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भाव-ज्ञान-विज्ञान के संयुक्त संज्ञान का एक प्रयोगात्मक प्रयास

समीक्ष्य पुस्तक: दुल्हन सी सजीली (नवगीत संग्रह)
कवि: हरिहर झा
प्रकाशक: आईसेक्ट पब्लिकेशन, 25 ए, प्रेस कोम्प्लेक्स, भोपाल-462011
मूल्य: रुपये 200

जिज्ञासा मानव की मूल प्रवृत्ति है और यही नए अन्वेषणों की ऊर्जा का स्रोत भी है। यह प्रवृत्ति जीवन के सभी क्षेत्रों जैसे—ज्ञान, विज्ञान, कला, वास्तु, पाक, परिधान और साहित्य आदि में समय के साथ परिवर्धित और संवर्धित होती रही है। परिवर्तन और संवर्धन की यह यात्रा तथ्य, सत्य, तत्व, स्वत्व और अस्तित्व का शोधन, संशोधन और उद्बोधन करती हुई आधुनिकता के नए प्रयोगात्मक पड़ाव तक आ गयी। अतः सर्वाधिक नवीन उपमा, उपमान और उपमेय उभर कर नया साहित्य सृजन, अभिव्यक्ति के सर्वथा नूतन आयाम, भाषा के प्रयोगात्मक संदर्भों से युक्त साहित्य की नवीन विधा का वर्तमान युग सामने आया। जिसमें पद्यात्मक आवरण में आवृत गद्यात्मक साहित्य, प्रकृति के संदर्भों से अधिक वस्तुगत, भावनाओं से अधिक यथार्थ गत प्रधानता के साहित्य का सृजन हुआ। इन सबसे भी एक पग आगे हरिहर जी ने विज्ञान के सन्दर्भ भी अपने काव्य संग्रह में जोड़ कर सर्वाधिक नवीन प्रयोग की प्रथा दी है। "दुल्हन सी सजीली" इसी विधा के स्वरूप से सजी है। 

हरिहर झा का यह नवगीत संग्रह वास्तव में नवीनता का ही एक अनूठा प्रयास है। संवेदनशील मन, अन्तर्निहित आध्यात्मिकता, वैज्ञानिक कर्म भूमि और इस भौतिक जगत का यथार्थवाद, यदि इन सबको मिलाकर काव्य में व्यक्त किया जाए तो निश्चय ही ’दुल्हन सी सजीली’ रचना बनेगी। यह दुल्हन ’भाव, तत्व और चिंतन’ से सजी है, उपनिषद की ’पूर्णमिदं, वाणी’ की पूर्णताओं से सजी है। इंद्र के बक्से (इडियट बोक्स और एयर कंडीशनर) का वैज्ञानिक और व्यंग्यात्मक पुट भौतिकता की ओर कटाक्ष है। सत्य के संचेतन की यह शैली और विषय इसे अन्य काव्य रचनाओं से सर्वथा भिन्न और अनूठा बनाता है। 

इस काव्य संग्रह की पहली ही रचना में उनका अंतस आंतरिक परिवर्तन के लिए आतुर है। विज्ञान पर कटाक्ष है –

“जाँची शरीर की नस-नस पर न पाई प्रज्ञा की नाड़ी, जड़ तो जड़ है, समझा, कैसे जाना जाए चेतन” बयार ठण्डी पैदा करने के बाद “हे बक्से के इन्द्र !”, "भोगों की मृगतृष्णा सुखद है/इच्छाओं की मरीचिका/कंचन मृगी" आदि से मन की व्यग्रता को साहित्यिक, भावनात्मक संवेदनाओं को वैज्ञानिक आवरण में लपेट कर, की गयी अभिव्यक्ति प्रशंसनीय है। 

काव्य की कमनीयता भी झलकती है "छरहरे वृक्ष पर फुनगी/व्यर्थ है रूप अगर नज़र भी न खींचे/लहलहाती फसल या पल्लू लटकता" आदि से काव्य सौन्दर्य की भी झलक मिलती है। कवि का मन पवन सा त्रिकाल की अभिव्यंजना में व्यस्त, मस्त और त्रस्त रहता है। कभी गत को वर्तमान में मधुरिम स्मृतियों में लाते हुए– "अच्छे दिन थे – मन किया, सोए खाट, बिछाते अँगना में, मोरी पर धो लेते हाथ कहाँ बेसिन थे" मन को अतीत में हौले से ले जाते हैं। 

देश प्रेम में आलोड़ित कवित्व आयुधों की भुजाओं में हिमालय की शक्ति आरोपित कर वीरों पर अभिमान करने का सौंदर्य– "तेरे सीने में, भुज बल में देखे कई हिमालय, गंगा बही हृदय से संगम"। ’राह उल्टी मनुज की’ - "प्रकृति के विनाश से क्षुब्ध/हर कली को पग तले कुचला दबाया/प्रकृति रूठी, पुरुष आधा अधूरा, पस्त हारा" जैसे भावों से वर्तमान में वनदेव के विनाश से आहत पीर को व्यक्त किया है। 

"बहुत हो लिए शकुनि ऐसा अब कोई नर न दे/लंकेश साधु छद्म, छैंया दी वे, दुर्जन निकले सारे"। ’टपकती एक बूँद का क्रंदन’ – पीर गहरी है जो कभी कटे वृक्ष और कभी अतीत के ऐतिहासिक घावों की कसक उभार देती है। माँ प्रकृति से जानवरों सा सलूक, न आए लाज। 

’हे राम! कहाँ आवश्यक है कोई वचन निभाना’ – इस रचना में तो हरिहर जी ने आज की कुटिल दूषित राजनीति को दर्पण ही दिखा दिया "जाम इकट्ठा वोट बैंक में भर-भर चषक पिलाना/केवल चित्र खिंचवाना" न्यूटन जी - कामचोरी और लालफीता शाही पर गहरी चोट है – अनुसन्धान लालफीते में भटक जाए राहों में शोध – सटीक और सामयिक रचनाएँ हैं। ’नव वर्ष में धरा सुसज्जित’ कविता बहुत मार्मिक है नग्न सत्य भी – "शराब बोझिल इन्द्रियां/विवेक का प्रवेश वर्जित/झोपड़ी में उधर चूहे क्यों पेट में उत्पात है/भूख में हर दिन पुराना, वर्ष नव निर्वस्त्र लज्जित।" ’मग्न हो तुम’ आज के राज सत्ता धारियों की बखिया उधेड़ती यह रचना – “देख टी वी बाढ़ से मदद में डूबोगे? बचाने तुम क्या यहाँ स्क्रीन से कूदोगे? मग्न हो तुम प्रलय सुख में कामायनी के, रचा लो ना श्रद्धा इड़ा के नृत्य हौले।“ भ्रष्ट राजनीति का यथार्थ चित्रण द्रष्टव्य है – "बस्तियां धू-धू जलेंगी जो उलट मतदान तौबा/लाचारों के सेवक बनते टपके वोट की लार।" 

वर्तमान का कोरोना संकट, विश्व को हिलाने वाली महामारी से त्रस्त मानवता को योग और ध्यान की ओर प्रेरित किया है - "भ्रमित न हो मन, ध्यान लगाकर अपनी साध गुलेल। अणु बम रखे तिजोरी में, पर तिनके से हार गया" – सच में अदृश्य कीटाणु से अणु बम भी हार गया। 

संस्कृति, सभ्यता और संस्कार की प्रतिमान नारी आज भौतिकता की पराकाष्ठा में नैतिकता को भूल किस चिंतन में आ गयी है इसे  ’सबका दिल दहलाऊँगी’  में सजीव चित्रण है। दहेज़ विरोधी कानून का दुरुपयोग हुआ है, समाज में सुधार की जगह विकार लाया है– "लार लालच की बनी तेज़ाब/किए घर तबाह।" आज की बच्चों की शिक्षा व्यवस्था का तो अतीव ही सुन्दर चित्रण किया है– "दरी नहीं पर आंकड़ों में ए सी मिले हैं/बसों को खोलो तो ड्रग निकलती है" शिक्षा की आड़ में आज बच्चों के साथ बहुत कुछ ऐसा ही हो रहा है।

सत्य से दूर आभासी यांत्रिक आनंद के लिए - "आभासी कामधेनु की अभिव्यंजना काव्य सौंदर्य देता है।" आधुनिकता पर भी कटाक्ष है - "व्यभिचार नहीं, अफेयर ज्वर है कुसंग।" आधुनिकता की आड़ में पतन के भाड़ में धँसती हमारी सभ्यता, संस्कृति और संस्कार चिंता का विषय है। 

लोक मांगल्य से दूर होती कविताओं के लिए क्षोभ, जो कभी व्यंग्य से, कभी भावावेश से, कभी कटाक्ष से इस काव्य संग्रह में व्यक्त हैं। कभी प्रगति में निहित दुर्गति को उजागर किया है। अंतस की आध्यात्मिक आहत और व्यक्ति की मृगतृष्णा में संघर्ष है।

हरिहर झा - व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय संवेदनाओं पर पैनी दृष्टि रखने वाले सजग कवि हैं। प्रगति के दुरुपयोग से होती दुर्गति से व्यथित हैं। इन सभी बिंदुओं पर आपने बहुत कुछ लिखा है और उन्हीं के शब्दों में –

शब्दों के नर्तन से शापित, अंतर्मन शिथलाया,
लिखने को तो बहुत लिखा, पर कुछ लिखना बाकी है। 

उस बाक़ी लेखन की प्रतीक्षा में आपके पाठक। 

डॉ मृदुल कीर्ति 

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टिप्पणियाँ

अमिता शाह 2021/09/01 05:46 AM

बहोत सुंदर समीक्षा..कवि की हर कृति का व्यवस्थित विवेचन..साधुवाद..।

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