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भूमंडलीकरण के दौर में साहित्य के सरोकार

साहित्य एक विस्तृत अवधारणा है। कहा भी गया है कि साहित्य की यात्रा वहीं से आरम्भ होती है, जहाँ से संस्कृति की यात्रा शुरू होती है। यही कारण है कि कवि ईश्वर का रूप होता है- "कविर्मनीषी परिभूः स्वयं भू।" वस्तुतः साहित्य के पास हर समस्या का निदान है और उसकी सोच नए तन्त्र का उद्भव करती है। साहित्य की सत्ता के समक्ष हर चुनौती विफल है।

 

साहित्य के सरोकारों को लेकर आज समाज में एक बहस छिड़ी हुई है। इस संक्रमण काल में कोई भी विधा मानवीय सरोकारों के बिना अधूरी है, साहित्य उससे अछूता कैसे रह सकता है। रीतिकालीन साहित्य से परे अब साहित्य में तमाम विचारधाराएँ सर उठाने लगी हैं या दूसरे शब्दों में समाज का हर वर्ग साहित्य में अपना स्थान सुनिश्चित करना चाहता है। यही कारण है कि नव-लेखन से लेकर दलित विमर्श, नारी विमर्श, बाल विमर्श जैसे तमाम आयाम साहित्य को प्रभावित करते रहे हैं। कभी साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता था, पर अब साहित्य की इस भूमिका पर ही प्रश्नचिह्न लगने लगे हैं। दर्पण का कार्य तो मात्र अपने सामने पड़ने वाली वस्तु का बिम्ब प्रदर्शित करना है, जबकि साहित्य इस मायने में अलग है। वह सिर्फ़ उन पहलुओं को नहीं देखता जो सामने से दिखती हैं बल्कि उनके पीछे की सच्चाइयों और अन्तर्विरोधों को भी उजागर करना उसका कर्तव्य है। ऐसे में आज साहित्य सिर्फ़ समाज का दर्पण मात्र नहीं, बल्कि उससे भी काफ़ी विस्तृत है।

आज दलित साहित्यकार एवं नारीवादी साहित्यकार इस सवाल को बेबाक़ी से उठाते हैं कि साहित्य यदि समाज का दस्तावेज़ है तो इसमें दलितों और नारी की भूमिका कहाँ है? क्या दलितों की भूमिका शम्यूक बनकर गर्दन कटवाने, एकलव्य बनकर अँगूठा कटवाने, त्रिशंकु बनकर स्वर्ग व नर्क के बीच झूलते रहने अथवा ताड़ना का अधिकारी बनने में है। आर्य-अनार्य संस्कृति के बहाने दलितों को हेय बताकर साहित्य किस सम्भाव संस्कृति को प्रश्रय देता रहा है। राजाओं-महाराजाओं के हरम में सैकड़ों पटरानियों का उदाहरण देकर साहित्य नारी-विमर्श को बढ़ावा देता रहा है। साहित्य की इतनी लम्बी कड़ी में ऐसे मानवीय सरोकारों के प्रति उसकी चुप्पी क्या साहित्य को कुछ लोगों की खिलौना बनाकर रखने की नहीं दिखती। आखिर तुलसीदास ने क्यों लिखा कि- ढोर, गँवार, शूद्र, पशु नारी। ये सब ताड़न के अधिकारी॥

स्पष्ट है कि साहित्य कुछेक लोगों के हाथों का खिलौना बनकर रह गया और इन लोगों ने अपने हित में साहित्यिक सरोकारों की व्याख्या की और उन्हें परिभाषित किया। अन्यथा, यदि साहित्य ने इन मुद्दों को पहले उठाया होता, तो इस देश से जाति-प्रथा और छुआछूत कब का समाप्त हो गया होता।

दलित एवं नारी-विमर्श के बहाने साहित्य में लोकतांत्रिक और सामन्ती मूल्यों के बीच टकराव की स्थिति को महसूस किया जा सकता है। यथास्थितिवादी विमर्श के समानान्तर ही "नारी विमर्श" और "दलित विमर्श" खड़े हुए, जिनमें इन वर्ग विशेष के सामाजिक धरातल, यथार्थ और उनके मन की गहरी संवेदनाएँ प्रस्फुटित होती हैं। दलित-विमर्श साहित्य हेतु ज़रूरी है क्योंकि दलितों की आन्तरिक छटपटाहट को भी उसी रूप में साहित्य उजागर करता है। भोगे हुए अनुभवों की प्रामाणिकता दलित साहित्य को जीवन्त बनाती हैं। साहित्य में वाल्मीकि, व्यास, रैदास, कबीर, अछूतानन्द की कड़ी में तमाम दलित साहित्यकार, लेखक एवं चिन्तक आदि आज अपनी आवाज़ मुखर कर रहे हैं, इस साहित्य में वे दलितों की आवाज ढूँढ़ रहे हैं। स्त्री के मजबूरी बने अंतरंग क्षणों को पन्नों पर अपनी कल्पनाओं का रंग देकर उसमें कुछ आधुनिकता व उत्तर आधुनिकता का "देह-विमर्श" का रंग भरकर नारीवादी लेखन का मुलम्मा भरने वाले पुरुषों के विरूद्ध "नारी-विमर्श" की आड़ में महिला साहित्यकार इसलिए आगे आ रही हैं, ताकि नारी को एक "वस्तु" के रूप में पेश न किया जाए। इसी तरह बच्चों के समग्र विकास में बाल साहित्य की सदैव से प्रमुख भूमिका रही है। बाल साहित्य एक तरफ जहाँ मनोरंजन के पल मुहैया कराता है वहीं बाल मनोविज्ञान व बाल मनोभाव के समावेश द्वारा सामाजिक सृजन के दायरे भी खोलता है। बाल साहित्य बच्चों को उनके परिवेश, सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराओं, संस्कारों, जीवन मूल्य, आचार-विचार और व्यवहार के प्रति सतत चेतन बनाने में अपनी भूमिका निभाता आया है। परन्तु आज बाल साहित्य के क्षेत्र में यह सवाल तेज़ी से उठने लगा है कि बच्चों की ग्राह्य क्षमता, मानसिकता और परिवेश में जिस तेज़ी से परिवर्तन हो रहे हैं, उनके अनुरूप बाल साहित्य नहीं रचा जा रहा है। ज़्यादातर पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकों को बाल साहित्य की समझ ही नहीं और वे जो कुछ छापते हैं लोग उसे ही बाल साहित्य समझ कर उसका अनुसरण करने लग जाते हैं, जिससे बाल साहित्य की स्तरीयता प्रभावित होती है। इन पत्रिकाओं में बाल साहित्य आधारित दूरदर्शी सोच का अभाव है। ऐसे में ज़रूरत है कि बाल साहित्यकार रचनाओं में मनोरंजकता के पुट के साथ सुनिश्चित करें कि उनसे किसी अंधविश्वास, कुसंस्कार, कुरीति व अभद्रता को प्रश्रय न मिले। यह नहीं भूलना चाहिए कि बच्चे आनेवाले कल के कर्णधार हैं और बच्चों को प्राप्त शिक्षा, संस्कार और सामाजिक मूल्य ही कल से राष्ट्र का निर्माण करेंगे। इस क्षेत्र में बाल साहित्य की प्रमुख भूमिका है।

साहित्य पर आज तमाम तरह के संकट मँडरा रहे हैं। समाज समस्याएँ उठाने की बजाय साहित्य अपने ही रूपकों में ढल रहा है, जो कि समाज और साहित्य दोनों के लिए उचित नहीं ठहराए जा सकते। बढ़ती व्यावसायिकता के दौर में पुरस्कारों हेतु साहित्यकारों को पीछे भागना, लिखने की अपेक्षा छपवाना ज़्यादा महत्त्वपूर्ण होना, रचना किसी की - नाम किसी का, साहित्यिक संस्थाओं की आपसी गुटबंदी, साहित्यकारों द्वारा एक-दूसरे पर कीचड़ उछालना एवं वैयक्तिक और सामाजिक स्तर पर साहित्यकारों द्वारा दोहरा जीवन जीने जैसे तमाम तत्त्व साहित्य को अवमूल्यन की तरफ ले जा रहे हैं। ऐसे में ज़रूरी है कि आज के सामाजिक अन्तर्विरोधों व सच्चाइयों के व्यापक परिप्रेक्ष्य में समकालीन साहित्य का मानवीय संवेदना से गहरा जुड़ाव हो।

नई पीढ़ी के साहित्यकार सूचना एवं संचार क्रान्ति के इस युग में समय का मूल्य भली-भाँति समझते हैं और रात भर जागकर पन्ने ख़र्च करने में विश्वास नहीं करते बल्कि अर्थव्यवस्था के नियमों की तरह वह माँग आधारित व्यवस्था में विश्वास करते हैं। शायद यही कारण है कि आज लिखने के बजाय छपना ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हो गया है। कोई यह नहीं पूछता कि आपने अभी तक लिखा कितना है। बल्कि सीधा-सा सवाल होता है कि आपका लेख किन पत्र-पत्रिकाओं में और किन लोगों के साथ छपे हैं। तमाम लेखकीय संगठनों एवं सम्पादकों की भी इस सम्बन्ध में अहम भूमिका है। स्पष्ट शब्दों में कहें तो रचनाधर्मिता के ऊपर सम्पादक हावी हैं, जो यह निर्णय करते हैं कि पुरातन क्या है और आधुनिक या उत्तर आधुनिक क्या है? इसी फ़ार्मूले पर चलते हुए साहित्यकार भी वही लिखता है जो लोगों को पसन्द आए। नतीजतन अपनी संवेदनशीलता और अभिव्यक्ति को अधिक प्रामाणिक बनाने के लिए वह कहानी में अनेक प्रकार के ज्ञान-विमर्श, सामयिक समझदारी बनाने के लिए वह कहानी में अनेक प्रकार के ज्ञान-विमर्श, सामयिक समझदारी को भरकर एक अच्छा-ख़ासा सैण्डविच तैयार करने की कोशिश करता है। एक समालोचक के शब्दों पर ग़ौर करें- "किसी महत्त्वाकांक्षी चतुर लेखक के पास अनुभूतियाँ नहीं होतीं अथवा बाह्य दबावों या आन्तरिक बचावों के कारण वह अपनी सच्ची अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने का साहस नहीं कर पाता, इसलिए अपनी प्रतिभा का सिक्का मनवाने या पाठकों को चौंकाने के लिए वह क्लिष्ट और दुरूह या फिर चतुराईपूर्ण और स्मार्ट भाषा का प्रयोग करता है। विदेशी साहित्यिक प्रवृत्तियों से आक्रांत उन्मुक्त लेखन करने वाले युवक लेखकों में भाषा के इन स्मार्ट प्रयोगों की बहुलता है।" ऐसे में संवेदनात्मक सहजता व अनुभवीय आत्मीयता कहाँ से आएगी? यही कारण है कि साहित्य लोकप्रिय होने की बजाय अभी भी जटिल उपमानों और रूपकों में उलझा हुआ है। साहित्य के अधिकतर प्रकाशक सामान्य जन के लिए पुस्तकें नहीं छापते बल्कि सरकारी पुस्तकालयों की ख़रीद के लिए छापते हैं। जो नामचीन साहित्यकार हैं, उनकी पुस्तकें इतनी महँगी होती हैं कि सामान्य जन की हैसियत के बाहर हैं। अधिकतर समकालीन साहित्यकार सामान्य जन की बजाय वर्ग विशेष को ध्यान में रखकर लिख रहे हैं, जो कि स्वयं में एक अन्तर्विरोध है।

किसी भी साहित्यकार के लिए दो बातें महत्त्वपूर्ण होती है। प्रथमतः, उसका परिवेश और द्वितीय पहचाने जाने की इच्छा। साहित्यकार इन दोनों के अर्न्तद्वंन्द्वों से जूझता है, क्योंकि वह स्वतः सुखाय नहीं रचता। क्या वरिष्ठ साहित्यकार इससे असहमति जता सकेंगे कि जब वे निर्णायक मण्डल में होते हैं तो अधिकतर ऐसे ही लोगों को क्यों पुरस्कृत करने का फ़ैसला लेते हैं, जो कहीं-न-कहीं किसी रूप में किसी पत्र-पत्रिका के सम्पादन से जुड़े हुए हैं। इनमें से अधिकतर उनसे किसी-न-किसी रूप में रू-ब-रू हुए रहते हैं। क्या यह माना जाए कि किसी पत्र-पत्रिका से जुड़े रहना एक अच्छा साहित्यकार होने की निशानी है? यही कारण है कि आज साहित्य में जिस तरह सम्मान या पुरस्कार दिए जाते हैं, ज़्यादातर अविश्वसनीय एवं सन्दिग्ध होते हैं। यह स्वयं में शोध का विषय है कि आज पूरे भारतवर्ष में किस साहित्यकार के नाम पर कितने पुरस्कार दिए जा रहे हैं। वस्तुतः आज साहित्य भी आकर्षक पैकिंग के साथ माल के रूप में बाज़ार में बेचा जा रहा है। अभी कुछ दिनों पहले एक प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ने युवा केन्द्रित विशेषांक में एक कहानी प्रकाशित की थी जिसमें नायक जो कि एक छात्र है, को अपनी दूर के रिश्ते वाली बुआ से विशेष लगाव हो जाता है और अन्ततः यह लगाव दैहिक संसर्ग में बदल जाता है। युवा कहानीकार बार-बार अपनी साइकिल और बुआ के रिश्तों को जोड़कर कहानी आगे बढ़ाता है और कहानी के अधिकतर भाग में यह दोहराव ही ज़्यादा है। अब यह तो सम्पादकीय मण्डल के सदस्य ही बता पाएँगे कि साइकिल के काले डंडे की बुआ के शरीर के रंग से तुलना करती दैहिक संसर्ग पर ख़त्म इस कहानी का भावार्थ क्या है। देह-विमर्श पर आधारित यह कहानी साहित्यिक संवेदना के किन उच्च स्तरों को जीवन्त रखने का प्रयास है। पत्रिका के पन्ना पलटकर देखा तो उस युवा कहानीकार को उसी पत्रिका के सम्पादन से जुड़ा हुआ पाया। ऐसे में वर्तमान साहित्य की दशा और दिशा का अन्दाज़ा स्वतः लगया जा सकता है कि वह किस ओर उन्मुख है।

वस्तुतः साहित्य को संवेदना के उच्च स्तर को जीवन्त रखते हुए समकालीन समाज के विभिन्न अन्तर्विरोधों को अपने-आप में समेटकर देखना चाहिए एवं साहित्यकार के सत्य और समाज के सत्य को मानवीय संवेदना की गहराई से भी जोड़ने का प्रयास करना चाहिए। संवेदना की अपनी परिभाषाएँ हैं। जब कोई प्रेमी किसी पर रीझता है तो उसकी अपनी संवेदनाएँ है पर इसके चलते प्रेमिका को परिवार व समाज में जो सहना पड़ता है उसकी संवेदनाएँ हैं। ये संवेदनाएँ अन्तर्विरोधी भी हो सकती हैं, इसलिए यहाँ पर "संवेदना के उच्च स्तर" वाक्य का इस्तेमाल किया है। ज़रूरत है कि समकालीन साहित्यकार इस भावना को समझें और बाज़ारवाद की अंधी दौड़ का अनुसरण करने की बजाय उसके पीछे व्याप्त सच्चाइयों व अन्तर्विरोधों को सामने लाएँ तथा उसका शिकार होने की बजाय एक अच्छे साहित्यकार की भाँति स्वयं को उस मानवीय संवेदना से जोड़ने का प्रयास करें। साहित्य का उद्भव ही संवेदनाओं से होता है। यह एक अलग तथ्य है कि कोई संवेदना सुप्त होती है, कोई अर्धविकसित तो कोई पूर्णतया विकसित होती है। संवेदनाओं के इन स्तर के आधार पर ही वर्तमान साहित्य को विभिन्न श्रेणियों में रखा जाता है और संवेदनाओं का यही स्तर साहित्य की दशा और दिशा निर्धारित करता है। ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता कश्मीरी साहित्यकार डॉ. रहमान राही के शब्दों में- "साहित्य आदमी को आदमी बनाता है। सही ग़लत का एहसास कराता है। नतीजा यह होता है कि उसका इंसान के व्यक्तित्त्व पर प्रभाव पड़ता है। व्यवस्था बदलाव के लिए सियासी नारे की ज़रूरत नहीं होती, सियासी नारे तो हर साल बदल जाते हैं। ज़रूरत इंसान की सोच बदलने की है और साहित्य यह सोच बदलने की क़ाबिलियत रखता है।"

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