अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

भोर भई अब बासी रे!

सुन! साधु औघड़ संन्यासी 
मोह माया मुक्त मुसाफ़िर रे!
ले चल मुझको आन देश 
यहाँ की भोर भई अब बासी रे।


यहाँ की मिट्टी दूषित भई अब 
इसे मिट्टी नहीं धूल पुकारें सब।
यहाँ की हवाओं में छल कपट 
मोह माया युक्त प्रदूषण रे।


संसारिक मोह माया से दूर 
ले चल मुझको तू दूर शहर।
ढूँढ़ डगर उस बस्ती की तू 
जहाँ शृंगार का भी ना कोई साथी रे।


सुन साधु औघड़ संन्यासी 
यहाँ की भोर भई अब बासी रे।
ले चल मुझको आन देश 
यहाँ की साँस भी मुझ पर भारी रे।


ले चला एक औघ ऐसा तू 
जिसमें छल कपट सारे बह जाएँ।
हो रफ़्तार बहाव में तेरी की 
भवन मोह माया के ढह जाएँ।


उस औघ में तू मुझको भी समेट ले 
बहा संग अपने कहीं दूर धकेल दे।
हो कोलाहल से दूर बस्ती ऐसी 
जहाँ हों प्रकृति के असली वासी रे।


एक निशा तू कान्हा हित सी करना 
सबको गहरी निद्रा दे चलना।
ज्यों ही भोर भए पूर्व उससे 
सबकी स्मृति से मेरा हिस्सा ले चलना।


जो फिर भी कोई ना भूल पाए
 प्रश्नों की बाढ़ चली जाए।
जो पूछ बैठें कुटुंब सदस्य हमारे 
कहाँ गई मेरी सुता रे।


तो कह देना कल औघ आया था
उसमें बह गई तेरी सुता रे।
जो पूछ बैठे मेरे प्रेम का साथी
कहाँ गई मेरी हृदय की वासी रे।


तो कह देना शृंगार रस एवं मायामुक्त 
वह बन बैठी एक मुसाफ़िर रे!
माया मुक्त होना छल ना समझना तू 
वह तो तेरे आत्मसदन की वासी रे!


सुन साधु औघड़ संन्यासी 
मोह माया मुक्त मुसाफ़िर रे!
ले चल मुझको आन देश 
यहाँ की भोर भई अब बासी रे।


इसी जगत बीच एक कोना ऐसा भी
जहाँ सुख शांति समृद्धि हो।
ना हो कोई कोलाहल मचाने को 
बस कण में गूँजती पुकार आत्मिक हो।


ऊपर देखूँ तो नीला गगन हो
नीचे देखूँ तो मनमोहक चमन हो।
अगल देखूँ तो पर्वत हो साथी 
बगल देखूँ तो नदियों का पानी।


पीछे देखूँ तो महसूस होती हवाएँ
सामने देखूँ तो दूर दिशाएँ।
इस दूर दिशा को नापन ख़ातिर
मैं अकेले पथ पर चलती जाऊँ।


पर पल हर क़दम पर मैं
सुकून शांति की अनुभूति करती जाऊँ।
स्थिर संन्यासी की भाँति नहीं
मैं घुमंतू मुसाफ़िर बनती जाऊँ।


सुन साधु औघड़ संन्यासी
मोह माया मुक्त मुसाफ़िर रे!
ले चल मुझको आन देश 
यहाँ की भोर भई अब बासी रे॥

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं