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भवानी प्रसाद का व्यक्तित्व और कॄतित्व

 नयी कविता और प्रयोगवादी काव्यधारा के कवियों पर चिन्तन और मनन के बाद भवानी प्रसाद मिश्र का नाम एक ऐसे समर्थ गीतकार के रूप में सामने आता है जिन्होने सहज भाषा एवं गति शैली के माध्यम से दार्शनिक सिद्धान्तों एवं मानव मूल्यों को जनमानस तक पहुँचाया।

भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म 29 मार्च 1913 को मध्यप्रदेश के जिला होशंगाबाद के 'टिगरिया' नामक ग्राम में हुआ था। आपके पिताजी श्री सीताराम मिश्र शिक्षा विभाग में निरिक्षक थे और माता श्रीमती गोमती देवी प्रकॄति से भावुक महिला थी। आपने सोहागपुर, होशंगाबाद और नरसिंहपुर में रहकर हाईस्कूल तक की शिक्षा प्राप्त की और उसके बाद जबलपुर के राबर्टसन कॉलेज से बी.ए. पास किया। बी.ए. पास करने के बाद आप पहले 'कल्पना' में संपादक रहे। आपको शिक्षा प्राप्त करने के लिए विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करने का अवसर मिला जिससे आप जीवन के विविध रंगों से परिचित हो सके और उसे अपनी वाणी के माध्यम से जनमानस तक पहुँचाया। 

भवानी प्रसाद मिश्र लंबे समय तक महात्मा गाँधी के अनुयायी रहे जिसके कारण आपकी वाणी रंगों की विविधता के साथ गाँधी-चिंतन का स्वर झलकता है। सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के समय आपको कुछ समय के लिए कारावास की सज़ा भी भोगनी पड़ी थी। आपके गाँधीवदी चिन्तन के और अधिक पुष्ट हो जाने का संभवत: यही कारण रहा था। आपने कारावास के दौरान ही बंगला भाषा भी सीखी तथा रवीन्द्रनाथ की बंगला रचनाओं का अध्ययन भी किया। आप केवल हिन्दी ही नहीं बल्कि अँग्रेज़ी, मराठी, संस्कॄत और उर्दू भाषा का भी अच्छा ज्ञान रखते थे। देश की स्वतंत्रता के बाद आपने समाज सुधारक का भी काम किया। आप संपादन, आकाशवाणी और अध्यापन कार्य से भी संबन्धित रहे। 

आपको शिक्षा पाने के लिए जिस प्रकार से अनेक स्थानों की यात्रा करनी पड़ी उसी प्रकार से नौकरी के लिए भी अनेक स्थानों की यात्रा करनी पड़ी। जीविकोपार्जन के लिए आपने आरम्भ में एक छोटा-सा स्कूल खोला लेकिन जल्द ही सरकार ने इसे अपने कब्ज़े, में कर लिया। तब आपने लगभग चार वर्ष तक वर्धा के महिला आश्रम में अध्यापन का कार्य किया। इसके बाद आप कुछ समय तक राष्ट्र-भाषा-प्रचार सभा से भी जुड़े रहे। तद्पश्चात एक वर्ष तक स्वतंत्र विचरण करने के बाद एक कवि सम्मेलन में हैदराबाद गये और वहाँ लगभग एक वर्ष तक रहे। आपने चेन्नई के ए.वी.एम. में संवाद निर्देशन भी किया। आप मुम्बई के आकाशवाणी के प्रोड्यूसर भी बने और फिर आकाशवाणी केन्द्र दिल्ली में कार्यरत रहे। दिल्ली में रहते हुए ही आपने वाड्मय के संपादन मंडल में काम किया। सरकारी नौकरी से अवकाश ग्रहण करने के बाद आप जीवन के अंतिम क्षणों तक गाँधी प्रतिष्ठान से जुड़े रहे। आपका देहांत 1987 में दिल्ली में हुआ। 

भवानी प्रसाद मिश्र द्वारा रचित कविताओं और गीतों के अनेक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 
1. गीत फरोश
2. अँधेरी कविताएँ 
3. मानसरोवर- दिन
4. गाँधी पंचशती
5. अनाम तुम आते हो
6. इदं न मम
7. नीली रेखा तक
8. त्रिकाल संध्या
9. शरीर-कविता-फसलें और फूल
10. बुनी हुई रस्सी
11. खुशबू के शिलालेख
12. व्यक्तिगत
13. परिवर्तन जिए
14. तूस की आग
15. शतदल
16. फसलें और फूल
17. चकित है दुख

मिश्र जी ने हिन्दी साहित्य में प्रचलित वादों का कभी समर्थन नहीं किया। आप आजीवन मानवतावादी विचारधारा से संबंधित काव्य लिखते रहे। आपका मानवीय आस्थाओं और मूल्यों में ही अधिक विश्वास रहा। आपकी कविताओं पर अद्वैतदर्शन और गाँधीवादी दर्शन का स्पष्ट रूप से प्रभाव रहा है। किसानों और मज़दूरों की दयनीय दशा को देखकर आप विचलित हो गये और उनके प्रति संवेदना व्यक्त की। आपकी कविताओं में कॄत्रिमता और दूरूहता को कोई स्थान नहीं है। आपका काव्य जनवादी चेतना, गाँधीवादी मानवीय चेतना और गहरे व्यंग्य से भरा हुआ है। आपने अपनी रचनाओं में सौंदर्य, राष्ट्रीयता, आदर्शवाद और आत्मचिंतन की विशेषताओं का नया आयाम प्रस्तुत किया है। आपके विचार हैं कि सामन्य तरीक़े से कहकर असामान्य रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। 

'घर की याद' कविता मिश्रजी की भावपूर्ण कविता है। इस कविता में कवि ने स्वजनों के प्रति अपने प्रेम को वाणी दी है। सन् 1942 ई. में असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण कवि को अँग्रेज़ सरकार ने तीन साल के लिए जेल की सज़ा दी थी। कवि उस समय जेल में बंद हो गये। सावन के महीने में एक रात ज़ोर से वर्षा हो रही थी और वह सुबह तक लगातार चलती रही। हवा तेज़ थी और बादल इतने घने छा चुके थे कि सूर्य का कहीं भी पता नहीं चल पा रहा था। ऐसे में कवि को अपने घर की याद आ रही थी। कवि को मन में दिखाई देने लगता है कि उसके घर के सभी लोगों इकट्ठे बैठे हैं। कवि सावन को संबोधित करते हुए कहता है कि हे सजीले सावन! मेरे गाँव में जाकर तू ख़ूब बरसना ऐसा चतुराई भरा संवाद सुनाना कि मेरे पिता अपने इस पाँचवे पुत्र को याद कर व्यथित न हों। 

कह न देना मौन हूँ, खुद न समझूँ कौन हूँ मैं
देखना कुछ बक न देना, उन्हें कोई शक न देना
हे सजीले हरे सावन, हे कि मेरे पुण्य पावन
तुम बरस लो वे न बरसें, पाँचवें को वे न तरसें

मिश्रजी शब्द के स्वर को अपने कंठ में संगीत से सँवार कर मंच पर छा जाया करते थे।

सन् 1930 के लगभग वे नियमित रूप से कविताएँ लिखने लगे। हाईस्कूल की परीक्षा पास करने से पहले ही आपकी अनेक कविताएँ कोलकाता से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'हिन्दूपंच' में प्रकाशित होने लगीं थीं। 1932-33 के समय में आपकी कविताएँ कर्मवीर, हंस, तथा 'आगामी कल' में प्रकाशित होने लग चुकी थी। 'आगामी कल' की कविताओं से प्रभावित होकर अज्ञेय जी ने आपको 'दूसरा सप्तक' में रख लिया। आगे चलकर आपने  गाँधी-मार्ग नामक मासिक पत्रिका का भी सम्पादन कार्य किया। 

मिश्रजी की अधिकांश रचनाओं के मुक्त छंद में होने पर भी तुक-लय की स्वर-संगीतात्मकता युक्त है जिसने उसे सहज संवेद्य बना दिया है, यही उसकी शिल्पगत विशेषता भी है। आपकी अधिकांश कविताएँ आत्मकथ्य प्रधान है। कुछ कविताओं में प्रतीकों का भी प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुआ है। आपकी कविताओं में बिम्ब योजना एवं अप्रस्तुत विधान भी सहजता से दिखाई देता है। 

मिश्र जी वर्डस्वर्थ की कविता संबंधी विचारधारा तथा रविन्द्रनाथ टैगोर के काव्य का पर्याप्त प्रभाव पड़ा। उन्होंने कहा था कि "दर्शन में अद्वैत को, वाद में गाँधी को, और टैकनीक में 'सहज लक्ष्य' को ही वे स्वीकार करते हैं। 

जी हाँ हुजूर मैं गीत बेचता हूँ
मैं तरह-तरह के गीात बेचता हूँ
मैं सभी किसिम के गीत बेचता हूँ

यह कवि द्वारा किया गया व्यंग्य है जिसमें सामाजिकता है। अत: यह केवल कवि के लिए ही न होकर जन साधारण के लिए भी हो गया है। जिस समय मिश्रजी हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में अवतरित हुए उस समय उस युग के युवा हृदय में विद्रोह की भावना बढ़ चुकी थी। उस समय की परिस्थितियाँ सघर्षों से भरी पड़ी थी। समाज में साहित्यकारों और कवियों को अधिक सम्मान नहीं मिल पाया था। 

जी लोगों ने तो बेच दिये ईमान
जी आप न हों सुनकर ज्यादा हैरान
मैं सोच समझकर आखिर
अपने गीत बेचता हूँ
जी हाँ हुजूर मैं गीत बेचता हूँ

मिश्र जी की कविताओं की एक ख़ासियत यह भी रही है कि आपकी भाषा में लोक-जीवन के शब्दों का भरपूर प्रयोग मिलता है। आपने अपनी कुछ कविताओं में सहृदयता व भावुकता की छाप भी छोड़ी है।

टूटने का सुख

बहुत प्यारे बंधनों को आज झटका लगा है
टूट न जाए कि आज मुझको खटका लगा है
आज आशाएँ कभी भी चूर होने जा रही हैं
और कलियाँ बिन खिले कुछ घूर होने जा रही हैं

आपकी कविताओं में प्रेमानुराग-युक्त अनुभूतियों की भी अभिव्यक्ति मिलती है। प्रेम भावना का प्रतीक कमल जिस तरह से सरोवर की शोभा बढ़ाता है उसी प्रकार यह कमल मन के सरोवर की शोभा बढ़ा रहा है।

मैं इन्हें हूँ बीच से लाया
न समझो तीर पर के हैं
भूल भी यादे हैं अछूती भूल हैं
मानसर वाले कमल के फूल हैं

मिश्र जी की सुन्दर काव्य सॄष्टि उनकी सहजता, सहानुभूति तथा संयत अभिव्यक्ति के बल पर हुई है। दूसरा सप्तक के प्रकाशन के साथ ही आप जाने-माने कवियों की पंक्ति में आ गए। काव्य कॄतियों में समकालीन सभ्यता पर करारे व्यंग्य करना आपकी विशेषता ही रही। 

मिश्र जी की कविता को जन-जन से जोड़ने की कोेशिश सदा ही सफल रही है। अपने व्यंग्य और हँसी के सहारे अपनी अधिकांश कविताओं में जीवन की कड़वी सच्चाई प्रस्तुत की है। ऊपर से सत्य प्रतीत होने वाली मिश्र जी की कविताएँ अपने आप में गहरे अर्थ रखती हैं। सामाजिक भावबोध की कविताओं के कारण आप न केवल समाज के बौद्धिक जनों में बल्कि जन-जन में भी समान रूप से चर्चित रहे हैं। आपने पुरुषार्थ को ही जीवन दर्शन माना है। आपने पुरुषार्थ को ही जीवन का मूल्य मानकर जीवन में प्रतिष्ठित किया है। आपकी सदा से ही यह इच्छा रही है कि आप कविता में नदी की धारा की तरह निरंतर बहते रहें। आपकी कविताओं में आवेग भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। कविता को जनसाधारण के लिए प्रस्तुत करने हेतु आपने सहज भाषा का प्रयोग किया। काव्य में व्यंग्य की संपन्नता आपको अलग पहचान देती है। आपकी भाषा की ताक़त ने लोगों का मन जीत लिया। आपकी कविताओं में नटकीयता के तत्व भी विद्यमान हैं। आपकी शैली सूक्त प्रधान है। थोड़े में बहुत कुछ कह देने की प्रवॄति रीतिकाल के कवि बिहारी का सहज ही स्मरण करा देती है। आप बोलचाल का लहज़ा अपनाकर बड़ी बात को भी सहजता से कह जाते हैं। आप अपनी कविताओं में भाषा-शैली और शिल्प के प्रति भी सजग रहे हैं। आपने लोकजीवन के बीच पहुँचकर बिंबों और प्रतीकों का बढ़िया चुनाव किया है।

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