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भ्रष्टाचार युगे-युगे

स्वतन्तत्रता प्राप्ति के बाद हमारे देश में एक चीज़ ने दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति की है। उसकी प्रगति ने आई.एस.ओ. 9000 के भी मानकों को धता बताकर जो गुणवत्ता का मानक बनाया है, उससे हमारे देश का विकास चरम सीमा पर पहुँच गया है। मेरे नाम न लेने पर भी आप समझ ही गये होंगे कि यह गोल्ड मैडेलिस्ट कौन हैं? चलिये हम ही ख़ुलासा किये देते हैं कि ये कीर्तिमान स्थापित करने वाले स्वर्णपदक विजेता हैं – श्रीमान भ्रष्टाचार! आग़ोश में हैं। भ्रष्टाचार मुक्त साँस भी अब दुर्लभ है। इस भ्रष्टाचार की एक साथिन भी है— रिश्वतखोरी। इन दोनों का एक दूसरे से ऐसे ही संबंध है जैसा चोर का गिरहकट से, अपराधी का सिपाही से, अँधेरे का रात से...। इनके प्रगाढ़ संबंधों को देखते हुए मन में जिज्ञासा हुई कि कि भ्रष्टाचार की जड़ कितनी गहरी है कि कोई उसे निर्मूल नहीं कर पा रहा है। शिवशंकर के शिवलिंग की तरह जितना खोदो उतनी जमती जाती है। तब एकाएक ध्यान आया कि उत्पति का कोई न कोई रहस्य होगा। जैसे संसार के सभी देवी- देवता, जड़-चेतन की उत्पति, आचार, व्यवहार, रंग-रूप की रचना का प्रारंभ है, ऐसे ही भ्रष्टाचार का भी होना चाहिये? मन में अनायास उठे प्रश्न के समाधान के लिये जब ग्रंथों को पलटना शुरू किया तो भ्रष्टाचार के जन्म की कथा हाथ लग गई। या यूँ कहिये अँधे के हाथ बटेर लग गई। यह कथा इस प्रकार है :-

जब बह्मा जी सृष्टि कर रहे थे तो उन्होंने नाना प्रकार के जीव जन्तु बनाये। उन्हें भाँति–भाँती के रंग, आचार–व्यवहार, गुण-अवगुण प्रदान किये। इस क्रम में क्रमानुसार प्रत्येक वस्तु आती गई और एक एक गुण लेती गई। अंत में रोता-कलपता भ्रष्टाचार आया। उसने ब्रह्मा जी पर आते ही आरोप लगाया कि आप पक्षपाती हैं, आपने सबके साथ समान व्यवहार का प्रण पूरा नहीं किया। उसने ब्रह्मा जी पर बहुत से आरोप लगा दिये। ज़ोर–ज़ोर से बोलने के साथ-साथ भ्रष्टाचार शोर मचा रहा था और गला फाड़ कर रोता जाता था। ब्रह्मा जी ने भ्रष्टाचार को रोना-धोना बंद कर चुप होने को कहा! फिर उससे रोने का कारण पूछा। भ्रष्टाचार बोला, "महाराज मेरे साथ बड़ा अन्याय हुआ है, आपने सत्य, अहिंसा, कर्मठता, निष्ठा आदि को सारे गुण दे दिये, उन्हें दिन व उजाला आदि, सारी जगह दे डाली, ज़रा भी नहीं सोचा मैं कहाँ रहूँगा। मेरा गुज़ारा कैसे होगा?" ब्रह्मा जी सोच में पड़ गये। कुछ समय बाद सोच कर बोले कि "वत्स परेशान न हो, मैंने तुझे सुई की नोंक जितनी जगह दे दी है।" इतना सुनना था कि भ्रष्टाचार धाड़ मार कर रोने लगा कि "हाय-हाय, मैं तो मर गया, मेरा क्या होगा? यहाँ भी इतनी अँधेरगर्दी मचा रखी है, अब मैं कहाँ जाऊँ?" उसका रोना-धोना सुन कर ब्रह्मा जी चौंक पड़े और दिलासा देते हुए बोले, "तुमने आधी बात सुन कर हाय तोबा मचा दी। तेरा स्थान तो सुई की नोंक के बराबर होगा परन्तु प्रभाव सुई भी नोंक की तरह प्रभावकारी होगा दुखदायी होगा।" भ्रष्टाचार लाचार, असंतुष्ट सा चला आया। भागते भूत की लंगोटी भली! फिलहाल उसे सम्हालता भ्रष्टाचार, भू लोक पर उसकी सच्चाई नापने उतरा।

भूलोक में- भारत में उस समय सतयुग का समय था। सत्य की सर्वत्र जय-जयकार थी। सत्य के मूर्तिमान, राजा हरिशचंद्र सत्ताधीश थे। जनता सुखी व समृद्ध थी। उनका जीवन संतोष व शान्तिपूर्ण था। लेकिन आपको ये जान कर आश्चर्य होगा कि वहाँ भी एक वर्ग त्राही-त्राही कर रहा था। असत्य का सत्य के बोझ से दम निकलने ही वाला था। पक्षपात, कालाबाज़ारी, घूसखोरी, पक्षाघात से पीड़ित थे। धर्म ओर योग्यता के सामने अधर्म व अयोग्यता नाक रगड़ रही थी। देवताओं का सोर्स भी राजरोग से पीड़ित हो वैद्यराज के चक्कर काट रहा था। दुर्दिनों में अँधेरों की साँस अब आई तब गई हो रही थी। तभी जुगनु की तरह मुनि विश्वामित्र, उधार की रोशनी के तारे की तरह रजनी की गोद में चमके। सभी कुदैव के मारों ने मुनि विश्वामित्र के पैर ही नहीं पकड़े वरन् साक्षात दण्डवत करने लगे। मुनि इस अकारण भक्ति व श्रद्धा से चौंके ओर उनसे इस तरह चरणों में गिरने का कारण पूछा। सभी ने सत्य, अहिंसा, निष्पक्ष न्याय, सम्मति के अत्याचारों की दास्तान सुना दी। विश्वामित्र तो विश्वामित्र मुनि ठहरे, उन्होंने हरिशचंद्र के सत्य की परीक्षा लेने की ठान ली। बस फिर क्या था, आनन-फानन में हरिशचंद्र को स्वप्न में ठग लिया। राजा हरिशचंद्र से उनका राज-पाट, ख़ज़ाना सब दान में माँग लिया और दक्षिणा में स्वर्ण मुद्रायें भी, जो उन्हें कमा कर देनी होंगी। राजा हरिशचंद्र ने उन्हें पूरा करने का वचन दे दिया। स्वप्न – सत्य की किरणों अर्थात सूर्य के आगमन के साथ ही उल्लू सा छिप गया। स्वप्न में प्रधानमंत्री बनने पर क्या कोई प्रधानमंत्री बन सकता है? स्वप्न तो स्वप्न है। सच भी हो सकता है और नहीं भी। स्वप्न अंधकार की कोख में जन्मा विकार है। उसका अस्तित्व ही कहाँ होता है। परन्तु बात सतयुग की थी। एक तरफ़ राजा हरिशचंद्र तो दूसरी तरफ मुनि श्रेष्ठ विश्वामित्र!

सुबह हुई तो राजा हरिशचंद्र राज दरबार में राजकाज करने के लिये पधारे। तभी मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र की भी दरबार में आने की सूचना मिली। राजा हरिशचंद्र ने मर्यादा के अनुसार धर्म पूर्वक उनका स्वागत सत्कार किया ओर उनके आगमन का हेतु जानने का आग्रह किया? मुनि ने राजा को स्वप्न की बात याद दिलाई। राजा हरिशचंद्र ने तुरंत स्वप्न की सभी बातें मुनिश्रेष्ठ को दोहरा दीं। मुनि ने इस तरह दान में दिया राजपाट देने का आग्रह किया। दान की दक्षिणा में स्वर्ण मुद्रायें देने का प्रस्ताव रखा। राजा हरिशचंद्र स्वप्न में दिये इस दान से बँधे नहीं थे। स्वप्न व यथार्थ दो भिन्न-भिन्न धरातल हैं। लेकिन शायद सतयुग में स्वप्नलोक व यथार्थलोक एक था अथवा किसी षड़यंत्र का हिस्सा था, जिसमें धर्म-प्राण राजा को पदच्युत करने का बहाना स्वप्न को बनाया गया था।

वर्तमान युग में अगर प्रधान मन्त्री नरसिंह राव, दैवगौड़ा, लालू प्रसाद, मायावती, सोनिया गाँधी..... होती तो ऐसे षडयन्त्र की जाँच करने का काम तुरंत सी.बी.आई. को सौंप देते। राजपद त्यागने की माँग करने वालों को तुरंत मीसा में जेल में बंद करवा देते। या फिर मुनिश्रेष्ठ के सम्मान में जो अंगवस्त्र उढ़ाते उसमें छिपा बम मुनि के परखचे उड़ देता। ऐसा ख़ौफ़नाक उदाहरण पेश करते कि कोई भविष्य में स्वप्न या स्टिंग आपरेशन, हवाला और मैनिफ़ेस्टो के नाम से कुर्सी से हटाने माँग भी स्वप्न तक में न कर पाता। भूलिये नहीं यह बात सतयुग की है और राजा थे हरिशचंद्र! राजा ने मुनिश्रेष्ठ का अभिवादन किया. विनम्रता से राजपाट उन्हें सौंप कर दक्षिणा के लिये द्रव्य कमाने चल दिये। जो कल तक राजा, रानी व राजकुमार थे अब बिकाऊ माल हो गये। काशी व आस-पास के इलाक़े में उन्हें खरीदने को कोई तैयार न हुआ। अंत में एक डोम ने उन्हें खरीदा। रानी को एक महाजन दासी का काम करवाने ले गया। आगे की कथा हिंदी जगत में सब जानते हैं।

मुनिश्रेष्ठ को राजपाट मिल जाने से अँधेरों की तो बाँछें खिल गईं। उजालों की मुश्क बाँध कर सात तालों वाले कारागार में डाल दिया। अधर्म, अयोग्यता, असत्य, कालाबाज़ारी, घूसखोरी, भ्रष्टाचार की पौ बारह हो गई। मुनि विश्वामित्र के सोर्स ने सोर्सराम की महिमा का ऐसा गुणगान किया कि सर्वत्र उसका प्रसार दुर्गंध सा फैल गया। अब क्या था? भ्रष्टाचार ने प्रसन्न मुद्रा में ब्रह्मा जी का धन्यवाद किया। एक मिथ्या बात! ..स्वप्न का इतना दूरगामी व्यापक प्रभाव-प्रसार देख कर भ्रष्टाचार ख़ुद बेहोश हो गया।

इस भ्रष्टाचार का परिवार इतना फला-फूला कि भारत अँग्रेज़ों के शासन से तो मुक्त हो गया परन्तु इसकी पकड़ से आज तक स्वतन्त्र न हो सका! इसका परिणाम यह हुआ कि स्वतन्त्र भारत का कोई भी बच्चा (अपवाद छोड़कर) सत्यवादी बनने का स्वप्न में भी ध्यान आने पर पीपल के पत्ते की तरह काँपने लगता है। वह सोते-जागते, चलते-फिरते, केवल भ्रष्टाचार को देखता–सुनता और गुनता है। भारत का व्यक्ति प्रतिदिन सत्य-धर्म का हरिश्चन्द्र घाट पर क्रिया कर्म करता है। और भ्रष्टाचार का प्रचार-प्रसार व पालन दम-ख़म से करता है।

सतयुग के बाद प्रलय हो गई। सत्-असत् सब जलमग्न हो गया। इसलिये किसी के भी बचने की संभावना नहीं थी। लम्बे अंतराल के बाद जब त्रेता युग प्रारंभ हुआ तो गुणों के साथ अवगुण भी नये-नये रूप के कलेवर तथा नाम धर कर प्रकट हो गये। सत्य का कलेवर मर्यादा का जामा पहिन कर आया। मर्यादा परुषोतम राम ने त्रेता युग में व्याप्त आसुरी शक्तियों का विध्वंस कर मर्यादा की प्राण-पण से रक्षा की। भ्रष्टाचार जल में वायु की तरह रह कर राम की मर्यादा का राम नाम सत् करने की घात लगा कर बैठ गया। मौक़ा पाते ही कपड़े धोने आये धोबी के कान से सिर में समा गया। बेसिर-पैर की बातें पंखों पर सवार हो आनन-फानन में अयोध्या के नर-नारियों की ज़ुबानी बन गईं व सत्य जानने की इच्छा या सत्य-शोधक बनने की जिज्ञासा लोकोपवाद में शून्य के बराबर होती है। बात का बतंगड़ बनते देर न लगी। बात का इतना व्यापक असर हुआ कि धोबी ने एक रात किसी कारणवश घर न लौटने वाली पत्नी से कोई सहानुभूति दिखाने अथवा किन संकटों में पड़ कर रात तक घर न लौट पाने की मजबूरी को जानने का हल्का सा भी प्रयास नहीं किया। उसे अपनी बात कहने का मौक़ा दिये बिना यह कह कर घर से निकाल दिया कि "वह राजा राम नहीं है जो रावण के घर रह कर आने वाली सीता को अपनी पत्नी के रूप में घर में रख ले"। इस तरह धोबी ने धोबिया पाट से पीट-पीट कर राम की मर्यादा के धो डाला। भ्रष्टाचार फिर बिना पंख के उड़ने लगा।

भ्रष्टाचार का सुई की नोंक के बराबर का अस्तित्व राजाराम और माता सीता के संबंधों में चुभ गया। राम ने राजा की मर्यादा निभाने के लिये, लोकोपवाद का सामना, अपने प्राणों से प्रिय सीता जी को अयोध्या से दूर भेज दिया। मेरी इस बात का नारी मुक्ति आंदोलन वाले तथा पश्चिमी सभ्यता के हामी व संस्कारों में पले व्यक्ति उपहास करेंगे। लेकिन रावण के यहाँ सम्मान की रक्षा कर लेने वाली सती साध्वी सीता अपनी ही ससुराल में लोकोपवाद बना हास्यास्पद बना दी गई। उसे अधम, नीच, कुलटा, पतिता आदि संज्ञा दे दीं। ऐसी स्थिति में उसका सम्मान, उसका उचित स्थान स्थापित करने का तरीक़ा क्या था? विकल्प और क्या रास्ता था? जिससे न केवल त्रेता युग में वरन् युग-युगातंर में सीता के सतीत्व का नाम हो, उसे राजा राम की सहधर्मणि के रूप में याद किया जाये? आइये विकल्पों पर एक नज़र डालें; प्रथम राम राज्य त्याग कर सीता के साथ चले जाते, तो क्या सीता की मर्यादा लोक जीवन में स्थापित हो जाती? वरन् राम के राज्य त्यागने से भ्रष्टाचार का उद्देश्य पूरा हो जाता, उसे मज़बूत धरातल मिल जाता। सच सदा के लिये अँधेरों का ग़ुलाम हो जाता। राम की मर्यादा बदनाम हो जाती। द्वतीय विकल्प था कि राजा राम धोबी को सीता पर लगाये अरोपों को प्रमाणित करने को कहते, और न कर पाने पर दण्डित करते। सीता माता पर झूठा आरोप लगाने के ज़ुर्म में मृत्यु दण्ड दे देते। उदाहरणीय दण्ड स्वरूप सार्वजनिक स्थान पर फाँसी पर चढ़ा देते। परंतु राजदण्ड का यह उपयोग निंदनीय कहलाता। धोबी से प्रमाण माँगने का एक अर्थ होता कि सीता जी को जन अदालत में अपनी सफ़ाई देने को बुलाना अर्थात नंगा करना। जैसा आजकल हो रहा है। (अगर किसी को संदेह हो तो बलात्कार के केस की सुनवाई अदालत में जाकर सुन ले) क्या यह राम की मर्यादा के अनुरूप होता? क्या इससे सीता जी निर्दोष मान ली जाती? लोकोपवाद में संशय का बीज नहीं रह जाता? राजा राम के लिये यह कहावत चरितार्थ कर दी जाती; "जिसकी लाठी उसकी भैंस"। इससे सीता जी महारानी तो क्या नारी पद से भी गिर जातीं। छुरी खरबूजे पर गिरे या खरबूजा छुरी पर हलाल तो खरबूजा ही होता है। धोबी ने कहा सबके मन में संदेह का बीज उग गया अब राम–सीता क्या करें? "गली गली ढोल पिटवा दें कि धोबी झूठ बोल रहा है सीता जी निर्दोष हैं।" इसका परिणाम क्या होगा? सोचिये! क्या सीता निर्दोष मान ली जायेगीं? ये तो ऐसा ही होता जैसा नारी मुक्ति आनदोलन के साथ हुआ। नारी मुक्ति आंदोलन की लहर आने पर स्त्रियाँ घर से बाहर निकलीं तो पुरुषों ने कहा कि बराबरी करने चली हो तो ये कर के दिखाओ वह कर के दिखाओ। परिणाम क्या हुआ दिखाने देखने के चक्कर में घर और बाहर दोनों के काम सिर पर सवार हो गये और सम्मान घेलुए में लुट गया। अभी बात सीता के पतिता होने की थी, तो मेरा विनम्र निवेदन है कि क्षण भर को ख़ुद इस स्थिति का साक्षी बना समाधान सोचिये, और फिर सीता व श्रीराम की वेदना तथा प्रयास को समझने का प्रयास कीजिये। आप शायद कुछ न सोच पायें क्योंकि आजकल रोज़ यही हो रहा है।

राजा राम ने स्वयं को दो भागों में बाँट लिया, एक भाग राजा राम का तो दूसरा सीता पति राम का। राम ने कुचक्री भ्रष्टाचार का सामना करने की कमर कस ली। रावण को मारने वाले राम, रूप रंग, आकारहीन भ्रष्टाचार का मुक़ाबला कैसे करें? जैसा शत्रु वैसे ही अस्त्र-शस्त्र चाहियें? उन्होंने बाल्मिकी की राम-सीता कथा के माध्यम से इस लोकोपवाद का सामना किया। लोकोपवाद का तिमिर जैसे-जैसे छँटता गया वैसे-वैसे जनता–जनार्दन को सत्य के तेज का दर्शन होने लगा। धोबी का बात झूठ लगने लगी। उनको सीता जी पर ऐसा आरोप लगाना अनुचित लगने लगा। अवमानित सीता जनता–जनार्दन के हृदय में सती, सतीत्व तथा सत्य का पर्याय वन विराजमान हुई। राजा राम के नाम में सीता का नाम अभिन्न रूप से जुड़ गया। सीता का नाम राम के नाम से पहले लिया जाने लगा। त्रेता युग समाप्त हो गया। भ्रष्टाचार अपने व्यापक प्रचार–प्रसार की महिमा देख फूला न समाया और फिर जलमग्न हो गया।

प्रलय काल में जब सब जलमग्न हो गया तो सृष्टि के बीज क्षिति, जल, पावक, समीर, गगन में समा गये। द्वापर में जब पुन: सृष्टि की रचना हुई तो सभी गुण - सत्–असत्, गुण–अवगुण नये-नये रूप रंग में प्रकट हुए। हस्तिनापुर में एक विशाल राज्य की स्थापना हुई। हस्तिनापुर का राजा बनने के लिये क्षत्रिय या राजपुत्र होना आवश्यक नहीं था। राजा किसी भी योग्य व्यक्ति को बनाया जा सकता था। योग्य राजाओं के नेतृत्व में हस्तिनापुर का राज्य शक्तिशाली तथा सुख-समृद्धि सम्पन्न हो सर्वत्र स्पृहणीय बन गया। भ्रष्ट+आचरण = भ्रष्टाचार सुई की नोंक पर बैठा आँसू के घूँट पीता रहा! भ्रष्टाचार फिर भी निरंतर समय की घात में लगा रहा। वक़्त बदला। भ्रष्टाचार की सुई की नोंक महाराजा शांतनु के दिल में स्त्री मोह के रूप में चुभ गई। बस भ्रष्टाचार के दिन फिर गये। सत्यवती के पिता ने सत्यवती से विवाह करने की जो शर्त रखी शांतनु ने उसे मान लिया। अपने ज्येष्ठ सर्वश्रेष्ठ योग्य गंगापुत्र भीष्म को न केवल राजपद के अधिकार से बेदख़ल कर दिया वरन् उनसे आजन्म विवाह न करने का भी वचन ले लिया। पिता के काम की इच्छा पूरी करने के लिये पुत्र को बलिदान देना पड़ा। अयोग्यता का भ्रष्टाचार अपने रंग जमाने लगा। अंधे धृतराष्ट्र को शांतनु के बाद गद्दी पर बिठा दिया गया। उनका पत्नी गंधारी ने भी आँखों पर संतान मोह की पट्टी बाँध ली। परिणाम यह हुआ कि पांडवों का बार-बार देश निकाला दिया गया। पांडव योग्य थे, यही उनकी अयोग्यता का कारण था। उनके कानूनी अधिकार का बार-बार हनन इसी भ्रष्टाचार की महाभारत है। इस तरह भ्रष्टाचार प्रभावी होता गया। रिश्ते-नाते जैसे भाई-बहिन, देवर-भाभी, गुरु-शिष्य, माता-पुत्र आदि के संबंध राजनीति की बिसात पर मोहरे बन गये। मामा शकुनि के पासों में भ्रष्टाचार ने समा कर हस्तिनापुर की भरी सभा में भ्रष्ट-आचरण का जो नंगा नाच किया वह सदियों की त्रासदी बन गया।

उधर मथुरा में एक विशाल, शक्तिशाली राज्य की स्थापना हुई। उसका राजा उग्रसेन बहुत प्रतापी व नेक था। उसका पुत्र कंस अपने पिता का उत्तराधिकारी था। वह योग्य था। उसकी एक बहन थी जिसे वह बेहद प्यार करता था। भ्रष्टाचार यहाँ नारद की वाणी में समा गया। नारद की वाणी सुई की नोंक की तरह कंस के कलेजे में बिंध गई। पहले उसने अपने पिता उग्रसेन व माता पवन रेखा को जेल में डाल कर राज्य हड़प लिया। उसके बाद अपनी प्यारी बहन देवकी व बहनोई वासुदेव को जेल में डाल दिया। नारद की इस घोषणा से कि देवकी का आठवाँ पुत्र उसकी मृत्यु का कारक होगा, कंस इतना डर गया कि उसने देवकी–वसुदेव पर कड़ा पहरा बिठा दिया। जैसे ही देवकी किसी पुत्र को जन्म देती वैसे ही कंस उसे मार डालता। एक-एक कर कंस ने देवकी की सात संतानों को मार डाला। इस से भय और आतंक का सर्वत्र ऐसा प्रसार हुआ कि न्याय, योग्यता, सदाचार, नैतिकता आदि सदगुणों को भ्रष्टाचार लील गया। कुरुक्षेत्र का युद्ध इसका अन्तिम पड़ाव बना। भ्रष्टाचार अपने प्रभाव व प्रसार को देख फूला न समाया। उसने ब्रह्मा का दिल से धन्यवाद दिया कि सुई की नोंक जितना स्थान भी पर्याप्त है। द्वापर में भ्रष्टाचार ने ऐसे रंग दिखाये कि सभी कर्मों तथा संबंधों पर भ्रष्ट आचरण का रंग चढ़ गया। युग पुरुष श्रीकृष्ण ने काम, लोभ, मोह, पद, मद, अंह, अविश्वास की कालिमा को निष्काम कर्मयोग तथा भक्ति के प्रकाश से धोने का कार्य किया। भय और आतंक के बादल छँट गये और एक बार फिर भ्रष्ट आचरण की लगाम कस दी गई। द्वापर के बाद प्रलय हुई, जिसमें कर्म–कर्म सभी बह गये। सर्वत्र नीरवता व शून्य व्याप्त हो गया।

कलियुग कि जैसे ही रचना शुरू हुई भ्रष्टाचार राजा परिक्षित की जटाओं में मरा साँप बन लटक गया। मृत्यु के भय ने भयंकर अंधकार चारों ओर फैला दिया। कलिकाल में सत् दया, करुणा, अहिंसा, शील, विवेक के रूप में अन्तरात्मा में बस गये। क्रूरता, हिंसा, दुराग्रह, वासना, अभिमान आदि ने पाँव पसारने शुरू कर दिये। स्वतन्त्र भारत में भ्रष्टाचार "सोर्स" अर्थात सिफ़ारिश की शक़्ल अख़्तियार कर जनता जनार्दन की नस-नस में समा गया। काला धन उसकी संतति के रूप में चंद्रमा की कलाओं सा बढ़ने लगा। स्वतन्त्र भारत की कांग्रेस सरकार ने इसका जड़ से सफ़ाया करने की शपथ कई बार खाई। पर वह इसका एक भी बाल उखाड़ने की जगह उसका जंगल बढ़ाती चली गई। यह काला धन बढ़ते–बढ़ते स्विस बैंक तक पहुँच गया। अब देखते हैं कि काले धन का उँट किस करवट बैठता है।

निष्कर्ष :

भ्रष्टाचार में भ्रष्ट आचरण के सभी पहलू शामिल हैं। फिर भी सतयुग, त्रेता युग, द्वापरयुग में भ्रष्टाचारी इने-गिने ही व्यक्ति थे। उनके जीवन के समस्त क्रियाकलापों पर विचार करें तो उन्होंने कुछ समय ही भ्रष्टाचार किया। लेकिन उसका प्रभाव इतना अधिक हुआ कि सारा जनजीवन ही अस्त-व्यस्त हो गया। कुछ समय के लिये हिंसा–प्रतिहिंसा, ईर्षा–द्वेष. तथा दुराग्रह-दुराभिमान का अंधकार छा गया। फिर भी सत् अटल रहा। उसे बदला नहीं जा सका। धर्म ने अधर्म तथा सत्य ने असत्य पर विजय प्राप्त कर भय व आतंक से जनता को मुक्ति दिलाई। इससे स्पष्ट है कि सत्यम, शिवम, सुन्दरम ही सहज मार्ग है। जिसमें सबके कल्याण की परिकल्पना है। भ्रष्टाचार व्यक्तिवादी संकीर्णताओं का पोषक है जो स्वयं आधारहीन है और झूठ फरेब के अंधकार में ड़ूबा है। वह न तो स्थाई और न ही सर्वजन हिताय हो सकता है। युगों की संक्षिप्त टिप्पणी से यह स्पष्ट है। युगों–युगों की इन कथाओं से हमें विचार करना होगा कि हम चाहते क्या हैं? हमारा रास्ता क्या हो? हमारा उद्देश्य क्या हो? अन्यथा इतिहास मानव का सदा उपहास करेगा।

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