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भूमंडलीकरण, प्रौद्योगिकी और भाषा

हम, आज एक चुनौतीपूर्ण समय में रह रहे हैं। सन् नब्बे के बाद हमारी दुनिया वैसी नहीं रही जैसे कि हम इसे जानते थे। संचार क्रांति ने अनेक तार परस्पर जोड़ दिए और दुनिया हमारी उँगलियों पर नाचने लगी। चंद बटन दबाते ही ज्ञान की अनेक खिड़कियाँ खुल जाती हैं। सूचना के इस अति प्रसार के साथ-साथ पूँजी और बाज़ार का भी एक पूरा तंत्र हमारे आस-पास फैल गया है जो हमें आकर्षित कर सबको अपनी गिरफ़्त में बाँध रहा है। यह स्थिति भूमंडलीकरण की विशिष्ट देन है। इस स्थिति ने हमें अपनी-अपनी तरह विस्मित और आतंकित किया।

एक-ध्रुवी होती दुनिया में पूँजी के खेल पर टिकी इस नई व्यवस्था के सभी आशय किसी से छिपे नहीं हैं। किन संधियों और समझौतों ने देश-दुनिया के इतिहास को किस तरह बदला, भूमंडलीकरण के विकास की उस गाथा से हम भली-भाँति परिचित हैं। इसके अँधेरे पक्षों को लेकर विस्तार से चर्चा हुई है। लेखकों-विचारकों की एक जमात, यदि प्रभा खेतान का मुहावरा उधार लेकर कहूँ तो लगातार ‘बाज़ार के बीच, बाज़ार के खिलाफ’ मुहिम चलाते रहे हैं। ‘भूमंडलीकरण और संस्कृति’ पर लिखते हुए एज़ाज़ अहमद ने लिखा --".....भूमंडलीकरण साम्राज्यवाद के इतिहास की नवीनतम अवस्था है, और कि स्वयं पूँजी के ढाँचे में हुए ऐतिहासिक स्थानान्तरणों का कुल योग इसमें केन्द्रीय महत्त्व का है।"1

भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया उतनी एकायामी नहीं है जितनी दिखाई देती है। इसके विरोध में साहित्य चिंतक भले ही एकमत नज़र आएँ किन्तु अर्थशास्त्रियों एवं समाजविदों का एक वर्ग इसके पक्ष में भी बहस करता रहा है। यहाँ तक कि नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन भी भूमंडलीय व्यवस्था के पक्ष में हैं। (The achievements of globalisation are visibly impressive in many parts of the world. We can hardly fail to see that the global economy has brought prosperity to quite a few different areas on the globe. Pervasive poverty and ‘nasty, brutish and short’ lives dominated the world a few centuries ago, with only a few pockets of rare affluence. In overcoming that penury, extensive economic interrelations as well as the deployment of modern technology have been extremely influential and productive.)2

इस परिदृश्य में एक अन्य विचार जो मेरा ध्यान आकृष्ट करता है वह विश्व प्रसिद्ध समाजशास्त्री प्रो. एन्थनी गिडिन्स का है। 1999 में बी.बी.सी. पर अपने एक भाषण में प्रो. गिडिन्स भूमंडलीकरण की जटिल प्रक्रिया को समझाते हुए विस्तार से बताते हैं कि किस तरह भूमंडलीकरण का यह नया युग सबको प्रभावित करेगा। कोई भी देश उसकी चुनौतियों से बच नहीं सकता। अमरीका तथा अन्य पश्चिमी देश भी इसके प्रभाव से अछूते नहीं रह सकते। भूमंडलीकरण के माध्यम से जिस तरह विश्व में विकेन्द्रीकरण हो रहा है उससे बड़े-बड़े संगठन भी प्रभावित हुए हैं। इसे वे Reverse Colonisation कहते हैं जबकि गैर-पश्चिमी देश, पश्चिमी देशों के विकास को प्रभावित करेंगे। इसके उदाहरण-स्वरूप वे भारत में सूचना प्रौद्योगिकी के विश्वस्तरीय विकास को उद्धृत करते हैं।3

3(“Examples of ‘reverse colonisation’ are becoming more and more common. Reverse colonization means that non-western countries influence developments in the west. Examples abound-such as the Latinising of Los Angeles, the emergence of a globally-oriented high-tech sector in India, or the selling of Brazilian TV rogrammes to Portugal.”)3

भूमंडलीकरण के साथ हमने एक नए समय में प्रवेश किया है। भारत एवं पश्चिमी देशों में तरह-तरह के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक परिवर्तन हुए हैं, जिनमें चुनौती और चिंता के नए समीकरण सामने आए। संस्कृति की दृष्टि से भी यह समय चुनौतीपूर्ण, अनिश्चित और पूर्व निर्धारित स्थापित ढाँचों के ध्वस्त होने का समय है। इस विकेन्द्रीकरण ने भाषा, साहित्य और समाज के सभी क्षेत्रें में हाशियाकृत अस्मिताओं को केन्द्र में ला खड़ा किया है। इस दृष्टि से, भूमंडलीकरण के कारण पैदा होने वाली अनेक समस्याओं के रहते हुए भी उसमें संभावना के कुछ आलोक कण प्रस्फुटित होते हैं। इन सभी बदलावों की वाहक बनी--नई तकनीक।

सूचना और संचार की नई-नई प्रौद्योगिकी ने दुनिया को देखने के हमारे नज़रिए में व्यापक परिवर्तन किया है। भूमंडलीकृत अर्थ व्यवस्था को हम ‘फ्री फ़लोटिंग एकोनॉमी’ कहते हैं। सूचनाओं और जानकारियों की स्थिति भी नई तकनीक के साथ कुछ ऐसी ही हो गई है। ज्ञान के गंभीर स्रोत देश-दुनिया की सीमाओं में आबद्ध न होकर मुक्त रूप से ग्रहण किए जा रहे हैं। एक तरफ ज्ञान-पिपासुओं के लिए ज्ञान का खुला क्षेत्र है तो दूसरी तरफ इस तकनीक के सहारे सोशल मीडिया सब पर छा गया है। इंटरनेट और मीडिया की ताकत इतनी बढ़ गई है कि ऐसा लगने लगता है कि उसके शोर में सभी अर्थपूर्ण आवाज़ें दब गई हों। शंभुनाथ ने इस स्थिति पर शंका जताते हुए लिखा--

"समाज में 20 साल पहले मुट्ठी भर लोगों के पास कंप्यूटर थे। आज ज़रा से ठीक-ठिकाने के घर में भी कंप्यूटर है और मोबाइल एक चौथाई आबादी से अधिक लोगों के पास है। वैश्वीकरण के माहौल में दिखता है कि दुनिया के देशों में परस्पर निर्भरता बढ़ रही है। लोगों की कनेक्टिवीटी बढ़ती जा रही है। इसी आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है कि ‘हम’ और ‘वे’ का सांस्कृतिक विभाजन कहीं कम हुआ है, दूसरे की संस्कृति को समझने की उदारता ज़रा भी पैदा हुई है और वैश्वीकरण ने ‘विश्व मानवता’ का वातावरण बनाया है।"4

निश्चित है कि इस तरह के सवालों के कोई सरल उत्तर नहीं हैं। प्रौद्योगिकी सामान्यतः संस्कृति हो या तकनीक सभी स्तरों पर एकायामिता को विकसित करती है और यह नव-विकसित एकल संस्कृति भी उन्हीं देशों की है जहाँ इन तकनीकों का जन्म हो रहा है। भाषा संस्कृति का अभिन्न अंग है। यह स्थिति भाषा अथवा भाषाओं के लिए कैसा संकट खड़ा कर रही है यह विचारणीय है। कुछ चिंतित करने वाले सवाल इस रूप में रखे जा सकते हैं----

इंटरनेट पर उपलब्ध 75 प्रतिशत सामग्री अंग्रेज़ी में है। क्या एक-ध्रुवी होती दुनिया में यह भाषा का ध्रुवीकरण होगा? क्या बहुत जल्द जो भाषाएँ तकनीक से जुड़ी नहीं होंगी उनका अस्तित्व मिट जाएगा या मिटा दिया जाएगा? इसी संदर्भ में जो भाषाएँ वाचिक परंपरा में जीवित हैं उनका क्या होगा? क्या विश्व की विभिन्न भाषाओं के बीच बाज़ार द्वारा किसी प्रकार का सत्ताक्रम विकसित होगा? भाषा संस्कृति की वाहक है जो भाषाएँ मिट जाएँगी क्या वे संस्कृतियाँ भी खत्म हो जाएँगी?

इस तरह के कई सवाल हमारे सामने सिर उठाए खड़े हैं। सन् 2005 में प्रकाशित UNESCO की एक रिपोर्ट Towards Knowledge Societies में यह उल्लेख मिलता है कि आज विश्व में बोली जाने वाली लगभग 6000 भाषाओं में से शायद 21वीं सदी के अंत तक आधी भाषाएँ खत्म हो जाएँगी। उसी के अनुसार कुछ भाषाविदों का यह भी मानना है कि संभवतः 90 से 95 प्रतिशत तक भाषाएँ ही न रहें। इसमें यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि जो भाषाएँ वाचिक परंपरा का हिस्सा हैं उनको संकट अधिक है। यूनेस्को के सम्मुख चुनौती यह रही कि विश्व-स्तर पर, किस तरह साइबरस्पेस को सबकी पहुँच में लाते हुए भाषाओं की बहुलता को जीवित रखा जाए।5

5("Preserving the plurality of languages translates into enabling the largest number to have access to the media of knowledge.")

इस रिपोर्ट के अनुसार भाषाओं को लेकर दुनिया के देशों के बीच कई समझौते किए गए हैं। यूरोपीय देशों ने 1992 में ही Charter for Regional Language and Minority Languages को अपना लिया था। यूनेस्को ने अपने स्तर पर जो प्रयत्न किए उनमें प्रमुख हैं- Universal Declaration on Cultural Diversity 2001 तथा Recommendation Concerning the Promotion and Use of Multilingualism and Universal access to Cyberspace 2003.

इसके साथ-साथ, विश्व के प्रमुख भाषाविदों ने मिलकर 2001 में एक अभियान चलाने की पैरवी की। इस अभियान का शीर्षक था Awakening to Languages --इसमें यह पेशकश की गई कि स्कूली बच्चों, विशेष तौर पर ग्यारह साल की उम्र से कम बच्चों का परिचय ‘भाषाओं के संसार’ से कराया जाए। हर बच्चा बचपन से ही दो-तीन भाषाएँ सीखे। (यूँ भी विश्व में एक भाषा जानने वालों की अपेक्षा दो-तीन भाषाएँ जानने वाले लोग अधिक हैं।) इनमें, एक भाषा संपर्क भाषा- Lingua Franca के रूप में सिखाई जाए, एक मातृभाषा हो और उसके साथ-साथ अन्य भाषाएँ भी सिखाई जाएँ। भाषाओं के प्रति गरिमापूर्ण दृष्टि का विकास किया जाए।

यूनेस्को की इस रिपोर्ट से दो निष्कर्ष निकलते हैं- पहला कि प्रौद्योगिकी के विकास पर आश्रित दुनिया में भाषाओं की स्थिति निश्चय ही संकटपूर्ण है। विश्व की अनेक भाषाएँ, जिनमें विशेषतः वाचिक भाषाएँ या बोलियाँ अधिक हैं धीरे-धीरे ख़त्म होने की कगार पर हैं। दूसरा और इससे भी महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि विश्व के सभी देश अपने-अपने स्तर पर इन भाषाओं और संस्कृतियों को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। इस तथ्य को न तो अनदेखा किया जाना चाहिए, न ही इसे कम कर आँकना चाहिए क्योंकि चिंता से ही राहें निकलेंगी। बहुभाषिकता, बहुलतावादी संस्कृति का वाहक है। विश्व में शांति और सद्भाव के लिए जिस सहिष्णुता की आवश्यकता है उसका विकास भाषाओं के माध्यम से ही हो सकता है।

यदि हम इंटरनेट पर प्रयुक्त भाषाओं का सर्वेक्षण करें तो अंग्रेजी के बाद चीन की भाषा आती है। अंग्रेज़ी के प्रयोक्ता यदि 53 करोड़ 66 लाख हैं, तो चीन की भाषा इंटरनेट पर 44 करोड़ 49 लाख लोगों द्वारा इस्तेमाल की जाती है। बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से हिंदी विश्व में पाँचवे स्थान पर आती है किंतु इंटरनेट पर उसकी उपस्थिति बहुत कम है। अतः अपनी भाषा के विकास के लिए यह ज़रूरी है कि उसे नई प्रौद्योगिकी से जोड़ा जाए और जैसे चीन अपनी भाषा व प्रौद्योगिकी को एक दूसरे के अनुकूल बनाकर विकास कर रहा है, हमें भी ऐसी ही कोई दिशा चुननी होगी। विश्व में आज ऐसे सोफ्रटवेयर बन रहे हैं जिनकी सहायता से व्यापक स्तर पर भाषांतरण संभव हो रहा है और अनेक स्थानीय भाषाओं में काम करने की सुविधा है। उसके लिए हमारी सबसे बड़ी चुनौती है साक्षरता तथा व्यापक जन समुदाय तक नई प्रौद्योगिकी की पहुँच।

भाषाओं की दृष्टि से हमारा देश भारत, वैविध्यपूर्ण संपन्नता से सप्राण है। 1961 के सेंसस में कुल 1652 भाषाओं और बोलियों को दर्ज कराया गया था। 1991 के आँकड़ों में भी 1576 मातृ-भाषाओं के होने के प्रमाण दर्ज हुए। इनमें 22 भाषाओं के बोलने वालों की संख्या 10 लाख से ऊपर थी। 2001 के भाषा सर्वेक्षण में भी हमारे यहाँ 29 भाषाएँ ऐसी हैं जिनके बोलने वाले 10 लाख से अधिक हैं, 60 भाषाओं के बोलने वालों की संख्या 1 लाख से ज़्यादा है और 122 भाषाएँ ऐसी हैं जिनके बोलने वाले 10,000 से अधिक हैं। भारत में 22 भाषाएँ तो अनुसूचित भाषाएँ हैं और इनके अतिरिक्त असंख्य बोलियाँ भी हैं लेकिन आज, इनमें से बहुत-सी भाषाएँ और बोलियाँ संकट में हैं। पिछले कुछ वर्षों में कुछ बोलियाँ खत्म हो गईं। विशेषतः अंडेमान और निकोबार में जो आदिवासी बोलियाँ हैं उनके बोलने वालों की मृत्यु के साथ वे भाषाएँ खत्म हो गईं। 2009 में खोरा भाषा तथा 2010 में बो भाषा हमेशा के लिए समाप्त हो गई। यूनेस्को की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 174 संकटापन्न भाषाएँ हैं। कुछ अनुमानों के अनुसार यह संख्या 197 है। इस स्थिति में प्रौद्योगिकी सकारात्मक हस्तक्षेप कर सकती है। प्रौद्योगिकी हमारे हाथ का अस्त्र है और यह हम पर है कि उसका प्रयोग कैसे करें। यदि ये भाषाएँ प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में शामिल हो गईं होती तो भले ही भौगोलिक स्तर पर उनका अस्तित्व मिट जाता ‘साइबरस्पेस’ में वे हमेशा के लिए जीवित रह जातीं। आज भारत में हिंदी के अतिरिक्त स्थानीय बोलियाँ- भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी आदि में ब्लॉग लिखे जा रहे हैं और उनके पढ़ने वाले एक दूसरे से जुड़ रहे हैं। इससे इन बोलियों को और लोकप्रियता मिली है। असल में, भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ग्लोबल और लोकल को अजब ढंग से मिलाकर आगे बढ़ती है। यही स्थिति भाषाओं की भी है।

6Top ten languages in the internet 2010
7census data online 2001; languages and mother tongue

भारत में भाषा का प्रश्न अनेक स्तरों पर उलझा हुआ है। विभिन्न भाषाएँ क्षेत्रवाद का प्रतिनिधित्व करती हैं। क्षेत्रें की परस्पर टकराहट भाषा-विवादों के रूप में सुनाई पड़ती है। क्या कोई एक अखिल भारतीय भाषा हो सकती है। प्रायः हिन्दी को यहाँ की Lingua franca या संपर्क भाषा होने का गौरव दिया जाता है किन्तु अनेक हृदयों में यह आशंका भी बनी रहती है कि कहीं हिंदी का प्रभुत्व इतना न बढ़ जाए कि उसके सामने अन्य भाषाएँ गौण हो जाएँ। इसी डर से आज हिंदी की बोलियाँ अपने अलग अस्तित्व की माँग कर रही हैं।

अंग्रेज़ी-हिन्दी का सवाल तो हमारे यहाँ आज़ादी के बाद से लगातार चला आ रहा है। भारत में, औपनिवेशिक एवं उत्तर औपनिवेशिक दौर में अंग्रेज़ी ताकत की भाषा बनी रही और बाकी सब भाषाएँ उसके सम्मुख दूसरे दर्जे की भाषाएँ रहीं। यह प्रश्न केवल भाषा का प्रश्न नहीं है, सामाजिक न्याय का प्रश्न भी है। हमारे यहाँ एक लंबे समय तक इंजीनियरिंग, कंप्यूटर, चिकित्सा, कानून, मार्केटिंग आदि व्यावसायिक क्षेत्रों की शिक्षा अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से ही दी जाती रही। हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में शिक्षित छात्र बहुत बार माध्यम भाषा की सीमा के कारण मुख्यधारा से बाहर कर दिए गए। लंबे समय तक ज्ञान का सारा कारोबार अंग्रेज़ी की बैसाखियों पर ही चल रहा है। इसलिए भाषाओं के अस्तित्व संकट की ज़िम्मेदारी भी अंग्रेज़ी पर डालकर भाषाओं के बीच प्रतिस्पर्धा का भाव विकसित किया गया है। भूमंडलीकरण, जिस एकल संस्कृति का विकास करता है उसमें अंग्रेज़ी का प्रभुत्व निर्विवाद है, जिसके अपने ऐतिहासिक भौगोलिक कारण हैं।

अब इस सारी स्थिति को एक अलग दृष्टिकोण से भी देखा जाना चाहिए। क्या आज की अंग्रेज़ी वही अंग्रेज़ी है जिसे ‘क्वीन्स इंगलिश’ कहा जाता था। अंग्रेज़ी भाषा को भी हर देश और समाज ने अपने मन-माने ढंग से बदला है। वह इन सब बदलावों को लेकर आगे बढ़ रही है। दूसरे, हमारी यह चिंता भी बेबुनियाद है कि इंटरनेट पर अधिकांश सामग्री अंग्रेज़ी में होने के कारण अंग्रेज़ी का वर्चस्व होगा। अभी पहले हमने चीनी भाषा का उदाहरण दिया। इसके अतिरिक्त यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि इंटरनेट प्रयोक्ताओं में 50 प्रतिशत से अधिक लोग ऐसे हैं जिनकी मातृभाषा अंग्रेज़ी नहीं है। यह प्रयत्न भी निरंतर होता रहता है कि कंप्यूटर और इंटरनेट पर विविध भाषा-भाषियों की संख्या कैसे बढ़ाई जाए। संचार क्रांति के इस विस्तरण में सबको कैसे शामिल किया जाए। भूमंडलीकरण ने जिस उपभोक्तावादी संस्कृति को जन्म दिया है उसकी सफलता ग्राहकों की संख्या-वृद्धि पर टिकी है। यह ग्राहक वस्तुओं के हैं, विचारों के हैं और भाषाओं के भी हैं।

भारत में भी स्थिति बहुत बदल गई है। चारों ओर आम आदमी की पुकार है जो अपनी भाषा में अधिक आश्वस्त महसूस करता है। न्यायलयों में वकील हिंदी में पैरवी करने का हक माँग रहे हैं। कंप्यूटर, मार्केटिंग आदि सिखाने वाले कई संस्थान अपनी भाषाओं में विद्यार्थियों को विभिन्न विषयों की जानकारी दे रहे हैं। फिल्मों, विज्ञापनों और बाज़ार के अन्य उद्देश्यों के लिए अपनी भाषाओं का प्रयोग, इन भाषाओं को नई ऊर्जा दे रहा है। बेबी हालदार जैसी आदिवासी लेखिका की पुस्तकें 12 भाषाओं में अनूदित होकर सब तक पहुँची हैं। हाशिए की ऐसी अनेक आवाज़ें प्रौद्योगिकी का सहारा लेकर अपनी पहचान बना रही हैं। इसे सकारात्मक दृष्टि और उदार भाव से देखा जाना चाहिए।

हमें यह स्वीकार करना होगा कि भूमंडलीकरण एवं नई प्रौद्योगिकी बदला हुआ परिवेश है, जिसने हमारे सामने बहुत-से सवाल रखे, कई चुनौतियाँ प्रस्तुत कीं और हमारे मन में अनेक आशंकाएँ जगाईं। चाहे-अनचाहे हमारे समाज, संस्कृति और भाषाओं में अनेक परिवर्तन उपस्थित किए। बदलाव की आँधियों को रोका नहीं जा सकता, इसलिए उसके भीतर से ही दिशाएँ बनानी चाहिएँ ना कि उनके निषेध से। बहुत-से सकारात्मक मोड़ भी दिखाई पड़ रहे हैं। भाषा और तकनीक की मैत्री से ही नई संभावनाएँ तलाशनी होंगी।

संदर्भ:

1. भूमंडलीकरण और संस्कृतिः एज़ाज़ अहमद, संस्कृति के प्रश्नः ऐशियाई परिदृश्य, सं- शंभुनाथ शिल्पायन, दिल्ली, संस्करण 2011, पृ. 157
2. Sharing the world: Interdependence and global justice; Amartya Sen; The Little Magazine; Ed: Antara Sen, New Delhi, Globalisation and its Contents, Vol V: issue 4&5
3. 3. Prof. Anthony Giddens, Director London School of Economics, BBC Reith Lectures, 1999, news.bbc.co.uk/hi/English/static/events/reith_99/week1/week1.htm
4. एशियाई संस्कृतिः महानता, अंतर्विरोध और चुनौतियाँ, शंभुनाथ_ संस्कृति के प्रश्नः एशियाई परिदृश्य सं- शंभुनाथ शिल्पायन, दिल्ली, संस्करण 2011, पृ. 32
5. Towards Knowledge Societies, Unesco World Report, Unesco Publishing, Paris, 2005, pg 152
www.unesco.org/.../towards-knowledge-societies-unesco-world-report/
6. Top ten languages in the internet 2010 http://www.internetworldstats.com/stats7.htm
7. census data online 2001; languages and mother tongue
censusindia.gov.in/2011-common/censusdataonline.html‎

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