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भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर - बिटिया है विशेष

"आसमां छूने की है आस, गर मिल जाए थोड़ा-सा विश्वास" माँगती बेटियों के लिए विश्वास, संस्कार और रीति-रिवाजों के बीच पली-बढ़ी, पढ़ी-लिखी संस्कारित लेखिका मृदुला सिन्हा के शब्द अनुभव के व्यापक संसार का साधारणीकरण करते हैं। जीवन के चतुष्वर्ग धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष एवं जीवन के चतुश्चरण ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम एवं संन्यास आश्रम के साथ भारतीय जीवन दृष्टि, संस्कार, भारतीय जीवन दर्शन की स्थापना करते हैं। धरती से लेकर अंतरिक्ष तक का विस्तार, इसके बीच करोड़ों बेटियाँ, जिनके संस्कारों से सम्पूर्ण मानवता को संस्कारित होना है। भारत और भारतीयता को चतुर्दिक अपनी ख़ुशबू विस्तारित करनी है। जिसकी मूलाधार हैं बेटियाँ। "स्वागत" पत्रिका में "परदेश गई पुत्री के नाम" शीर्षक से प्रकाशित 25 शोध आलेख बेटियों के संस्कार के 25 मील के पत्थर हैं। "पुत्री मिली” को उसके पच्चीसवें जन्म दिवस पर पत्रात्मक शैली में लिखित आलेख भारतीय संस्कारों का निकष है। "सदा ख़ुश रहो! आज तुम्हारा जन्मदिन है। तुम आज पच्चीस वर्ष की हो गई। पर अभी मुझसे बहुत दूर-सात समन्दर पार, विदेश में हो। तुम्हारे जन्म की स्मृतियाँ सजीव हो आई हैं"1 बेटियाँ भारत वर्ष भरतखण्ड की मज़बूत मारत की नींव हैं। बेटियों का संस्कार, पीढ़ियों का संस्कार है, नये भारत के निर्माण की प्रक्रिया है। सृजन की अनंत संभावनाओं को गति देना है। बेटियों पर भारतीयता नाज़ करती रही है। "नेहरू का इंदिरा के नाम पत्र" बेटी इंदु, इंदिरा में राजनीतिक संस्कारों के बीज का अंकुरण है। यह पत्र इंदु के राजनैतिक संस्कारों को पुष्ट करता है। "बिटिया है विशेष" मृदुला सिन्हा का सात समुन्दर पार न्यूयार्क के इथका शहर की धरती पर पुत्री "मिली" के जन्मदिन पर मिली को लिखा पत्र वैश्विक पटल पर भारतीय संस्कारों की स्थापना है। मातृत्व का यह विस्तार, लेखिका की चिंता के दायरे में मिली और मिली जैसी करोड़ों बेटियाँ हैं। जिनके जीवन को भारतीय संस्कारों से पुष्ट करना है। यह मातृत्व है, संस्कार है, माँ की चिंता भी है, जन्मदिन के अवसर पर साथ न रहने का मलाल भी है। इन सब के साथ ही साथ मिली के जन्मदिन पर माँ द्वारा दिया गया सर्वोत्तम उपहार भी है। यही लेखिका के सरोकार भी हैं। जो जीवंत है, जीवन जीने का संबल है। आकाश दीप है।

बिटिया मिली को विदेश पढ़ने के लिए भेजना भी सोद्देश्य है, मृदुला जी का विश्वास है की मिली विदेश में भारतीय पारिवारिक-सामाजिक जीवन की सुगंध फैलाएगी। दीप से दीप जले जैसे जीवन मूल्यों में विश्वास करने वाली भारतीय संस्कृति में दीप के महत्व, जीवन की सार्थकता, पूर्णता का अहसास है। "हमारी संस्कृति में दिया जलाकर बुझाते नहीं। हम तो पूर्व जन्म के संस्कार में भी विश्वास करते हैं। फिर इस जन्म के बीते वर्षों को क्यों बुझा दें। दीप का बुझना अपशगुन होता है।"2 यह सनतान व्यवस्था मनुष्य के संस्कारित होने से जुडी है। विशुद्ध वैज्ञानिक दृष्टि है, शक्ति के स्रोत का संचय। हमारे जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने वाले आविष्कारों में अग्नि, चक्का और लिपि है। अग्नि सम्पूर्ण सृष्टि में साक्षात प्रत्यक्ष देव है। अग्नि का संचय ऊर्जा के स्रोत का संचय है। जीवन ऊर्जामय है, इसमें संचय की शक्ति है। शक्ति का क्षय अज्ञानता, दुर्दशा, और रुग्णता को आमंत्रित करता है। मृदुला जी पुत्री मिली के जन्मदिन के अवसर पर दिया जलाती थीं, मिली के मित्रों को मिठाई के साथ केक भी खिलाती थीं। पर दिया नहीं बुझाती थीं। यह बात समय के साथ मिली के मित्रों को भी समझ में आ गयी। मिली की ज़िद के बाद की केक काटने के बाद कैंडिल बुझा दिया जाता है। उन्होंने ऐसा नहीं किया। कैंडिल का बुझना पश्चिमी सोच में जीवन के व्यतीत होने को व्यक्त करती है किन्तु भारतीय दृष्टि में तो जीवन ने अनुभव का एक और साल संचित किया। यही सोच संस्कारों के बीज हैं जिनकी छाँव तले जीवन विस्तार लेता है। "ऐसे ही विस्तार लेकर जीवित रहती है हमारी संस्कृति। हमारा दायित्व है कि हम अपने बच्चों में रीति-रिवाजों प्रति सम्मान, भावबीज डालते रहें, उनके पीछे के सही आशय बताते रहें "तुम्हारी पीढ़ी की लड़कियों में अपने रीति-रिवाजों संस्कारों के आशय समझने की ललक जगी है। सार्थक चिन्ह हैं तभी तो हज़ारों वर्षो से संस्कृति अक्षुण्ण है।"3 पुत्री मिली के पच्चीसवें जन्मदिन का पत्र जीवन के पच्चीस चरणों संस्कारों को व्यवहार की कसौटी पर संस्कारित करता चलता है। भाई-बहन से जुड़े रक्षाबंधन पर्व के महत्व को रेखांकित करते हुए लेखिका के शब्द "अपने जीवन के पहले रक्षाबंधन में दस महीने की थी। तुम्हारे भाइयों की ख़ुशी का ठिकाना न था। पहली बार उनकी कलाइयों पर अपनी बहन द्वारा राखी बाँधी जानी थी।"4 बिटियाँ के जन्म, परिवार की चाहत, बेटी के जन्म के साथ परिवार की पूर्णता, रक्षाबंधन, परिवार की ख़ुशी आदि भावों के साथ "बिटिया है विशेष” भारतीय संस्कृति और भारतीयता का जीवंत दस्तावेजीकरण है। जिसके आईने में भारतीय जीवन पद्धति और संस्कारों के बीज के अंकुरण और प्रस्फुटन की गझिन ख़ुशबू के बीच पलती, बढ़ती युवा पीढ़ी को दिशा देने का सार्थक प्रयास है। लेखिका के सरोकार करोड़ों जवान होती बेटियों से है, जिनके साथ संवाद का माध्यम पुत्री "मिली” बनती है। ममत्व और संस्कार की भागीरथी बिटिया को जीवन की खुरदरी ज़मीन से अवगत कराती है तो दूसरी ओर जीवन संघर्ष की चुनौतियों पर धैर्य, संयम के साथ अधिकार और अस्तित्व का बोध कराती है। बिटिया होना विशेष होना है, विशेष संस्कारों से संस्कारित होना है। विशेष 'मिली' को लिखे पत्रों की पड़ताल में इतना कुछ बिखरा पड़ा है कि पीढ़ियाँ इस आकाश दीप से संज्ञान ले सकती है। पत्र प्रायः सच को अपने में समेटे रहते हैं जो समय के साथ-साथ जवान होता है। जिसमें जीवन की लय-तान सतत ऊर्जा लेती, गुनगुनाती रहती है। दर्द भी पत्र के साँचे में ढलकर जीवन के लिए उर्वर ज़मीन तैयार करता है। करोड़ों बेटियों की चिंता, समय की गति पर दृष्टि, जीवन में उड़न की आकांक्षा के बीच कहीं न कहीं जीवन के संरक्षण की प्रक्रिया है।

भारतीय संस्कृति और संस्कारों से संस्कारित समाज प्रगति के राजमार्ग पर दीर्घकाल तक गति कर सकता है। यही सरोकार पत्रों के रूप में बिटिया को विशेष मानते हुए सामाजिक मान्यता दिलाने की जद्दोजहद करते हैं तो दूसरी तरफ परम्पराओं रीतिरिवाजों को ढकोसला, दिखावा, अंध विश्वास घोषित करती तथाकथित युवा पीढ़ी को विरासत से परिचित कराते हैं। "पत्रों में लिखे भाव मात्र एक पीढ़ी के लिए नहीं है। हमारे रीति-रिवाज व परम्पराएं, शास्त्रीय संदेशों एवं जीवन जीने की कला को अपने अंदर समेटे हैं। परन्तु दुःख की बात है कि नई पीढ़ी उन लोक-परम्पराओं से दूर हो रही है। वे बड़े शहरों या विदेशों में जा रही है। मुझे चिंता है कि उन महत्वपूर्ण लोक-व्यवहारों और जीवनदायिनी परम्पराओं से हमारी नई पीढ़ी वंचित न हो जाए। इस लिए इन पत्रों को प्रकाशित करना आवश्यक लगा। बेटियों को विशेष मानने की स्वीकृति समाज से भी लेनी है।"5

"चिठ्ठियों का चिठ्ठा" विरासत की थाती है, जिसे संजो कर भावी पीढ़ी को देने के साथ इत्तला करना कि इसी संस्कारों के छाँव तले सुखमय जीवन जीया जा सकता है। भौतिकता की आँधी में मानवीय संवेदना को धार देने की ज़रूरत है। लेखिका से मिली के प्रश्न हज़ारों सवाल खड़े कर जाते हैं तो दूसरी तरफ भारतीय स्त्री और बेटी से जुड़े संदर्भों को खोल जाते हैं। "माँ! तुम मेरी सहेलियों की माँ की तरह क्यों नहीं हँसती। दुःखी क्यों रहती हो?”6 मिली मृदुला जी से मिली का प्रश्न करना प्रश्न भर नहीं है बल्कि नारी की कोमल भावना और पुत्री से जुड़ाव है। "नहीं! मैं खूब हँसती हूँ। तुमने कहा -अच्छा सुनो! तुम भैया के लिए रोती हो न! मैं कहती हूँ भैया ठीक हो जायेगा।"7 शब्दों में ममत्व का जादू है। जीवन और व्यवहार का अनजाने संस्कारों के साँचे में ढलना है। सामाजिक और सांस्कृतिक सरोकार मुखर हैं। बिटियाँ का संस्कार भारतीयता का श्रृंगार है, महादेवी वर्मा के शब्दों में - "पुरुष आवारा हो रहा है तो होने दो। बेटियों को सँभाल लो। समाज का भविष्य सँभल जाएगा। पीढ़ियाँ संभलेंगी।”8 बेटियों की चिंता, संस्कार, परिवार और शिक्षा व्यवस्था के बीच भविष्य के भारत निर्माण की संकल्पना है। विरासत को संजो कर रखने का सार्थक प्रयास है। यहाँ एक अरब पैतीस करोड़ की जनसंख्या वाले देश को भारतीय मनीषा के चिंतन से परिचित कराना है। स्त्री निर्माण समाज निर्माण है। लेखिका का सरोकार मिली को लिखे पत्रों में देखा जा सकता है, मृदुला जी के शब्दों में - "मेरी बेटी की उम्र की तो लाखों बेटियाँ हैं। उनकी भी बेटियाँ होंगी। क्यों न इन प्रकाशित करवाऊँ। वे लाखों भी पढ़ें, जिन्हें आसमां छूने की पड़ी है। बेशक वे आसमां छुएँ। पर पाँव ज़मीन पर रहने दें।”9 बेटियों को शक्ति प्रदान करने वाली दृष्टि ही स्त्री विमर्श का स्वस्थ्य और पुष्ट दृष्टिकोण है।

"बेटी को उपहार” में साइकिल न खरीदकर भी लेखिका परोक्ष रूप से पुत्री मिली को सर्वोत्तम संस्कार का उपहार देती है कि "मेरी बच्ची को यह महसूस होना चाहिए कि साइकिल भी बड़ी चीज़ है और यह भी कि ज़िंदगी में कोई भी चीज़ की चाहत तुरंत पूरी नहीं हो जाती।"10 यहाँ जीवन में वस्तु के महत्व एवं चाहतों पर लगाम कसी गई है। यहीं पर लेखिका ने कन्यादान एवं बेटियों पर विचार करते हुए कुँवर बेचैन की कविता "बेटियाँ ठंडी हवाएँ है” के हवाले से लिखती है "सच! बेटी की उपस्थिति एक ठंडी हवा का झोंका है। मन को शीतलता प्रदान करती है। कैसी अपूर्व संस्कृति है, इसलिए तो विष्णु समझकर दामाद की पूजा की जाती है। दोनों परिवारों के गुण दोष मिलाकर ही विवाह का संबंध निश्चित होना उत्तम रहता है।”11

संयुक्त परिवार एवं विवाह नाम की संस्था पर लेखिका का अटूट विश्वास है। विवाह के संदर्भ में स्पष्ट मत है कि विवाह मात्र लड़के और लड़की का नहीं होता बल्कि दो परिवारों के गुण-दोष का मिलना है। अतः दोनों परिवारों के संस्कारों का मिलना ज़रूरी है। रिश्तों की अहमियत और संस्कारों की मज़बूत ज़मीन पर सुखी और समर्थ जीवन जीया जा सकता है। "सास का सान्निध्य" में लिखती है "मानव जीवन को सुखी और समर्थ बंनाने में रिश्तों को मैं सहयोगी मानती हूँ। इसी आशय से सास को दूसरी माँ ही समझती हूँ। माँ से भी बढ़कर।"12 परिवार और परिवार नाम की संस्था का स्वस्थ होना जीवन का होना है। हर रिश्ते की अपनी तासीर होती है। अलग-अलग भाव होते हैं। अपने तकाजे होते हैं। उन रिश्तों से लोगों की अलग-अलग अपेक्षाएँ होती हैं। सोलह संस्कारों में विवाह संस्कार का विशेष अर्थ है। "विवाह का अर्थ होता है - विधि पूर्वक एक दूसरे को प्राप्त कर परस्पर दायित्व का निभाना"13 यह रिश्ता दो परिवारों को जोड़ता है। बेटी दोनों कुलों के बीच सेतु का काम करती है।

"विदाई के संदेश” में विवाह संस्कार और विवाह के महत्व पर विचार करती हैं। हमारे यहाँ विवाह जन्म-जन्मांतर का बंधन माना जाता है। "तुम्हारे विवाह संस्कार के तीन भाग थे - कन्यादान, लाजाहोम (लावा छींटाई) और सप्तपदी। तीनों रस्मों के अपने महत्व हैं। कन्यादान का संबंध तुम्हारे माता-पिता हमसे था। लाजाहोम संबंध भाई से और सप्तपदी का संबंध तुमसे था। ऐसा लगा जैसे हम लोग तुम्हारे विवाह के प्रस्तावक, भाई-बंधु अनुमोदक और तुम स्वयं सप्तपदी द्वारा इस संस्कार की समर्थक रही हो। तुम्हारे और वरुण के परिवार पक्ष के लोग साक्षी रहे हैं। विवाह मात्र दो लोगों के बीच का ही संबंध बल्कि दो कुलों के मिलने का संस्कार है। इस प्रकार विवाह को सामाजिक मान्यता मिलती है। सप्तपदी साथ जीवन की आवश्यकताओं के संदर्भ में संकल्प लिया जाता है। "सप्तपदी के साथ तुम दोनों ने मिलकर अन्न, वस्त्र आवास के लिए प्रथम पद, बल प्राप्ति के लिए दूसरा, धन व ज्ञान के लिए तीसरा, सुख प्राप्ति के लिए चौथा, संतान लिए पांचवां, ऋतुओं अनुकूल आचरण के लिए छठा और मित्रता के लिए सातवां पद रखा है। विवाह संस्कार में सप्तपदी का उद्देश्य जीवन में आने वाले सुख-दुःख में साथ रहने का संकल्प है। "स्त्री जीवन दूब के जीवन जैसा है। उखाड़कर फ़ेंक दी गई सूखी दूब कहीं भी मिटटी संसर्ग पाकर लहलहा जाती है। लहलहाती रहना मेरी बेटी पति की जीवन संगिनी बनकर मानव जीवन को सार्थक करने प्रयास करती रहना। मेरी लाड़ली! आओ तुम्हें डोली में बैठा दूँ। रिक्त हृदय और सजल नयनों तुम्हें विदा करती हूँ।”14 मिली का वरुण के साथ विवाह संस्कार पूर्ण होते ही बिटिया पराई अर्थात पति की हो गई। अब उसे अचल सौभाग्यवती रहो, सौभाग्यवती रहो, या सदा सुहागन रहो का आशीष दिया जाता है।

आधुनिकता एवं स्वतंत्रता के नाम पर "सुहाग के प्रतीक” को छोड़ा जा रहा है। "इन सुहाग के प्रतीकों के विशेष वैज्ञानिक अर्थ हैं। ये प्रतीक शृंगार भी है, आस्था भी है, पहचान चिन्ह और ये प्रतीक सुरक्षा कवच भी हैं।” स्त्रीविमर्श, स्त्रीमुक्ति, स्त्री स्वातंत्र्य के नाम पर पुरुषों से होड़ लेती स्त्रियाँ कहती हैं- "हम ही क्यों धारण करें ये चिह्न पति क्यों नहीं। हम ही क्यों करें करवा चौथ और हरितालिका व्रत। पति क्यों नहीं करते।”15 इस प्रकार समाज में प्रचलित अनेक धार्मिक और सामाजिक व्यवहार के वैज्ञानिक संबंध पर विचार जीवन के व्यवहारिक पक्ष को पुष्ट करता है। भारतीय संस्कृति में संस्कारों एवं प्रतीकों के महत्व की स्थापना है। "बिटिया है विशेष" भारतीय मनीषा के चिंतन एवं संस्कारों का दस्तावेज है|

संदर्भ :


1. बिटिया है विशेष - मृदुला सिन्हा, पृष्ठ 16
2. बिटिया है विशेष - पृष्ठ 11
3. बिटिया है विशेष - पृष्ठ 16
4. बिटिया है विशेष - पृष्ठ 12
5. बिटिया है विशेष-मृदुला सिन्हा - पृष्ठ 10
6. बिटिया है विशेष-मृदुला सिन्हा - पृष्ठ 13
7. बिटिया है विशेष-मृदुला सिन्हा - पृष्ठ 10
8. बिटिया है विशेष-मृदुला सिन्हा - पृष्ठ 10
9. बिटिया है विशेष-मृदुला सिन्हा - पृष्ठ 10
10. बेटी को उपहार - बिटिया है विशेष-मृदुला सिन्हा - पृष्ठ 23
11. बेटी को उपहार, बिटिया है विशेष-मृदुला सिन्हा - पृष्ठ 27
12. बिटिया है विशेष मृदुला सिन्हा - पृष्ठ 28
13. बिटिया है विशेष-मृदुला सिन्हा -पृष्ठ -133
14. बिटिया है विशेष-मृदुला सिन्हा - पृष्ठ 138
15. बिटिया है विशेष-मृदुला सिन्हा - पृष्ठ 142

डॉ. उमेश चन्द्र शुक्ल एम.ए., पी-एच.डी.
एसोसिएट प्रोफेसर
अध्यक्ष, हिन्दी विभाग
महर्षि दयानंद कॉलेज परेल, मुंबई -400012
shuklaumeshchandra@gmail.com
103 ओशियन व्यू आर.एन.पी. पार्क भाईन्दर (पूर्व)
ठाणे, मुंबई पिन -410015

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