपकंचुकमणि, क्षुद्रावलिघण्टिका।
एतत्ते करकंकणं यवनिका, शृंगारकाः षोडशाः॥

इन षोडश शृंगारों में वस्त्राभूषणों का प्रयोग भारतीय संस्कृति का वह पक्ष है जहाँ नारी समाज में जातिगत, धर्मगत क्षेत्रगत भेद दृष्टिगोचर होता है। इसमें यह ध्यान रखना आवश्यक है कि यहाँ आभूषण रूपी अलंकरण का प्रयोग सौन्दर्य की अभिवृद्धि हेतु मुख्य रूप से होता है। वही वस्त्रों के प्रयोग का मूल प्रयोजन विभिन्न षड् ऋतुओं के विपरीत प्रभाव से शरीर की रक्षा करना होता है।

प्रत्येक युग के सभ्यता और संस्कृति के आभूषणों की कुछ नैसर्गिक विशेषताएँ होती हैं, जिससे उसके धारण करने के प्रकार और उसके नामों में विभिन्नता पाई जाती है। वस्त्रांलकरणों के प्रयोग में स्त्री-पुरुष व ऊँच-नीच जैसी भेद्यक रेखा नहीं दिखायी देती है, क्योंकि सभी वर्ग या जाति के लोग किसी न किसी प्रकार के वस्त्रालंकारों से स्वयं को अलंकृत करते ही हैं।

आनन्द के स्रोत के रूप में सौन्दर्य की भूमिका को पहचान कर ही मनुष्य अपने परिवेश के साथ ही स्वयं को भी सुन्दर बनाने के प्रति सजग रहा है और साथ ही स्वयं को सुन्दर व आकर्षक दिखने हेतु विभिन्न प्रकार के वस्त्रों एवं आभूषणों का प्रयोग करने लगा।

स्त्रियों का आभूषणों एवं सुसज्जित वस्त्रों के प्रति लगाव सर्वविदित है। कविता और वनिता (स्त्री) दोनों में शोभावर्धन में अलंकारों का महत्व बताते हुए ब्रजभाषा के रीतिकालीन कवित केशवदास का प्रसिद्ध कथन है-

"भूषण बिन न विराजई कविता वनिता मित्त।"

साथ ही भामहकृत काव्यालंकार में स्त्रियों के आभूषणों के महत्व को बताते हुए कहा गया है-

"न कान्तमपि निर्भूषं विभाति वनितामुखम्।"

भरतमुनि ने भी नाट्यशास्त्र के आहार्याभिनय के अन्तर्गत स्त्रियों द्वारा प्रयोग में लाये जाने वाले आभूषणों को चार वर्गों में यथा-आवेध्यः बधनीय प्रक्षेव्य आरोप्य में विभाजित किया है-

चतुर्विधं तु विज्ञेयं नाट्ये ह्याभरणं बुधैः।
आवेध्यं बन्धनीयं च क्षेप्यमारोप्यमेव च॥
आवेध्यं कुण्डलादीह यत्स्यात् श्रवणभूषणम्।
आरोप्यं हेमसूत्रादिहाराश्च विविधाश्रयाः॥
श्रोणीसूत्रांगदामुक्ता बन्धनीयानिसर्वदा।
प्रक्षेप्यं नूपुरं विद्याद्वस्त्राभरणमेव च।

(ना. शा. 21/श्लोक 12-14)

नाट्यशास्त्र के अनुसार स्त्रियों के आभूषण इस प्रकार है।

शिरोभूषण-

शिखापाशं शिखाव्यालः पिण्डीपत्रं तथैव च।
चूड़ामणिर्मकरिका मुक्ताजालगवाक्षिकम्॥
शिरसो भूषणं चैव विचित्रं शीर्षजालकम्।
कण्डकं शिखिपत्रं च वेणीपुच्छः सदोरकः॥
ललाटतिलकं चैव नानाशिल्पप्रयोजितम्।
भ्रूगुच्छोपरिगुच्छश्च कुसुमानुकृतिस्तथा॥

(ना. शा. 21/श्लोक 22-24)

भरतमुनि ने शिक्षापाश, शिखाव्याल, पिण्डीपत्र, चूड़ामणि, मकरिका, मुक्ताजाल गवाक्ष एवं विभिन्न प्रकार के शीर्षजाल को शिरोभूषण के रूप में निर्देशित किया है।

कर्णाभूषण-

कर्णिका कर्णावलयं तथा स्यात्पत्रकर्णिका।
कुण्डलं कर्णमुद्रा च कर्णोत्कीलकमेव च॥
नानारत्नविचित्राणि दन्तपत्राणि चैव ही।
कर्णयोर्भूषणं ह्येतत्कर्णपूरस्तथैव च॥

-(ना. शा. 21/श्लोक 25-26)

कण्डक, कर्णोत्कीलक विभिन्न रत्नों में निर्मित दन्तपत्र एवं कर्णफूल को कर्णाभूषण के रूप में बताया है।

गण्डविभूषण-

भरतमुनि ने स्त्रियों के गण्ड (कपोल) हेतु तिलकं एवं पत्र लेखा नामक अंलकार को बताया है। सुभाषितरत्नभाण्डागार में इसके सन्दर्भ में कहा गया है -

आबध्नन्परिवेषमण्डलमलं वक्रेन्दुबिम्बाद्बहिः।
कुर्वत्पंकजजृम्भमाणकलिकाकर्णावतंसक्रियाम्॥
तन्वंग्याः परिनृत्यतीव हसतीवोत्सर्पतीवोल्बणम्।
लावण्यं ललतीव कांचनशिलाकान्ते कपोलस्थले॥

नेत्र व अधर के आभूषण-

"काजल" को नेत्रों का आभूषण समझना चाहिए तथा ’रंग’ (रंजन) को अधरों (होठों) का आभूषण समझना चाहिए (रंजन - वर्तमान लिपस्टिक) है।

कण्ठाभूषण-

मुक्तावली व्यालपंक्तिर्मंजरी रत्नमालिका।
रत्नावलीसूत्रकं च ज्ञेयं कण्ठविभूषणम्।
द्विसरस्त्रिसरश्चैव चतुस्सरकमेव च।
तथा शृंखलिका चैव भवेत्कण्ठविभूषणम॥

- (ना. शा., 21/31-33)

आचार्य भरत ने स्त्रियों के कण्ठ हेतु मुक्तावली, व्यालपंक्ति, मंजरी, रत्नमालिका, सूत्रक, शृंखलिक (चेन) आदि आभूषणों को निर्देशित किया है।

भुजाओं के आभूषण-

अंगदं वलयं चैव बाहुमूलविभूषणम्। -(ना. शा., 21/33)

भरतमुनि ने भुजाओं के लिए अंगद् तथा बलय बाहुमूल, वर्तमान में इसका प्रयोग बाजूबंद नाम से जाना जाता है।

वक्षस्थल एवं स्तनों के आभूषण-

ना शिल्पकृतापश्चैव हारा वक्षोविभूषणम्।
मणिजालावनद्धं च भवेत् स्तनविभूषणम्॥

-(ना. शा. 21/श्लोक 34)

कटि आभूषण-

मुक्ताजलाढ्यतिलकं मेखला कांचिकापि वा।
रशना च कलापश्च भवेच्छ्रोणी विभूषणम्॥
एकयष्टिर्भवेत्कांचीमेखला त्वष्टयष्टिका।
द्विरष्टयष्टी रशना कलापः पंचविशकः॥

-(ना. शा. 21/श्लोक 06-38)

वर्तमान में कलाप रशना कांची आदि करधनी के नाम से है।

पादाभूषण-

नुपूरः किंकिणीकाश्च घण्टिका रत्नजालकम्।
सघोषे कण्टके चैव गुल्फोपरिविभूषण्॥
जंघयोः पादपत्रं स्यादंगुलीष्वंगुलीयकम्।
अंगुष्ठतिलकश्चैव पादयोश्च विभूषणम्॥
तथालक्तकरागश्च नानाभक्तिनिवेशितः।
अशोकपल्लवच्छायः स्यात् स्वाभाविक एव च॥

-(ना. शा. 21/श्लोक 39-42)

आचार्य भरत ने स्त्रियों के गुल्फ (पैर का टखना) के आभूषण के रूप में नूपुर, किंकीणी रत्नजाल घण्टिका, सघोषे (वलय) या कड़ा, जो खोखला आभूषण होता है का वर्णन किया है।

इस प्रकार हम कह सकते है कि आभूषण स्त्रियों के सौन्दर्य वृद्धि के साथ-साथ किसी भी देश की संस्कृति, परिस्थिति, सामाजिक, स्थिति, आर्थिक स्थिति, देशकाल आदि को चिन्हित करने का एक सबल माध्यम है, जैसे- संस्कृत साहित्य में उर्वशी अप्सरा पात्र हेतु रत्नों से जड़ित आभूषणों का प्रयोग एवं ऋषि कन्या शकुन्तला आदि पात्र हेतु फूलों के आभूषणों आदि का प्रयोग वर्णित है।

रामकेश्वर तिवारी
वरिष्ठ अनुसन्धाता (व्याकरण विभाग)
संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी

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