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भोजपुरी लोकगीतों में पर्यावरण

पर्यावरण से हमारा आशय हमारे चारों ओर एक ऐसे आवरण से है जो हमें ताज़ी हवा दे, पीने लायक़ पानी दे, पौष्टिक खाद्य-पदार्थ दे। पर्यावरण के विभिन्न घटक जैसे- जल, वायु, मिट्टी इत्यादि सब प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखने में अपनी-अपनी भूमिका निभाते हैं। प्राकृतिक संतुलन न केवल प्रकृति के सौन्दर्य को बनाए रखने के लिए अति आवश्यक है, अपितु हमारे दैनिक जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए भी अति आवश्यक है।

आज पूरी दुनिया इसके लिए चिंतित नज़र आती है कि पर्यावरण का संतुलन जो बिगड़ रहा है और प्राकृतिक संसाधनों का जिस तरह दुरुपयोग हो रहा है, उसे अगर रोका नहीं गया तो भविष्य में उसके घातक परिणाम सामने आएँगे। अतः मनुष्य को जीवित तथा निर्जीव सभी अवयवों के आपसी संबंध को ध्यान में रखते हुए ही अपने क्रिया-कलापों को इस तरह से नियंत्रित करने की आवश्यकता है। जिससे सबके कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो। प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल व्यवस्थित एवं सीमित रूप में करना चाहिए। इसके लिए जनसाधारण में पर्यावरण बोध/चेतना जाग्रत करना अति आवश्यक है। आइए, ज़रा इस दृष्टि से विचार करें कि भोजपुरी लोकगीत इस बारे में हमारा क्या मार्गदर्शन करता है।

भोजपुरी लेकगीतों की परंपरा अत्यंत समृद्ध है। लोक-चेतना के दर्पण में जिन मानवीय अनुभूतियों का प्रतिबिंब उभरता है, वे सरस मनोहारी शैली में रूपायित होती हुई लोकगीतों का कलेवर धारण करती हैं। मानव संस्कृति की विराटता में वनस्पति अपनी पूरी आन-बान के साथ समाहित है। जिस वसुंधरा की गोद में मानवता ने जीवन के प्रथम स्पंदन का अनुभव सँजोया, उसने वनस्पति के विराट वैभव देकर चेतनाशील मनुष्य को अपनी दुर्लभ अस्मिता का बोध कराया। भोजपुरी के पारंपरिक लोकगीतों में प्रकृति अपने विविध रूपों की महनीयता का परिचय देती हुई एक ऐसी रससिद्ध सहचरी के रूप में उभरकर सामने आई है, जिसके बिना जीवन का राग-रंग अधूरा है।

पर्यावरण की ऐसी विलक्षण प्रतीति भोजपूरी लोकगीतों में विद्यमान है, जो हमारी सचेष्टता एवं सूक्ष्म विज्ञान-बुद्धि का प्रमाणक है। विश्वमित्र की यज्ञभूमि के रूप में विख्यात व्याघ्रसर (बक्सर) को वैदिक मंत्रों की रचनाभूमि कहा जाता है। चरित्रवन, सिद्धाश्रम, ताड़कावन ऐसे पौराणिक स्थल है, जो ऋषियों की तपस्थली माने जाते हैं।

भोजपुरिहा संस्कृति का मूलाधार प्रकृति है। समुद्र, नदी, झरने, ताल-तलैया, कूप, पहाड़, जंगल उद्यान, फलदार वृक्ष, लताएँ, बरगद, अश्वत्थ, पाकड़, गूलर, चंदन, बाँस, नीम, फूलों में कमल, गुलाब, अडहुल, चंपा, चमेली, बेला; इनके अतिरिक्त सरसों, करेला, तुलसी, कुश इत्यादि, प्रकृति अपने आँचल में कितने दुर्लभ रत्न सँजोए बैठी है।

भोजपुरी की लोकसंस्कृति देवनदी गंगा के संस्पर्श से पावन है। भोजपुरी लोकगीत में गंगा की उद्गम कथा का बड़ा सुंदर चित्रण है-

"बारह बरिस भगीरथ जोग तप कइले
तब रे महादेव पलक उघरले
झोरिया से कढ़ले विभूतिया
गंगाजी के दीहले
लेले जइह भागीरथी अपना अस्थाने।"

अर्थात् राजा भगीरथ ने बारह वर्षों तक कठोर तप किया, तब महादेव प्रसन्न हुए। उन्होंने अपनी झोली से जग-कल्याण हेतु विभूति निकाली और कहा-

गंगे, इसे साथ लेकर धरती पर उतरो!

गंगा को माँ कहा गया है। हमारे षोडश संस्कारों में गंगा अपनी अनुपमेयता के साथ विद्यमान है। भोजपुर की एक तिरिया संतान की कामना से गंगा का पूजन करती है-

"सोनवा रूपवा कुछो नाहीं माँगिले
माँगिले राम अइसन पूत ए गंगा मइयाऽ।"

अर्थात् सोना-चाँदी, किसी चीज़ की लालसा नहीं। राम जैसा पुत्र मिले, इससे बढ़कर और क्या चाहिए? हे गंगा मइया, तुम्हारा तट सेवन करती हूँ। मेरी आस पूरी करना। गंगा प्रकट होती हैं-

"आजु के नवें महीनवे होरिलवा जनम लीहें।"

इतना बड़ा विश्वास गंगा में अवगाहन कर, उनकी कोख में समाकर ही फलित होता है। यही कारण है कि चारित्रिक शुद्धता का विचार करने के लिए आज भी गंगाजली उठाने की मान्यता लोकमानस में व्याप्त है। विवाह के अवसर पर गाया जाने वाला एक लोकगीत है-

"बरहो बरिस पर शिव घरे आवेले, गउरा से माँगेले विचार
जब रे गउरा देई सरप हाथे छुअली, सरप बइठे फॅटा मारि।"

अर्थात् बारह वर्षों तक भटकने के बाद औघरदानी शिव घर लौटते हैं और सती गौरी से उनकी चारित्रिक शुद्धता का प्रमाण माँगते हैं। गौरा पार्वती सूर्य की शपथ लेती हैं- वह घने बादलों में छिप जाता है, वे गंगा की शपथ लेती हैं, गंगा में रेत पड़ जाती है, जल सूख जाता है। वे नाग की शपथ लेती हैं, वह निरीह भाव से फेंटा मारकर बैठ जाता है। तुलसी मुरझा जाती है। तब शिव मुसकराकर कहते हैं-

"अच्छा, अब मेरे माथे पर हाथ रखकर कहो तो..."

गौरी शिवजी को छूने चलती हैं और वे ठठाकर हँस देते हैं-

"हमारा ही मुअले गउरा बड़ दुःख होइहें रे,
सिर के सेनुरवा दूलम होई रे..."

यानी मैं मरूँ तो तुम्हें बहुत कष्ट होगा गौरा, तुम्हारा सुहाग दुर्लभ हो जाएगा।

अलौकिक दंपती की इस मधुर नोक-झोंक में प्रकृति की अद्भुत सहभागिता है। भारतीय स्त्री की चारित्रिक दृढ़ता का प्रमाण देने के लिए प्रकृति के सभी उपादान तत्पर हैं। इतना ही नहीं, सरयू, यमुना जैसी पवित्र नदियों का अस्तित्व भोजपुरी लोकगीतों में बड़ी सुघड़ता के साथ समाहित है। सीता अपनी आराध्या गौरी की परिक्रमा करती हुई नित्य सरयू का दर्शन माँगती हैं-

"माँगेली अजोधिया के राज सरजू जी के दरसन"

गंगा और यमुना इन दोनों नदियों का बहना लोकगीतों में उजागर है। एक विरहिणी चाँदनी रात में अपने परदेशी प्रिय का स्मरण करती विकल होती है, तब उसे गंगा-यमुना नदियों का स्मरण हो आता है-

"चननिया छिटकी मैं का करूँ गुंइया
गंगा मोरी मइया, जमुना मोरी बहिनी
चान सुरूज दूनो भइया
पिया का संदेस भेजूँ गुंइया"

वनस्पति के मानवीकरण का सबसे सटीक उदाहरण भोजपुरी लोकगीतों में मिलता है। उपनयन, विवाह आदि संस्कारों में त्रिवेणी को, तीर्थराज प्रयाग को न्योता जाता है-

"गया जी के नेवतिले आजु त
नेवीतीं बेनीमाधव हो
नेवतिलें तीरथ परयाग,
तबहीं जग पूरन...।"

यज्ञ तभी पूरा होगा, जब गया और तीर्थराज प्रयाग जैसे पावन स्थलों का आवाहन किया जाएगा। समुद्र की विशालता, कूप की गहराई, जलाशय का आयताकार सौंदर्य- सब मिलकर लोकगीतों की गरिमा बढ़ाते हैं। निरगुन की लय में सागर की फेनिल लहरों की उत्तालता है और उसके साथ जुड़ा हुआ जीवन का निर्वेदमूलक प्रसंग भी-

"भवसागर अति दुर्गम बहे
कवन विधि उतरब पार हो"

कुआँ हमारे ग्रामीण दैनंदिन जीवन का अभिन्न अंग है-

"हमारो ससुर साहेब कुंइया खोनवले
डोरिया बरत दिनवा बीतल हो राम जी
पिया परदेसी नाहीं अइले हो रामजी....।"

अर्थात् हमारे श्वसुरजी ने कुआँ खुदवाया! पानी भरते ज़िंदगी बीत रही है। मेरे परदेशी पति अब तक घर नहीं लौटे! लोक शकुन के विचार से आम पुत्र का प्रतीक है और किसी भी हरे भरे वृक्ष या उसकी डालियाँ को काटना वर्जित है-

"आम पुरत हवे, निमिया महतारी
बनवा के कर रछपाल, ए बिरिजबासी।"

अर्थात् आम को पुत्र मानो, नीम को माता समान जानो। वन की रक्षा करो, हे ब्रजवासियो! मद टपकाते महुआ के पीलेपन से जुड़कर पूरा वन बौरा देनेवाली सुगंधि से मदमाता हो उठता है-

"मधुर मधुर रस टपके, महुआ चुए आधी रात
बनवा भइल मतवारा, महुवा बिनन सखी जात।"

गूलर का फूल दुर्लभ है। सावन मास में कजरी गीत के माध्यम से गूलर को प्रतीक बनाया गया है-

"साइयाँ भइले गुलरी के फूल,
सवनवा कइसे मनाइब, ए सखिया।"

बाग़-बग़ीचों के सभी फलों की पहली भेंट अर्घ्य के रूप में भुवन को अर्पित की जाती है। बाँस के बने कलसूप में फल-फूल सजाकर छठव्रती स्त्रियाँ कामना करती हैं- हे सुरूज देव, केला, नींबू, शरीफा, नारियल, अमरूद, लवंग, सुपारी, जायफल, इलायची और नवान्न की भेंट स्वीकार करें। इन्हीं फलों की मिठास से हमारे कुल परिवार का जीवन भर पूरा रहे। कार्तिव शुक्ल पक्ष की अक्षय नवमी तिथि को आँवले का वृक्ष पूजित होता है। यह त्रिफला औषधि का सबसे अधिक गुणकारी तत्त्व है, जिसका सेवन करने से नाना व्याधियों का शमन होता है-

"अँवरा के गछिया अँगनवा त देखत सोहावन
पूजन चलेली सीता देई, अँचरा पसारेली
जुग-जुग बाढ़ो अहिवात
अँवरा असीस दिहले।"

इसी प्रकार अश्वत्थ या पीपलबाबा की, वटदेवता की पूजा का विधान है-

"मोरा पिछुअरिया पीपर बिरिछवा
आधि राति बहेला बयार
ताहि तर मोरे बाबा सेजिया डँसावेले
आइ गइले सुखनींद।"

ताल तलैया, कुंड के बिना लोक जीवन का आनंद अधूरा है। सोहर, विवाह और छठ गीतों में ताल-तलैया का महत्त्व निरूपित है-

"चारि ही कोन के पोखरवा त राम दतुवन करे हो
ए ललना, बनवा से आवेला नउआ
लोचन पहुँचावेला हो
पहिया संदेसा वसिष्ठ मुनी
दोसर कोसिला रानी
ए ललना तीसर लोचन लखन देवर
राम जानि सूनसु हो।"

अर्थात् चतुष्कोणीय पोखरा बना हुआ है, जहाँ राम दातुन कर रहे हैं। ठाकुर वन से सीता की पुत्रोत्पत्ति का संदेसा लेकर आता है। पहला संवाद गुरू वसिष्ठ मुनि को, दूसरा कौशल्या माता को, तीसरा संवाद देवर लक्षमण को, राम को कदापि नहीं। वनवासिनी सीता के जीवन के अथाह करूणा-जल में भीगे ये गीत मद्धिम लय में गाए जाते हैं और सबकी आँखों को भीगापन सौंप जाते हैं। एक और दृश्य है, जिसमें प्रतीक-स्वरूप कुंड का अद्भुत प्रयोग है-

बेटी के जन्म के बाद कोख में कंपन होता है। वैसे ही, जैसे कुंड का जल पुरवइया के वेग से काँपता है-

"जइसे दह काँपे पुरवइया के छुअले
ललना ओइसे काँपे माई के कोखिया,
धिया के जनमले।"

वनस्पति अपने पूरे वैभव के साथ मानवीय अनुभूतियों की साझेदारी करती हुई लोकगीतों में साकार हुई है। वनसंपदा का विलक्षण सौंदर्य भोजपुरी लोकगीतों को श्रीसंपन्नता प्रदान करता है। उपनयन विधान में तलाश दंड की आवश्यकता पड़ती है। वन में तपस्या भी होती है, वन में गोचारण भी होता है। वन फल-फूल, जलावन, छाल और वनौषधियों की अक्षय थाती सहेजकर रखता है-

"बने बने घूमेले कन्हैया
त गइया चरावेले
बँसिया बजावेले श्रीकृष्ण
त रधिका लुभावेले हो"

प्राचीन अरण्यों का विवरण भी भोजपुरी लोकगीतों में बखूबी सहेजा गया है। देवारण्य, चंपारण्य, सारण्य, आरण्य जैसे वन, जिनके नाम पर देवरिया, चंपारण, सारन, आरा जैसे नगर, कस्बे बसे हुए है। वृंदावन, नंदनवन की परिकल्पना में डूबे हुए वैवाहिक गीतों में कोयल की कुहुक का उछाह रचा-बसा हुआ है-

"कवना बने रहलू ए कोइलरि
कवना बने जालू
नंदन बने रहलू ए कोइलरि
बृंदाबने जालू
जनक बाबा दुअरिया ए कोइलरि
उछहल जालू।"

कोयल की बोली, उसका पंचम सुर अत्यंत मधुर और शुभ माना जाता है। मानसिक और शारीरिक दृढ़ता के प्रतीक पहाड़ों का स्वरूप भोजपुरवासियों को अपने शील-संस्कार के अधिक निकट प्रतीत होता है-

"गढ़ नइयो, परबत नइयो
हम कबहूँ ना नइयो
बेटी सीता बेटी कारने
आजु माथ नवइयो!"

किले झुक जाएँ, पर्वत झुक जाएँ, मैं नहीं झुक सकता। सीता जैसी सुकुमारी बिटिया के कारण वर पक्ष के आगे मुझे सिर झुकाना पड़ रहा है। आम की डाली, तोता-मैना की चुहल, पंडुकी, गौरेयों की फुदक, खेत-खलिहान, बाग-बगीचा इनके बिना भोजपुरिहा जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। गाँव के पास फुलवारी सजी होती है और गाँव से कुछ दूरी पर बड़े-बड़े बगीचे लगे होते हैं। पुरखों के नेह से सिंचित उन बाग़-बग़ीचों के लहराँव को देखा जाता है, जो किसी भी गाँव की भौतिक समृद्धि का प्रतीक माने जाते हैं-

"अमवा लगवलीं, जमुनिया त निमिया सोहावन हो
पीपर के जुड़ छँहिया, तहाँ दल उतरी।"

वट का सम्मान करती स्त्रियाँ वट सावित्री का व्रत साधती हैं। बरगद बाबा अपने ऊर्ध्वमूल जटाजूट फैलाकर उन्हें अक्षय सौभाग्यवती होने का आसीस देते हैं।

चंदन का वृक्ष सौंदर्य और सुगंधि के साथ-साथ शुभता का भी प्रतीक है। श्वेत चंदन, रक्त चंदन के वृक्ष बड़ी कठिन सेवा के बाद पनपते हैं-

"ओरी तर उपजे चननवा
च्नन मनभावन
शिवजी के चनन केवाड़
कसइली के चउकठ।"

तीसी, सरसों, करैली के फूलों की गमक से लोकगीतो की अँगनाई कितनी सुहावनी है-

"पूसवा में फुले सरसइया हो लाल
भउजी के मुँहवा पियरइले हो लाल"

पूस में सरसों के फूलों की रंगत कितनी प्रिय लगती है। भावज के चेहरे का रंग सरसों के फूलों सा हो गया है। इसी प्रकार करैले के फूलों की गमक से जुड़ा एक गीत है-

"सावन के सुभ दिनवा बदरवा बरसेला
फुलवा फुलेला करइलिया गमक मन भावेला।"

प्रकृति के साथ चेतना का यह तादात्म्य अपने आप में विलक्षण तथ्य को सहेजने वाला है। पर्यावरणविदों को तुलसी के पौधे की गुणवत्ता का ज्ञान है। इसके बिना कोई अनुष्ठान पूरा नहीं होता। यह सभी गाछ-बिरिछ की ठकुराइन मानी जाती है। इसे छुकर बहनेवाली बयार में आरोग्य का वरदान सन्निहित होता है। तुलसी के उत्पत्ति से संबंधित सुंदर लोकगीत भोजपुरी जनपद में प्रचलित है-

"कहँवा तुलसी के नइहर, कहँ सासुर जी
कहँवा तुलसी जनमली त केइ जारिया रोपेला जी
गंगा मइया तुलसी के नइहर, भोजपुर सासुर जी,
सरग में तुलसी जनमली, मलहोरिया जरिया रोपेला जी।"

अर्थात् तुलसी का नैहर कहाँ, उनकी ससुराल कहाँ, उनका जन्म कहाँ हुआ, किसने उनका रोपण किया। नव तुलसिकावृंद की अवस्थिति विभीषण की गृहवाटिका में भी है-

"नवतुलसिकावृंद तेंह देखि हरष कपिराय"

कचानर पत्तियों, आल्हर टहनियों वाली बँसवारी लोकगीतों में अपनी संपूर्ण हरीतिमा के साथ विद्यमान है-

"बन पइसी काटहु ए बाबा
बँसवा पचास जी
आल्हर बँसवा कटइह मोरे बाबा
सुंदर खोजिह दामाद जी"

बाँस हरे हों, दामाद सुंदर हो, तभी विवाह मंडप की शोभा होती है।

कुश के पौधे को भी संरक्षण देने की बात लोकगीतों में कही गई है। रूखा-सूखा यह प्राकृतिक उपादान भी लोक आस्था की दृष्टि से बड़ा महत्त्वपूर्ण है। वस्तुतः भोजपूरी लोकगीत प्रकृति की गोद में जनमे, वनस्पति के स्वास्थ्य में आकंठ डूबे हुए हैं। हमारी पुरखिनों के कंठस्वर में बसे ये गीत पूरी तरह से पर्यावरण के लिए समर्पित है। परंपरा के इस मधुर प्रवाह में वनस्पति के प्रति आकंठ प्रेम की प्रतीति छिपी हुई है। भोजपुरिहा माटी की सोंधी सुगंध से सुवासित इन गीतों के मर्म को एक नई पहचान देने की आवश्यकता है। लोकगीतों की यह दुनिया तब तक आबाद रहेगी, जब तक मनुष्यता के विकास की, हर्ष-विषाद की, करूणा और उमंग की प्रकृत अनुभूतियों का अस्तित्व बना रहेगा। पर्यावरण से संबंधित इन लोकगीतों में मनुष्य के साथ प्रकृति के अभेद्य रागात्मक संबंध सामाहित हैं। इसीलिए पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ समस्त लोकगीत परंपरा के संरक्षण की भी प्रबल आवश्यकता है।

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