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भूमंडलीकरण और हिन्दी सिनेमा

आज समूचा विश्व परिवर्तन की प्रक्रिया से गुज़र रहा है। यह परिवर्तन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक धरातलों पर बहुत तेज़ी से घटित हो रहा है जो कि निरंतर जारी है। समस्त भूमंडल में नई शताब्दी के आविर्भाव के साथ ही विचित्र एकध्रुवीय वैचारिकता का प्रसार बहुत तेज़ी से हो रहा है। समस्त विश्व को एक समान जीवन विधान में बाँध कर रख देने का यह षडयंत्रपूर्ण प्रयास अमेरिका ने किया है और इसमें संदेह नहीं कि इस परिवर्तन को संसार पर लादने के पीछे उसके निहित स्वार्थ हैं। समस्त संसार को एकध्रुवीय बनाकर विश्व राजनीति और आर्थिक व्यवस्था को निगल लेने का यह उपक्रम दिनों दिन तेज़ी से विश्व के सभी देशों में संक्रामक रोग की भाँति व्याप्त होता जा रहा है। अमेरिका की इस भूमंडलीकरण की आर्थिक नीति ने विश्व के निर्बल देशों की स्वायत्तता और सार्वभौमिकता को नष्ट करने का प्रयास किया है। राष्ट्र विशेष की सभ्यता और संस्कृति जो कि किसी भी समाज की जीवन शैली और परम्पराओं को निर्धारित और संपोषित करती है उस बुनावट और ताने-बाने को भूमंडलीकृत आर्थिक विधान ने पूरी तरह तहस-नहस कर केवल अमरीकी वर्चस्व को हर राष्ट्र और समाज पर बलपूर्वक लादने का प्रयास किया है।

भूमंडलीकरण की प्रक्रिया मूलत: आर्थिक एकीकरण की बाज़ारवादी नीति है जो हर वस्तु, पदार्थ, व्यक्ति, समाज और राष्ट्र को बिकाऊ "वस्तु" में रूपांतरित कर उसका मूल्य निर्धारण अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार के नियमों के अनुसार कर दिया जाता है। यह एक वर्चस्ववादी आर्थिक व्यवस्था है जो कि समाजवादी दृष्टि से हानिकारक और अप्रत्यक्ष रूप से शोषण-केन्द्रित है। आज समूची विश्व सभ्यता और संस्कृति इसी भूमंडलीकरण की प्रक्रिया का शिकार हो गई है। इस प्रक्रिया के प्रभाव से सभी देशों की सामाजिकता, रहन-सहन, वैचारिकता, साहित्यिक मान्यताएँ, और सांस्कृतिक मूल्य बाज़ार के अनुकूल परिवर्तित हो गए हैं। सिनेमा का क्षेत्र भी इस भूमंडलीकरण के प्रभाव से अछूता नहीं रहा। केवल भारत ही नहीं बल्कि विश्व सिनेमा भी इस प्रक्रिया के दौर से गुज़र रहा है। इसीलिए वर्तमान हिंदी सिनेमा का आकलन भूमंडलीकरण की प्रक्रिया से पृथक रखकर नहीं देखा जा सकता है। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया द्वारा वैश्विक व्यापार को बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय सरकारें स्वयं प्रतिबंधों को हटा रही हैं। तकनीकी विस्फोट के कारण राष्ट्रीय सरकारें पूँजी तथा सेवाओं के परिचालन को रोकने में अक्षम हो गई हैं। विश्व स्तर पर आर्थिक असुरक्षा की भावना चरमावस्था पर पहुँच चुकी है। ऐसा पहले कभी महसूस नहीं किया गया था। भूमंडलीकरण ने राष्ट्रों की पारस्परिक निर्भरता को इतना बढ़ा दिया है वह स्वतंत्र रूप से अपने-अपने नागरिकों के कल्याण के लिए नीतियाँ भी नहीं बना सकते हैं। निस्संदेह, बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक से भूमंडलीकरण शब्द का चलन न केवल बढ़ा है, बल्कि उसके व्यापक प्रयोग ने लोगों में नई घबराहट उत्पन्न की है। कुछ इसे पूँजीवाद के आर्थिक वर्चस्व तथा कमज़ोर अर्थ व्यवस्थाओं के पतन का कारण मानने लगे हैं। यही नहीं भूमंडलीकरण को राष्ट्र-राज्यों के विघटन के लिए दोषी ठहराया जाने लगा है। विद्वानों ने इसके सांस्कृतिक प्रभावों को विश्व की सभी लघु-संस्कृतियों के अस्तित्व के लिए घातक बतलाया है।

भूमंडलीकरण की प्रक्रिया से उत्पन्न बाज़ारवाद ने समूचे भारतीय जीवन शैली को प्रभावित किया है और सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों पर प्रहार किया है। निजी स्वार्थ को इस बाज़ारवाद ने बढ़ावा दिया है जिससे व्यक्ति पारिवारिक और सामाजिक संबंधों को ध्वंस करता हुआ अकूत धनोपार्जन की अंधी दौड़ में शामिल हो गया। व्यक्ति केवल निजी स्वार्थ की सिद्धि के लिए येन-केन प्रकारेण वैध-अवैध तरीक़ों से धनराशि एकत्रित करने में जुट गया। बाज़ारवादी आर्थिक व्यवस्था ने राजनीतिक भ्रष्टाचार को चरम पर पहुँचा दिया। भूमंडलीकरण की आर्थिक प्रणाली ने व्यक्ति और समाज को उपभोक्तावादी व्यवस्था में तबदीलकर दिया। इसका परिणाम यह हुआ की समाज पश्चिमी जीवनशैली की नक़ल करने के लिए उपभोग के नए नए रास्ते तलाशने लगा। उपभोक्तावादी समाज और राजनीति ने भारतीय समाज को पश्चिमी सांस्कृतिक उपनिवेश में रूपांतरित कर दिया। भारतीय समाज पर पूरी तरह से मूल्यहीन उपभोक्तावादी संस्कृति हावी हो चुकी है। सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मूल्य ढह गए हैं। भारतीय जीवन शैली, रहन-सहन, खान-पान और आचार-विचार की व्यावहारिकता में विदेशीपन प्रवेश कर गया है। साहित्य और अन्य कलाओं पर भी इसका असर पड़ा है। सिनेमा भारतीय जीवन शैली का अविभाज्य अंग है। टेलीविज़न के प्रचलन में आने से पहले लोगों के लिए यही एक मात्र मनोरंजन का साधन रहा है। टेलीविज़न के हस्तक्षेप के बाद भी सिनेमा आज भी भारतीयों के जीवन का निर्विकल्प हिस्सा है। भूमंडलीकरण की आँधी ने इस माध्यम को भी अपने चंगुल में दबोच लिया। इस कारण भारतीय सिनेमा पर उपभोक्तावादी संस्कृति का सीधा प्रभाव दिखाई पड़ा। आज के बाज़ार का सिद्धान्त है "त्वरित-कमाई" अर्थात "क्विक मानी", कम से कम समय में अधिक से अधिक कमाई। इसीलिए आज फ़िल्मों का निर्माण अत्यल्प समय में भारी लागत से किया जा रहा है और इन फ़िल्मों को अधिक से अधिक सिनेमा घरों में ऊँची टिकट दरों पर प्रदर्शित कर तत्काल (एक ही सप्ताह में) लागत के साथ भारी लाभ भी कमाया जाता है। इस समूची प्रक्रिया में फ़िल्म से जुड़े सभी मुद्दे न्ज़रंदाज़ कर दिये जाते हैं। फ़िल्म (कथानक) का उद्देश्य, दर्शकों की अभिरुचि, जीवन मूल्य, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्य आदि सब कुछ ताक पर रख दिया जाता है। आज की अधिकांश फ़िल्में एक विचित्र, निरर्थक, उद्देश्यहीन, सस्ते मनोरंजन को परोसने वाली और पश्चिमी जीवन शैली को भारतीय समाज पर आरोपित करने वाली ही दिखाई देती हैं।

पचास का दशक हिंदी सिनेमा का सुनहरा काल रहा है, जब क्लासिक फ़िल्में बनाई जाती थीं जिनमें स्वस्थ मनोरंजन के साथ सामाजिक उद्देश्य, सशक्त कथानक, मधुर संगीत और पात्रानुकूल अभिनय कौशल दिखाई देता था। महबूब खान, कमाल अमरोही, के आसिफ, विमल राय, सोहराब मोदी, वी शांताराम, चेतन आनंद, गुरुदत्त, बी आर चोपड़ा, ताराचंद बड़जात्या, ऋषिकेश मुखर्जी, बासु भट्टाचार्य, बासु चटर्जी आदि फ़िल्मकारों ने भारतीय समाज को अपने फ़िल्मों का विषय बनाया और बहुत सशक्त कथानकों का चयन कर ऐतिहासिक और सामाजिक फ़िल्में बनाईं। इनकी फ़िल्में मनोरंजन के तत्व को कभी अनदेखा नहीं करती थीं लेकिन साथ में संदेशात्मकता और सुधारवादी चेतना प्रमुख रूप से इन फ़िल्मों का हिस्सा होती थीं। अछूत कन्या, सिकंदर, पुकार, झांसी की रानी, आनंद मठ, नीचा नगर, आन, धरती के लाल, दो बीघा ज़मीन, मुग़ले आज़म, मदर इंडिया, सुजाता, दुनिया न माने, डॉ कोटनिस की अमर कहानी, दो आँखें बारह हाथ, एक ही रास्ता, धूल का फूल, पाकीज़ा, प्यासा, काग़ज़ के फूल, साहिब बीबी और गुलाम, गाईड, काबुलीवाला, बंदिनी, तीसरी कसम, मधुमती आदि फ़िल्में क्लासिक की श्रेणी में आती हैं। इन सभी फ़िल्मों में मनोरंजन का पुट भी प्रबल रहा है, लेकिन फ़िल्मकारों की सामाजिक प्रतिबद्धता निर्विवाद रही है। उन दिनों फ़िल्म निर्माण का उद्देश्य केवल संपत्ति अर्जित करना नहीं रहा करता था। राजकपूर द्वारा निर्मित आग, जागते रहो, आवारा, श्री 420, जिस देश में गंगा बहती है, आशिक़, संगम, मेरा नाम जोकर - फ़िल्में समाज के आम आदमी के शोषण और नेहरू युग के मोह भंग को प्रस्तुत करने वाला सघन सिनेमा है। ऐसे फ़िल्मकारों ने समाज में व्याप्त राजनीतिक भ्रष्टाचार और सामाजिक रूढ़ियों के विरुद्ध जागरूकता का एक अभियान चलाया था जो बहुत ही कारगर सिद्ध हुआ। ये फ़िल्में जहाँ एक ओर संवेदना-प्रधान हुआ करती थीं वहीं पारिवारिक रिश्तों को सुदृढ़ बनाने में भी सहायक सिद्ध हुईं। सम्मिलित परिवार के सदस्यों के साझा दायित्वों के प्रति ये फ़िल्में काफ़ी हद तक समाज को सचेत करने में सफल हुई हैं। स्वस्थ हास्य परंपरा को उत्प्रेरित करने वाली सामाजिक फ़िल्मों में बावर्ची, पिया का घर, आनंद, गुड्डी, अभिमान, चुपके चुपके, दुल्हन वही जो पिया मन भाए आदि प्रमुख हैं जिनकी विशेषता इनकी सामाजिक प्रतिबद्धता रही है। ऐसी फ़िल्मों की एक सुदीर्घ और सुविस्तृत परंपरा हिंदी में रही है जिसे भूमंडलीकरण के बाज़ार और उपभोक्तावादी सोच और दृष्टिकोण ने खंडित कर दिया। वे सारे जीवन मूल्य तार-तार हो गए जो भारतीय जीवनशैली और मनोरंजन विधान के आधार बिन्दु थे।

आज उपभोक्ता सर्वोपरि है और वह भारत के महानगरों और मझोले नगरों में बसा हुआ है। बाज़ारवाद ने सिनेमा की उन मजबूरीयों की ओर पहली बार ध्यान दिलाने में कामयाबी पाई है जिनके कारण उसे बेवजह लांछित किया जाता रहा है। जब धन के बिना सिनेमा की निर्मिति ही संभव नहीं है तो उसका आकलन, बाज़ार के बगैर किस तरह हो सकता है। राही मासूम रज़ा और कमलेश्वर ने बार-बार इस बात को ज़ोर देकर कहा है कि सिनेमा और साहित्य, रचनात्मक दृष्टि से बिलकुल अलग धरातल के हैं। सिनेमा की पहुँच जहाँ समाज के अंतिम व्यक्ति तक होती है, वहीं साहित्य शिक्षित लोगों तक भी कम ही पहुँच पाता है। सिनेमा भी साहित्य की ही तरह समाज का आईना होता है। लेकिन आज के उपभोक्तावादी का युग का सिनेमा समाज की सच्ची और पूरी तस्वीर प्रस्तुत करने में पूरी तरह विफल है। समाज की वास्तविकताएँ कुछ अपवादों को छोड़कर आज सिनेमा से दूर हो गई हैं। आज के अधिकांश फ़िल्मों की प्रकृति दिशाहीन, अनावश्यक अतिरंजना (फेंटेसी), हिंसा और कामुकता से भरी दिखाई देती हैं। इधर की फ़िल्मों में अपराध और अतिरंजित हिंसा का भोंडा प्रदर्शन अत्युन्नत विकसित तकनीकी कौशल के सहारे किया जा रहा है। इस दौर की फ़िल्मों में गीत और संगीत, मूलकथा वस्तु से कोसों दूर चले गए हैं और असंगत हो गए हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति ने भारतीय फ़िल्मों में "आईटम डांस और आईटम सांग्स" जैसी उत्तेजक अंग-प्रदर्शन की नई विधा को जन्म दिया है जो बॉक्स ऑफिस पर नए कीर्तिमान बनाने के लिए हर फ़िल्म की अनिवार्यता बन गई है।

"शीला की जवानी", "मुन्नी बदनाम हुई", "चिपका ले फेविकाल" से जैसी आईटम सांग्स अति लोकप्रिय गीतों में शुमार होते हैं। सिनेमा जैसी प्रदर्शनकारी कला के लिए लोकधर्मी होना अनिवार्य है। इस लोक संलग्नता के अभाव में उसका अस्तित्व ही असुरक्षित है। यही कारण है कि सिनेमा और साहित्य में कभी निकटता स्थापित नहीं हो पाई। इसीलिए साहित्यिक कृतियों पर बनी अधिकांश फ़िल्मों से न रचनाकार संतुष्ट हुए हैं और न ही दर्शक। समीक्षकों की राय को सिनेजगत में भी कोई ख़ास अहमियत नहीं मिलती, जब कि आज सिनेमा पर गंभीर चिंतन की भी कमी नहीं है।

यह निर्विवाद सच है कि भूमंडलीकरण के दौर में भी अनेक सार्थक फ़िल्मों का निर्माण हुआ है। पूँजी का अभाव न होने कारण निर्माता यदि चाहे तो सोद्देश्य सामाजिक सरोकार से युक्त फ़िल्मों का निर्माण कर सकता है - यह तथ्य अनेक संदर्भों में सत्य सिद्ध हुआ है। अनेक प्रयोगधर्मी फ़िल्मकार इस दौर में स्वयं को सामाजिक प्रतिबद्धता से जोड़कर समाज की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करने में सफल हुए हैं। सिनेमा के लिए भूमंडलीकरण का दौर पूरी तरह निषेधात्मक और नकारात्मक नहीं रहा है। यह वह समय है जब तकनीक में क्रांतिकारी परिवर्तन के कारण बहुत किफ़ायत के साथ सिनेमा में प्रयोग किए जा सकते हैं। ऐसे अनेक प्रयोग हो रहे हैं परंतु इन परिवर्तनकामी शक्तियों की मौजूदगी नगण्य है। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया का एक सकारात्मक पक्ष यह भी है कि आज सृजनात्मकता नए क्षितिजों का संधान कर रही है। संजयलीला भंसाली की "ब्लैक" अंधी-मूक-बधिर बच्ची के संघर्षमय जीवन की मर्मांतक कथा है जिसे निर्देशक ने अपने हुनर से ज़मीन और आसमान को एक क्षितिज पर खड़ा करके पात्रों में तबदील कर दिया। इसी तरह "स्वदेश" आशुतोष गावरीकर की, "मुन्नाभाई" राजकुमार हीरानी की, "पेज थ्री" मधुर भंडारकर की, "दिल चाहता है" फरहान अख्तर की, "रंग दे बसती" राकेश मेहरा की आदि फ़िल्में सार्थक और सोद्देश्य फ़िल्में हैं। यदि ये फ़िल्में शांताराम, महबूब, विमल राय, राजकपूर और गुरुदत्त की याद दिलाती हैं - तो इसके प्रतिमान हमारे सामने हैं। आज की युवा पीढ़ी की वर्तमान व्यवस्था से नाराज़गी, उनका असंतोष और उनकी कुंठाओं का प्रतिफलन अंत में जिस अराजकता को जन्म देता है और वे जिस हाल में व्यवस्था द्वारा ख़त्म कर दिए जाते हैं - इसकी प्रस्तुति अनेक धरातलों पर इस फ़िल्म में हुई है। "दिल चाहता है" युवा निर्देशक फरहान अख्तर द्वारा निर्मित फ़िल्म है जो तीन मित्रों की प्रेम के प्रति विशेष मानसिकता और जीवन में उसकी संवेदनशील अभिव्यक्ति की सूक्ष्मता को दर्शाती है। इसी क्रम में आज के दौर की फरहान अख्तर द्वारा ही निर्देशित एक और फ़िल्म "ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा" भी युवा मानस की जीवन के यथार्थ को स्वीकार करने की चुनौती को दर्शाती है। इस दौर में प्रकाश झा ने भी सघन सामाजिक सरोकारों को अपनी फ़िल्मों का विषय बनाया। "अपहरण, गंगा जल, राजनीति, आरक्षण और सत्याग्रह" - इनकी सफल फ़िल्में रहीं हैं जिनमें उन्होंने आज की भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था और उसके दलालों के व्यवहार को स्वाभाविक शैली में प्रस्तुत कर प्रशंसा बटोरी है।

भूमंडलीकरण के इस दौर में हिंदी सिनेमा बहुत अधिक अपराध प्रधान कथानकों के इर्द-गिर्द घूमता हुआ ही दिखाई देता है, जो कि प्रबुद्ध दर्शकों के लिए चिंता का विषय है। अपराध- साम्राज्य का कारोबार आज फ़िल्मों का प्रमुख कथ्य है। ये फ़िल्में नई पीढ़ी को हाईटेक अपराध जगत की ओर आकर्षित करती हुई प्रतीत होती हैं। रामगोपाल वर्मा द्वारा निर्देशित "सत्या, सरकार, सरकार-राज, कंपनी" आदि फ़िल्में आज की राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था पर सुसंगठित अपराध जगत के शिकंजे की ख़ून से सनी हिंसात्मक दास्तान प्रस्तुत करता है। ये फ़िल्में नव यथार्थवाद की परिभाषा को सिद्ध करती हैं।

"फिल्मी रीमेक" आज के दौर की एक नई फिल्मी विधा है। "देवदास, परिणीता, डॉन, शोले, उमराव जान" और कितनी ही फ़िल्मों के रीमेक आज बनाए जा रहे हैं। ये उन फ़िल्मों के पुनर्निमाण हैं जिन्हें हिंदी सिनेमा में मील का पत्थर माना जाता है। ये व्यावसायिक रूप से भी सफल हुई थीं। चंद अपवादों को छोड़कर रीमेक बनाने में मूल भावना उस सफलता को दुहराने की ही होती है। उस शिखर को स्पर्श करने की होती है जो मूल फ़िल्म की उपलब्धि है। ऐसा यदि मुमकिन हुआ है तो सिर्फ "औरत" के रीमेक "मदर इंडिया" में ही हुआ है। क़ाबिलेगौर है कि ये दोनों ही फ़िल्में महबूब खान ने ही बनाई थीं। लेकिन इस तरह के प्रयोग कुछेक को छोड़कर सफल नहीं हुईं। विदेशी फ़िल्मों के रीमेक बनाने की प्रथा हिंदी में बहुत पुरानी है और इस प्रयास में अनेक सफल और लोकप्रिय फ़िल्में बनाई गईं।

भूमंडलीकरण के इस दौर में एक बार फिर यह वह समय है जब सिनेमा में समाज और जीवन की ज़मीनी खुरदुराहट उसे अधिक वास्तविक धरातल पर लाने में सफल हो सकते हैं। आज प्रयोग-धर्मियों के लिए संभावनाओं के अनंत द्वार खुले हुए हैं। बाज़ार की शक्तियाँ इन संभावनाओं का बढ़-चढ़कर दोहन कर रही हैं। दो से पाँच करोड़ की लागत की ऐसी बीसों फ़िल्में बनाई जाती हैं जिनका खरीदार दो-चार महानगरों का युवा वर्ग मात्र होता है। लेकिन अभी तक प्रतिबद्ध और जागरूक प्रयास इस दिशा में इक्का-दुक्का ही हुआ है। सिनेमा ने हमेशा यह साबित किया है कि उपदेश देना आसान है, सृजन कठिन। यहाँ सफलता का निर्णय चंद हाथों में नहीं, दर्शकों के हाथों में होता है। इसीलिए बौद्धिकता का अहंकार यहाँ ज़्यादातर अस्वीकृत ही हुआ है। वहीं गहन बौद्धिकता भी कभी कभी दर्शकों के दिलों में उतरकर प्रशंसनीय बन जाती है। गुलज़ार की "माचिस" से संगीतकार के रूप में उभरे विशाल भारद्वाज ने निर्देशक के रूप में शेक्सपियर के दो विश्वप्रसिद्ध नाटकों "मैकबेथ" और "ओथेलो" को "मक़बूल" और "ओमकारा" में परिणत कर क़िस्सागोई की अपनी अद्भुत क्षमता और निराली शैली का परिचय दिया है।

आज के दौर की विशेषता यही है कि फ़िल्मों की सफलता का प्रतिशत व्यापारिक दृष्टि से निश्चित ही बढ़ा है लेकिन क्या उसकी समाजचेता प्रवृत्ति भी उसी अनुपात में विकसित हुई है? यह प्रश्न आज हिंदी सिनेमा के अध्येताओं के लिए शोध का विषय है। आज अलग अलग मिज़ाज और संवेदना की छवियाँ फ़िल्मों में उभर रही हैं। लगान, कृष, ब्लैक, मक़बूल, चाँदनी बार, गंगाजल, जोगर्स पार्क, मर्डर, दिलचाहता है, पेज थ्री, बंटी और बबली, स्वदेश, सरकार, रंग दे बसती, मुन्ना भाई वगैरह तमाम फ़िल्में हैं जिनकी रचनात्मक संरचना एकदम अलग है। इनके साथ ही ही बवंडर, गजगामिनी, रेन कोट, हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी, मातृभूमि, साइरस, द सिन, अम्मू, परजानिया, ब्लैक फ्राईडे, लाईफ गॉज ऑन, हज़ार चौरासी की माँ, 1947, अर्थ, सुर, यहाँ, मि एंड मिसेज अय्यर, धूप, डोर - जैसी फ़िल्में बन ही नहीं रहीं हैं बल्कि अपनी तरह से सफल भी हो रही हैं। बड़े पर्दे पर न सही लेकिन छोटे पर्दे के जरिये ये दर्शकों तक पहुँच रही हैं।

आज हिंदी सिनेमा की सबसे बड़ी दिक़्क़त कस्बों और छोटे नगरों में अच्छे सिनेमाघरों का न होना है। भूमंडलीकरण की आँधी ने एकल सिनेमाघरों को नष्ट कर मल्टीप्लेक्स संस्कृति को जन्म दिया है। दो लाख की आबादी वाले नगरों तक में तीन पर्दों वाला लगभग एक हज़ार दर्शकक्षमता का मल्टीप्लेक्स अब अच्छा व्यापार करने की स्थिति में है। पर इस दिशा में किए जाने वाले प्रयास आज भी बहुत धीमे हैं। मल्टीप्लेक्स संस्कृति अभी महानगरों के अतिरिक्त चंद छोटे शहरों तक ही पहुँच सकी है। हिंदी भाषी प्रदेशों में प्रदर्शन योग्य अच्छे सिनेमाघरों का अभाव और उनकी दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। दक्षिण में फ़िल्म संस्कृति ने जिस तरह सामाजिक और राजनीतिक जीवन को प्रभावित किया और उस पर अपना वर्चस्व स्थापित किया, वैसा हिंदी भाषी प्रदेशों में नहीं हो सका।

भूमंडलीकरण के दौर में हिंदी फ़िल्में के निर्माता - निर्देशक विदेशों में बसे आप्रवासी भारतीय दर्शकों के बाज़ार को भुनाने के लिए, विदेशी परिवेश और विदेशी पारिवारिक मूल्यों और माहौल से जुड़ी कथा वस्तुओं का चयन कर, उसे विदेशी रंगत में ढालकर प्रदर्शित कर रहे हैं। इस मानसिकता ने हिंदी फ़िल्मनोक की भाषा को बुरी तरह प्रभावित किया है। आज की अधिकतर हिंदी फ़िल्मों की भाषा अंग्रेज़ीपन (विदेशी) के बोझ तले एक विशेष विकृति में ढाल रही हैं। फ़िल्मों के शीर्षक अधिकतर अंग्रेज़ी भाषा के शब्दों से गढ़े जा रहे हैं। "जब वी मेट, न्यूयॉर्क, दिल माँगे मोर, फटा पोस्टर निकला हीरो, चेन्नई एक्स्प्रेस, ब्लैक, पेज थ्री, बर्निंग ट्रेन, रोबो, इंगलिश-विंगलिश" आदि इसके उदाहरण हैं। अंग्रेज़ी और हिंदी के मिले-जुले संवादों से भी हिंदी फ़िल्में लोकप्रिय हो रही हैं। हिंदी में अंग्रेज़ी की मिलावट से ज़्यादा आज की हिंदी फ़िल्मों में अंग्रेज़ी में हिंदी की मिलावट दिखाई देती है। हिंदी फ़िल्मों की भाषा में सहजता और स्थानीयता तथा आंचलिक प्रभाव पैदा करने के बहाने से गालियों की भरमार (गैंग्स ऑफ वासेपुर I-II), बिजली की मटरू का मनडोला, गोलियों की रासलीला-रामलीला आदि फ़िल्में इसके उदाहरण हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं कि व्यवसाय की समझ को विकसित कर ही सार्थक सिनेमा की सृष्टि की जा सकती है। यदि निर्देशक में अपने दर्शक वर्ग के चुनाव और अपनी कृति को उन तक पहुँचाने के साधन खोज लेने की कला मौजूद हो तो वह कठिन से कठिन प्रयोग करने में भी सफल हुआ है। आज के इस महाबाज़ार में वह दौर फिर फल-फूल रहा है। हिंदी सिनेमा आपने विकास की नई-नई राहें तलाश रहा है। इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में एक बार फिर मैदान में उनके लिए आमंत्रण है जो सिनेमा में कुछ बेहतर कर गुज़रना चाहते हैं। आज से पहले प्रयोगधर्मिता के लिए व्यावसायिक समीकरण भी इतने सहज कभी नहीं थे। सुनहरे दौर की यह पदचाप रचना धर्मी व्यक्तित्वों को भी सुनाई पड़नी चाहिए समय उनके सर्वथा अनुकूल है।

संदर्भ ग्रंथ :

1 सिनेमा के सौ बरस - सं मृत्युंजय
2 बाज़ार के बाजीगर - प्रह्लाद अग्रवाल
3 समय और सिनेमा - विनोद भारद्वाज
4 सिनेमा और संस्कृति - राही मासूम रज़ा
5 भारतीय सिनेमा, एक अनंत यात्रा - प्रसून सिन्हा

डॉ. एम वेंकटेश्वर
हैदराबाद
9849048156
email : mannar.venkateshwar9@ghmail.com

 

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