भिखारिन
काव्य साहित्य | कविता अवनीश कुमार15 Mar 2021 (अंक: 177, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
एक बूढ़ी लाचार औरत
ललचायी नज़रों से
हाथ फैलाती है,
भर्रायी आवाज़ में माँगती
चंद सिक्के,
एक हाथ में लाठी लिए
अपने कंकाल हो चुके शरीर का
बोझ सँभालती है,
कुछ देने से पहले ही
वो दुआ देती,
पर लोग उसे नज़रअंदाज़ कर देते
न जाने क्यों?
शायद अब उन्होंने
'असहाय की सहायता ज़रूरी है',
इस बहस से बचने का
कोई उपाय ढूँढ लिया है,
अब वो कहने लगे हैं
'भीख देना अच्छा नहीं है'
लेकिन वो अपने इस तर्क में
भूल जाते हैं ज़िक्र करना
उस भिखारिन की लाचारी, भूख, दर्द
और कूड़े से टुकड़ा न उठाने की
निरर्थक आकांक्षा का।
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