भूख और जज़्बा
काव्य साहित्य | कविता राहुलदेव गौतम15 May 2020
किसी ने जब पूछा मुझसे
तुम्हारी ये मिट्टी की दीवार कैसे गिरी?
मैंने कहा भूख लगी थी साहब!
यह मिट्टी खाकर मेरा परिवार ज़िंदा है।
पेट भरता ही नहीं साहब!
अब खाना खाने से
इससे ज़्यादा तो हम गालियाँ खा लेते हैं।
बातों का हिसाब कौन रखता है साहब!
यहाँ यूँ ही किसी की
हुकूमतें नहीं बदलतीं।
जलसे तो रोज़ होते हैं साहब!
इस शहर की गलियों में
काश कभी भूख पर
तक़रीरें हो जातीं तो अच्छा होता।
मेरी आँखों पर मत जाइए साहब!
यहाँ आँसुओं पर भी
कई मतलब निकाले जाते हैं।
यहाँ सब कुछ बिक जाता है साहब!
इंसान और इंसानियत भी
तो इस बाज़ार में
हम ग़रीब, हमारी भूख बहुत सस्ते सौदे हैं साहब!
कुछ आवाज़ें न सुनाई दें
तो ही ठीक है साहब!
वरना भूख की आवाज़ों से देश की ख़ूबसूरती
बदसूरत हो जाती साहब!
यही तो जज़्बात हैं अपने
एक ग़रीब के अपने देश के लिए
वरना हम भी कब के
मुकम्मल मौत मर गये होते साहब!
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