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बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा – 3

बीसों बरस पहले की उनके साथ जुड़ीं तमाम यादों की पिक्चरें चलने लगीं। मेरे क़दम एकदम ठहर गए कि अब बिल्लो से मिले बिना किसी सूरत में आगे नहीं बढ़ेंगे। मैंने शिखर से कहा कि मैं बिल्लो से मिलना चाहता हूँ। बिल्लो वास्तव में वहाँ की जगत बुआ हैं। छोटा हो या बड़ा उन्हें सब बिल्लो बुआ ही कहते हैं। इन्हीं जगत बुआ से मिलने को कहा तो शिखर के चेहरे पर मैंने एकदम साफ़ देखा कि वह नहीं चाहता था कि मैं मिलूँ। वह ऐसे अनमना सा हुआ कि जैसे सोच रहा हो कि ये कहाँ आ फँसा। लेकिन उनसे मिलने की मेरी इच्छा इतनी प्रबल थी कि सब समझ कर भी मैं नासमझ बना रहा। क्योंकि मैं समझ गया था कि मैंने ज़रा भी हिचक दिखाई तो यह तुरंत मना कर देगा। गाँव का मामला है, यहाँ भी कुछ विवाद होगा इनका । 

कोई रास्ता ना देख कर शिखर बोला, "ठीक है भइया आइए देखते हैं शायद बुआ हैं।" दुकान के काउंटर के पीछे तखत पर एक काला सा बड़े लंबे-चौड़े डील का चौबीस-पचीस साल का युवक बैठा था। उसे देखकर शिखर ने कहा, "ये उनका भतीजा सूरज है।" दुकान के बाहर एक बोलेरो जीप, आठ दस मोटर साइकिलें खड़ी थीं। उन्हें देख कर शिखर ने कहा, "लगता है बुआ का दरबार लगा है। आइए।" मुझे साथ लेकर वह सूरज के पास पहुँचा। जो मेरी जीप रुकने के बाद से ही बराबर मुझ पर नज़र रखे हुए था। बंसवारी वाले बुज़ुर्ग की तरह।

शिखर ने सूरज को नमस्कार का कहा, "सूरज ई हमार भइया हएन। सूरत से आएन है। बड़के पापा के लड़िका हैएन।" इतना सुनते ही सूरज हाथ जोड़कर तखत से नीचे उतरते हुए बोला। "नमस्ते-नमस्ते भइया, नमस्ते। आवा अंदर आवा। बड़ी देर के तोहके देखत हई। मगर चिन्हि नाहि पाए। बहुत दिन बाद आए।" कोने में काउंटर का एक हिस्सा था उसके पीछे दुकान बहुत बड़ी थी। हर तरफ़ माल भरा था। दो तखत अंदर और पड़े थे।

सूरज ने मुझे बैठाकर हाल-चाल पूछना शुरू किया। फिर वही उलाहना, "भइया आप सब जने ते गउंवा एकदमें छोड़ दिहै। बतावा हमें लगत बा कि पंद्रह-बीस बरिस बाद आए हअ"। मैंने सहमत होते हुए कहा, "हाँ ऐसा ही कुछ टाइम हो रहा होगा।" वह फिर बोला, "नाहीं भइया, आवे जाए के चाही, आपन घर दुआर संपत्ति सब देखे के चाही।" तभी शिखर ने बताया कि बुआ का नाम देखकर मैं उनसे मिलने के लिऐ रुका हूँ तो वह बड़ा ख़ुश हुआ। "अरे काहे नाहीं। अबहिं बुलावत हई।" फिर उसने वहीं से आवाज़ दी "बुआ, हेअअ.. बुआ तनि हिंअ आवा, देखा के आवा बा।" अंदर बुआ की तेज़ आवाज़ गूँजी, "के आवा बा। बतावा ना।" सूरज फिर बोला। "आवा हिंआ आवा ना, खुदै आए के देखा ना।" अबकी बुआ, "बोलीं आवत हई रे।" बुआ अंदर आईं तो मैंने उनको नमस्कार किया। 

बिल्लो ने भी ना सिर्फ़ नमस्कार किया बल्कि मुझे कुछ हिचकिचाहट के साथ पहचानते हुए कहा, "अरे तू हअ। कब आए?" उनकी बात सुनते ही सूरज ने पूछा, "बुआ पहिचानत हऊ भइया के।" बुआ ने बिना हिचक कहा। "काहे नाहीं, अरे छोटपन में खेले हई एनके साथे।" सूरज ने इस पर फिर मेरे फादर का नाम लेते हुए कहा, "उन्हीं के बड़का लड़िका हैएन।" बुआ ने उसकी तरफ़ ध्यान ना देते हुए मुझे कंधों के पास पकड़ कर "कहाँ रहे एतना दिन।" एक बार फिर वही उलाहना कि "भइया तू सभे ते घरे दुआर छोड़ि दिहे।" मैंने देखा जब-जब गाँव में किसी ने यह उलाहना दिया तो शिखर को अच्छा नहीं लगता था। चेहरे पर उसके अजीब सी रेखाएँ ऊभर आती थीं। 

बिल्लो बुआ एक तखत पर मुझे लेकर बैठ गईं। एक पर सूरज शिखर बैठ गए। बुआ ने घर भर का हाल-चाल सब पूछ डाला। अपनी बहू से चाय-नाश्ता सब मँगवाया। उससे मेरे पैर छुआए। मैंने भी उसे आशीर्वाद स्वरूप सौ रुपया दिया। सूरज ने अपने बच्चों को भी बुलाकर मिलवाया। उसके तीन बच्चे थे। सबसे छोटी लड़की थी क़रीब-क़रीब तीन साल की। मैंने देखा बिल्लो शिखर को ज़रा सा भी तवज्जो नहीं दे रही थीं। शिखर भी बस मेरे साथ बँधा-बँधा सा रहा वहाँ। मैं बीस मिनट वहाँ रहा। बिल्लो इतने में अपना बीसों बरस का इतिहास बता देना चाहती थीं। खाना खाकर ही जाने देना चाहती थीं। मैंने बहुत मना किया तो इस शर्त पर मानीं कि मैं अगले दिन सुबह उन्हीं के साथ खाना खाऊँगा। वापस आने लगा तो बिल्लो बाहर तक छोड़ने आईं। सूरज भी। उसके बच्चे भी। 

इसके बाद शिखर के साथ मैं इधर-उधर एक दो जगह और होकर घर आ गया। आठ बज रहे थे अब तक गाँव में लाइट भी आ गई थी। शिखर ने बताया लाइट दस बजे तक रहेगी। फिर कट जाएगी। और रात बारह बजे से फिर सुबह चार बजे तक रहेगी। मैंने कहा भइया मेरे सोने का इंतज़ाम छत पर ही करना। मैं देर रात खाना खाने का आदी हूँ। लेकिन यहाँ लाइट के चक्कर में लोग पहले ही खा लेते हैं।

छत पर ही मेरे लिए बिस्तर लगा था। ड्राइवर बोला वह जीप ऐसे ही नहीं छोड़ सकता। गेट के सामने जीप रहेगी। वह बगल में ही लॉन में सोया रहेगा। मेरे कहने पर वह वहीं की लोकल मच्छर अगरबत्तियाँ लेता आया था। चाचा भी नीचे ही सोए। शिखर अपने परिवार के साथ छत पर दूसरे कोने में चारपाइयों पर बिस्तर लगाए था। बड़ी सी छत पर मैं दूसरे कोने में था। सोने से पहले बड़ी देर तक वह मुझसे बातें करता रहा। 

मेरे कारण ज़्यादातर बातें बिल्लो पर ही केंद्रित रहीं। हम काफ़ी देर तक छत पर इधर-उधर टहलते हुए बातें कर रहे थे। मैंने देखा हर चौथे-पाँचवें मकान की छत पर या बाहर दरवाज़े पर एक एलईडी बल्ब जल रहा था। एलईडी का राज्य गाँव में भी फैल गया था। घर के दक्षिण साइड में जो एक बहुत बड़ा तालाब हुआ करता था, अचानक उसकी याद आने पर मैंने उधर देखा, तो पाया कि वह चौथाई ही रह गया है। एक गड़है जैसा। उसके बगल के घर के बल्ब की छाया उसके पानी में ऐसे पड़ रही थी जैसे पूरे आसमान में कोई एक बड़ा सा तारा निकल आया हो। 

शिखर ने बताया प्रधान और कुछ दबंगों ने मिलकर तालाब पाट दिया। ज़मीन बेच डाली। एक आदमी ने रोकने की कोशिश की थी। एक दिन उसे कुछ लोगों ने बुरी तरह पीट डाला। वह फिर भी नहीं माना। उसने आगे कार्यवाही चालू रखी। लेकिन एक दिन घर लौट रहा था तभी रास्ते में किसी ने गोली मार कर उसकी हत्या कर दी। पूरा गाँव जानता है कि किसने मरवाया। लेकिन कोई कुछ बोलता नहीं। उसकी बीवी एफ. आई. आर. दर्ज कराने के लिए कई साल भटकती रही। लेकिन पुलिस ने एफ. आई. आर. ही नहीं दर्ज की। उसकी बीवी पर भी आए दिन हमले होते रहे। भरी बाज़ार उसकी इज़्ज़त तार-तार करने की कोशिश की गई। आख़िर वो हार मान कर बैठ गई। 

यह सब सुन कर मुझे बड़ा दुख हुआ। मेरी आँखों के सामने बीस बरस पुराना दृश्य बार-बार आता रहा। क़रीब तीन बीघे का बहुत बड़ा तालाब हुआ करता था। उसी से पूरे गाँव के आस-पास के सारे खेत पंप लगा कर सींचे जाते थे। तालाब इतना गहरा, बड़ा था कि जब भारी बारिश होती थी तभी उसमें पानी ऊपर तक  आता था। मैं बचे-खुचे तालाब में बल्ब की छाया को देखते सिगरेट पीता रहा। और शिखर बताता रहा कि कैसे इस तालाब और इससे निकाली गई ज़मीन को हथियाने के चक्कर में देखते-देखते पाँच लोगों की हत्याएँ हो गईं। मैंने पूछा, "पुलिस में कोई नहीं जाता क्या? वह कुछ नहीं करती?" शिखर कुछ बोलता कि तभी लाइट चली गई। चारों तरफ़ घुप्प अँधेरा हो गया। शिखर ने चिंकी को दिया जलाने को कह दिया। उसने दीया जला कर छत के बीचो-बीच रख दिया। 

हम अब छत की बाऊँड्री से हटकर अपनी चारपाई पर बैठ गए। चिंकी का बच्चा रोने लगा। उसकी नींद खुल गई थी। जो टेबुल फ़ैन धीरे-धीरे चल रहा था, बिजली के जाते ही वह बंद हो गया था। बच्चा गर्मी से परेशान हो रहा था। चिंकी ने हाथ के पंखे से उसे हवा करनी शुरू की तब भी वह बीच-बीच में रोने लगता। आख़िर उसने दीवार की ओर करवट लेट कर उसे दूध पिलाना शुरू कर दिया। एक हाथ से पंखा भी करती रही। तब वह सोया। शिखर ने मच्छर वाली कुछ और अगरबत्तियाँ सुलगा दीं। गर्मी और बंद हवा देख कर मैंने शिखर से कहा, "यार लाइट बारह बजे तक तो आ जाएगी ना। उसने कहा "हाँ" मैंने कहा तब तक तो मुझे नींद आने वाली नहीं। तुम चाहो तो सो जाओ। वह बोला, "नहीं आने दीजिए लाइट, साथ ही सोऊँगा।" मैंने फिर सिगरेट सुलगा ली। 

शिखर ने मना करते हुए कहा, "आज कई बार हो गई। अब नहीं लूँगा।" शिखर फिर गाँव के बारे में तमाम बातें बताने लगा। मैंने देखा वह तमाम गाँव, दूसरों के घरों के बारे में तो ख़ूब बातें कर रहा था लेकिन अपने घर में जो महाभारत बरसों हुई उसके बारे में एक शब्द नहीं बोल रहा था। मैं भी जानबूझ कर नहीं कर रहा था कि कहीं कोई अप्रिय प्रसंग ना उभर आए। उसने अपने तीनों भाइयों के बारे में इतना ही बताया कि वे तीनों ही मुंबई में सेटिल्ड हो गए हैं। यहाँ अपना-अपना हिस्सा सब बेच-बाच दिया है। इस मकान के लिए बाबू जी ने भी क़ाग़ज़ पर सब लिखवा लिया है। 

अब यह मकान मेरे नाम है। और नौ बीघा खेत। यही बचा है। छः बीघा बँटाई पर है। तीन बीघा दो साल से पड़ती पड़े हैं। बहनें भी अपनी ससुराल में है। साल-दो साल में कभी-कभी आ जाती हैं। वो ख़ुद यहाँ से बीस किलोमीटर दूर एक स्कूल में टीचर था। लेकिन दो महिना पहिले नौकरी छूट गई। प्रबंधन ने अपनी ही एक लड़की के लिए जगह बनाने के चक्कर में उसे निकाल दिया। मैंने पूछा फिर घर का ख़र्च कैसे चल रहा है। उसने कहा "अभी तो कोई परेशानी नहीं है। महीने दो महीने में कहीं ढूँढ़ ही लूँगा। बाक़ी खाने-पीने भर का तो खेत से मिल ही जाता है।" 

उसकी दयनीय आवाज़ में मुझे उसकी वह परेशानी साफ़ दिख रही थी,जिसे वह छिपाने की कोशिश कर रहा था। मुझे आश्चर्य हुआ कि गाँव में रह कर भी खेती बँटाई पर दिए हुए है। और तीन बीघा परती पड़ी है। मैं बड़ी देर से यह सोच रहा था कि यह जगत बिल्लो बुआ के बारे में शायद बात करेगा। कल जाना है उनके यहाँ। अकेले जाते तो अच्छा नहीं लगेगा। आख़िर मैंने ही बात छेड़ी कि "बिल्लो का घर तो पहले यहीं हुआ करता था। ये बाज़ार में कैसे पहुँच गईं? और पहले तो इनके घर की बड़ी नाज़ुक हालत हुआ करती थी। इनके फादर बैजू बाबा आए दिन बाबा से मदद लिया करते थे। यही बिल्लो सवेरे-सवेरे घर में चूल्हा जलाने के लिए आग लेने आ जाया करती थीं।" शिखर कुछ देर चुप रहने के बाद बोला, "भइया ये बिल्लो बुआ ने ही घर का नक्शा बदला है। जब अलगौझी (बँटवारा) हुई तो बैजू बाबा और मुश्किल में आ गए थे। 

स्थिति कुछ ऐसी बनी कि कर्ज़ वग़ैरह के चक्कर में यहाँ वाला पूरा मकान इनके हाथ से निकल गया। आज जो मकान बाज़ार में हो गया है। वह जगह पहले गाँव का बाहरी एकांत हिस्सा हुआ करता था। वहीं एक किनारे तब अपने बाबा ने अपनी ही वह थोड़ी सी ज़मीन उन्हें दे दी थी। बैजू बाबा वहीं छप्पर डाल कर रहने चले गए। वहाँ परिवार के साथ बैजू बाबा की हालत बहुत ख़राब हो गई। अपने बाबा से उनकी दुर्दशा नहीं देखी गई। एक दिन बोले, "ई बैजुवा बड़ा अभागा बा। कहता था शाहखर्ची उतनी ही करो जितनी हर समय चल जाए। कर्जा ले लेकर यह सब करना अच्छा नहीं है। मगर कहने पर हाँ-हाँ कर लेता है। लेकिन करता वही है जो चाहता है। इसकी मुर्खता के कारण पूरा परिवार कष्ट उठा रहा है।"

दादी ने कहा, "जैसा किया है वैसा भरेंगे। कोई किसी का भाग्य विधाता तो नहीं बन जाएगा।" असल में भइया दादी जानती थीं कि बाबा बैजू की और मदद करने के लिए परेशान हैं। दादी यह नहीं होने देना चाहती थीं। बाबा ने दादी से पूछे बिना जो ज़मीन उन्हें लिख दी थी, उससे बहुत नाराज़ थीं। क्योंकि उनका मानना था कि मदद एक बार की जाती है। दो बार की जाती है। बार-बार नहीं। फिर ये तो कभी कुछ वापस करने वाले नहीं। जो करो उसे अपना अधिकार समझ लेते हैं। अहसान नाम की कोई चीज़ नहीं। लेकिन बाबा नहीं माने। बोले, "देखो पढ़ा-लिखा आदमी है। उसे पढ़ा-लिखा मूर्ख कहना ज़्यादा अच्छा है। मूर्ख ना होता तो उसकी यह हालत ही क्यों होती? कायस्थ है। सिर छिपाने की जगह तो होनी चाहिए ना। ऐसे तो लड़कियों की शादी भी नहीं कर पाएगा।"

दादी की अनिच्छा के बावजूद बाबा ने खपरैल, दिवार की पथाई का सारा इंतज़ाम करा कर रहने भर अच्छा-खासा बड़ा मकान बनवा दिया था। तब बैजू बाबा का परिवार अपने यहाँ से और गहरे जुड़ गया था। लेकिन बाद में फिर अपने ढर्रे पर चल निकला।" इसके बाद शिखर को बातें बताने में दिक़्क़त हो रही थी। मैंने देखा वह बातों को बड़ा फ़िल्टर कर के बताने का प्रयास कर रहा है। इस चक्कर में वह कई बार ट्रैक बदल रहा था। क्योंकि आगे की बातें मैं स्वयं बहुत कुछ जानता था। 

शिखर के ट्रैक बदलने का एक मात्र कारण यही था कि बैजू के यहाँ से खटास की वजह इन्हीं के फादर और चौथे चाचा ही थे।

यह दोनों लोग बाबा की दी ज़मीन वापस चाहते थे। क्योंकि मार्केट के कारण उसकी क़ीमत बढ़ गई थी। यह लोग बैजू के लिए दूसरा मकान भी बनवाने को तैयार थे। लेकिन बैजू तैयार नहीं हुए। इसीलिए दोनों चाचा अपने बाबा से भी नाराज़ रहते। शिखर इन्हीं कारणों से बोलना नहीं चाहता था। मच्छरों से आजिज़ आकर मैंने अपनी चारपाई के आस-पास कई और बत्तियाँ सुलगा दीं। पैर की तरफ़ सुलगाना चाहा तो शिखर बोला, "भइया पैताने अगरबत्ती नहीं सुलगानी चाहिए।" मैंने कहा, "यार कह सही रहे हो। लेकिन इन मच्छरों से बचने को लिए और कोई रास्ता भी नहीं है।" 

इस बीच मैंने शिखर की आवाज़ में आलस्य का अहसास कर उसे सोने के लिए कह दिया। अपनी चारपाई की मच्छरदानी हर तरफ़ से ठीक से लगाकर उसी के अंदर बैठ गया। मैं बहुत ऊबने लगा था। घर भी बात हो चुकी थी। सिगरेट कितनी फूँकता? कभी लेटता, कभी बैठता। बार-बार अपनी बुद्धि पर तरस खाता कि आख़िर रुका ही क्यों? बार-बार सोचता कि बारह जल्दी बज जाएँ, बिजली आ जाए तो गर्मी से राहत मिले। मेरे पास से जाने के बाद शिखर के खर्राटे की हल्की सी आवाज़ आने लगी थी। मैं समझ गया कि मेरे अलावा यहाँ सब सो गए हैं। बच्चा भी। उसकी भी आवाज़ नहीं आ रही थी। 

मेरे दिमाग़ में खेत कैसे बिकेगा इससे ज़्यादा बिल्लो की बातें याद आ रही थीं। उनके जीवन के उन तमाम उतार-चढ़ाव भरे दिन जो काफ़ी हद तक हम लोगों को मालूम थे। अपनी भूरी कंजी आँखों के कारण उन्हें बिल्लो, बिल्लोइया कह के सब चिढ़ाते थे। यह सुनते ही वह चिढ़ाने वाले को खूब ऊट-पटांग कहती थीं। कोई हमउम्र कहता तो मारने को दौड़ा लेतीं। सिकड़ी, गुट्टक खेलने में माहिर थीं। सावन के दिनों में जब झूला पड़ता तो बिल्लो की पेंगें मानों पेंग बढ़ाकर नभ को छू लेने को मचलतीं। जब वह झूले पर चढ़तीं तब डरपोक क़िस्म की लड़कियाँ, औरतें झूले पर नहीं बैठती थीं। 

बिल्लो गुड्डों-गुड़ियों के खेल में कभी कोई रुचि नहीं लेती थीं। खाना-पानी आदि के लिए उन्हें कहा जाता तो वह दूर भागतीं, लेकिन होली के वक़्त पापड़-चिप्स, बनाना, आचार, चटनी और कोहड़ौरी बनाने में इतनी रुचि लेतीं कि पड़ोसी भी उन्हें बुलाते। इन सब कामों में वह ऐसे लगी रहतीं जैसे ये काम ना होकर उनके लिए कोई खेल हो। 

तब कौन जानता था कि बिल्लो का यही खेल उनकी ज़िन्दगी में नया मोड़ लाने वाला साबित होगा। वह अपने इसी खेल से अपने ख़ानदान की नई क़िस्मत लिखने वाली हैं। बस कुछ ही बरसों बाद। साथ ही जगत बुआ भी बन जाएँगी। बिल्लो मुश्किल से हाई-स्कूल पढ़ पाई थीं कि उनकी शादी कर दी गई। तब बिल्लो बार-बार कहती रहीं कि "ऐ अम्मा अबहीं हमार शादी ना कर। हम्में पढ़े दे।" लेकिन अम्मा को अपनी बिटिया की आवाज़ कहाँ सुननी थी। उसकी आवाज़ की क़ीमत ही क्या थी? उन्हें तो बिटिया की चंचलता, हँसमुख स्वभाव में खोट दिखाई देता था। भय सताता रहता था कि बिटिया कहीं नाक ना कटा दे। इसके लक्षण ठीक नहीं हैं। जितनी जल्दी हो इसकी शादी करके ख़ानदान की इज़्ज़त सुरक्षित रखना बहुत ज़रूरी है। 

शादी जल्दी हो इसके लिए घर में कलह होती रहती थी। आख़िर आनन-फानन में बिल्लो की शादी कर दी गई। खाने-पीने की कमी ना हो यह देखने के अलावा और कुछ ज़्यादा देखने का प्रयास ही नहीं किया गया। नाक के फेर में बिटिया के भविष्य को लेकर घनघोर लापरवाही बरती गई। इस लापरवाही की आँच में बिटिया का भविष्य स्वाहा हो गया। लड़का उम्र में तो दस-बारह साल बड़ा था ही पूरा निठल्ला, शोहदा भी था। गाँव की एक चुड़िहारिन के साथ उसके संबंधों की चर्चा उससे आगे-आगे चलती थी। लेकिन जल्दबाज़ी, लापरवाही में बिल्लो के घर वालों को यह भी नहीं दिखा। 

मगर बिल्लो इसे क़िस्मत का खेल मान कर चुप बैठने वाली महिला ना थी। उसने अपने निठल्ले पति से साफ़ कह दिया। कि नशाबाज़ी ही नहीं चुड़िहारिन से भी रिश्ता ख़त्म करना ही होगा। चुड़िहारिन का नाम सुनते ही वह आपे से बाहर हो गया। मारपीट पर उतर आया तो बिल्लो ने भी पूरा प्रतिकार किया। वह गिर गया। नशे में था। लेकिन बात फैल गई कि बहुरिया ने आदमी को पीट डाला। और अब घर में रहने को तैयार नहीं। मानो भागी जा रही है। 

बिल्लो की ज़िद के आगे सब हार गए। बाबू, भाई ससुराल पहुँचे। ससुराल वालों ने सारा दोष बिल्लो पर ही मढ़कर उन्हें दोषी ठहराया था। बिल्लो अपनी जगह अडिग रही। साफ़ बोल दिया कि मेरी बात नहीं मानी जाएगी तो मैं नहीं रहूँगी यहाँ। ससुराल वाले मायके भेजना नहीं चाहते थे। बाबू, भाई लाना नहीं चाहते थे। बिल्लो ने कह दिया, "यहाँ नहीं रहूँगी बाबू। तुम भी नहीं रखना चाहते तो ना रखो। मैं कहीं भी चली जाऊँगी, मगर यहाँ नहीं रहूँगी।" सब समझाना, बुझाना, मनाना बेकार रहा। बाबू हार मान कर बिटिया को घर ले आए। कुल चार हफ़्ते का वैवाहिक जीवन बिता कर बिल्लो हमेशा के लिए मायके आ गईं। बाद में बहुतेरे प्रयास हुए मगर बिल्लो टस से मस नहीं हुईं। अपनी शर्त पर अड़ी रहीं। 

माँ-बाप, भाई का दबाव ज़्यादा हुआ तो कह दिया अगर हम इतना ही भारू हो गए हैं तो ठीक है हम घर छोड़ दे रहें हैं। कहीं काम-धाम करके, मड़ैया डाल के रह लेंगे। मगर वहाँ नहीं जाएँगे। बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा के आगे सब हार गए। बिल्लो हमेशा के लिए रह गईं मायके में। मगर बोझ बन कर नहीं। अपनी दुनिया नए ढंग से बनाने और उसमें सबको शामिल करने के लिए। मुझे वह दृश्य धुँधला ही सही पर याद आ रहा था। कि आने के बाद बिल्लो हँसना, बोलना एकदम भूल गई थीं। उनकी चंचलता, हँसमुख चेहरा कहीं खो गया। बड़ी-बड़ी बिल्लौरी आँखें, मक्खन सा गोरापन कुछ ही दिन में ऐसा कुम्हलाया कि बिल्लो टीवी पेशेंट सी लगने लगी। परिवार में उन्हें थोड़ी बहुत सहानुभूति मिली तो सिर्फ़ पिता से। 

माँ कुछ दिन तो चुप रही लेकिन उसके बाद उनकी कटुवाणी मुखर हो उठी। वह दिन पर दिन नहीं घंटों के हिसाब से मुखर हुई। दिलो-दिमाग़ पर पड़ी पति की गहरी चोट को माँ रोज़ ही कुरेद-कुरेद कर गहरा करती कि "मान जा, चली जा। कौन लड़की ज़िंदगी भर मायके में रही है। कोई राजा भी अपनी लड़की को रख नहीं सका है।" राजा जनक का उदाहरण देतीं कि "वह भी सीता को रख नहीं सके। हम सब तुम्हें कैसे रखेंगे। वो सब बुला तो रहे हैं बार-बार, जाती क्यों नहीं? ऐसे ज़िद करने से कुछ नहीं होने वाला। पूरे रीति-रिवाज़ से शादी की गई है। शादी कोई गुड्डा गुड़िया का खेल नहीं कि जब रिशियाए गए तब फेंक दिए। जानू कि नाहीं।" मगर बिल्लो सारी बात सुनकर चुप रही। बिल्कुल मौन साधे रही। ऐसे ही मौन उस दिन भी साधे थी। उनकी अम्मा बोले जा रही थीं। वह भी जो नहीं बोलना चाहिए। किसी पंडित ने कुछ पूजा पाठ करने, प्रदोष व्रत रखने को कहा था। अम्मा चाह रही थीं बिल्लो मान जाए, उसे करे। लेकिन उन्हें नहीं मानना था तो नहीं मानीं। 

अम्मा तब खीझ कर आपा खो बैठीं। कुछ ज़्यादा ही अनाप-शनाप बोल गईं। बिल्लो भी अपना मौन व्रत सँभाल ना सकीं। हो गया विस्फोट। फट पड़ी। कह दिया, "हम इतना ही भारू हो गए थे तो दबा देती गला। कहती तो मैं ख़ुद ही कहीं जाकर मर जाती। ज़िन्दगी भर के लिए उस निठल्ले अवारा बदमाश शराबी के पल्ले बाँध कर मुझे नरक में क्यों झोंक दिया। हमसे पिंड छुड़ाया था। हमने ऐसा कौन सा अपराध किया था जो मुझ से ये दुश्मनी निकाली।" 

बिल्लो का इतना बोलना था कि अम्मा के तन-बदन में जैसे आग लग गई। उन्होंने बिल्लो को मनहूस, कुलच्छनी घर पर पड़ी काली छाया तो कहा ही साथ ही यह धमकी भी दे दी, कि "तुम्हारी जिद नहीं चलेगी। वो तुम्हारा आदमी है। बियाह के ले गया था। तुम्हें वहाँ जाना ही होगा। महतारी-बाप शादी के बाद के साथी नाहीं हैं। तोहके ही खोपड़ी पर बैठाए रहब तो का बाकी लड़िकन के भरसाईं में डाल देई।" 

अम्मा की यह बात पूरी ही हुई थी कि दिवार पर छनाक से चुड़ियों के टूटने की आवाज़ आई। बिल्लो ने दोनों हाथ दिवार पर ऐसे मारे कि छनाक-छनाक सारी चुड़ियाँ टूट कर वहीं बिखर गईं। कलाई में चुड़ियाँ धँस गईं। ख़ून टपकने लगा। बिल्लो यहीं तक नहीं रुकी, माथे पर लगी बिंदी पोंछ दी। माँग में कई दिन पुराना भरा सिंदूर भी हाथ से रगड़ कर पोंछ डाला। थोड़ी दूर बाल्टी में रखे पानी को लोटे में लेकर माँग पर डाल-डाल कर सिंदूर को धो-धोकर उसका नामो-निशान मिटा दिया।

फिर हाँफती हुई चीख़ कर बोली "लो, लो मर गया आदमी, विधवा हो गई मैं। भाड़ में गई ससुराल। आज के बाद किसी ने नाम भी लिया तो मैं वो कर बैठूँगी जो तुम सब सोच भी नहीं पाओगे।" बिल्लो रोती जा रही थीं। लौट कर फिर वहीं बैठ गई जहाँ चूड़ियाँ तोड़ी थीं। बिखरी पड़ी चूड़ियों पर कलाइयों से ख़ून टपकता रहा। आँसू भी लगातार झरते रहे। रोते-रोते हिचकियाँ बँध गईं। और अम्मा जहाँ खड़ी थीं। बुत बनी वहीं खड़ी देखती रहीं। बिल्लो की चीख़-चिल्लाहट सुनकर भाई-बहन सब आ गए थे। संयोगवश मैं अपने फुफेरे भाई सतीश के साथ ठीक उसी समय पहुँच गया था। 

हम उसी दिन गर्मियों की छुट्टियों में वहीं पहुँचे थे। और बिल्लो से ही मिलने गए थे। हम उससे तब से मिलते बतियाते, आए थे जब वो पाँचवीं में पढ़ा करती थी। हम जब भी मिलते बिल्लो भी ख़ूब प्यार से मिलती-खेलती-बतियाती थी। हमने उससे गुट्टक खेलना भी सीखा था। जब और बड़ी हुई तो वो खाने को भी कुछ ना कुछ ज़रूरी देती। सोंठ मिला गुड़ उसको बहुत पसंद था। हमें भी वही देती। हम भी उनके लिए शहर की टॉफी ज़रूर ले जाते थे। उन्हें ज़रूर देते थे। ना जाने क्यों गाँव चलने की बात आते ही मेरे मन में अगर कोई तस्वीर सबसे पहले उभरती थी तो वह बिल्लो की ही। और फिर चलते समय उनके लिए अपने सामान में टॉफी छिपा कर ले जाना मेरा पहला काम था। सतीश के दिमाग़ में क्या आता था ये तो वो ही जाने, मैं नहीं जानता। 

यह बात घर, चाचा, सभी बुआओं के नज़र में आई तो सबने मज़ाक उड़ाना शुरू कर दिया। रिश्ते को दूसरा नाम देकर सब छेड़ते। कहते चलो अच्छा है पट्टीदारी से रिश्तेदारी हो जाएगी। बात बिल्लो के घर तक भी पहुँची तो उनके घर वाले भी हँसते, मज़ाक करते। हम दोनों का मज़ाक उड़ता। बिल्लो मज़ाक करने वाले को दौड़ा लेती। शुरुआती कई साल ऐसे ही बीत गए थे। हमारे उनके बीच एक किशोर-किशोरी का रिश्ता खेल-कूद, मिलना-जुलना बतियाना तक ही रहा। लेकिन जब किशोरावस्था पीछे-छूटने लगी तो हम दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति एक विशेष तरह का आकर्षण पनपने लगा था। जिसका मतलब उस वक़्त हम बहुत अच्छे से समझ नहीं पाते थे। 

यह स्थिति आगे चलकर और भावनात्मक लगाव में बदल गई। और जब मुझे बिल्लो की शादी की ख़बर अपने शहर में मिली थी तो मैं अजीब सी मनःस्थिति में पड़ गया था। इतना बेचैन हो गया था कि एक जगह बैठ नहीं पा रहा था। कभी इधर जाता कभी उधर। पढ़ाई में मन नहीं लग रहा था। मन में एक ही बात आती कि किसी तरह बिल्लो से मिल लेता। उसे मना कर देता कि मत करो शादी। मन में यही बात बार-बार आती कि बिल्लो की शादी कैैंंसिल हो जाए। मगर मन की मन में ही रही। बात आई गई हो गई। 

मैं फिर से अपनी दुनिया में मस्त हो गया। इन्हीं बिल्लो को जब उस दिन सतीश के साथ अपने हाथों अपने सुहाग चिन्ह मिटा कर विधवा बनते देखा तो एक दम शॉक्ड रह गया। कुछ देर समझ में ही नहीं आया कि हो क्या रहा है। मुझे बस एक ही बात समझ में आ रही थी कि बिल्लो रो रही है। कलाइयों से ख़ून बह रहा है। उनकी माँ हम दोनों को देख कर हैरान भी हो रही थीं और ग़ुस्सा भी कि ऐसे टाइम क्यों पहुँचे? खड़ा देख कर आख़िर बोल ही दिया कि "जा बचवा जा, बादि में आए।"

उनकी भी आँखें आँसुओं से भरी थीं। हम उल्टे पैर वापस हो लिए। सतीश ने मेरा मूड ख़राब देखकर कहा, "तुम्हें क्या हो गया? तुम इतना टेंस क्यों हो गए हो? ये उनकी पर्सनल प्रॉब्लम है। हमें क्या लेना-देना।" सतीश की ये बात मुझे अच्छी नहीं लगी। लेकिन मैं कुछ नहीं बोला। बस धीरे-धीरे चलता रहा। 

कैथाने से आगे बभनौटी की ओर क़दम अपने आप बढ़ते गए। उसी के क़रीब और आगे जाकर एक भीठा (ऊँचा टीला) था उसी पर चढ़ गया। उसके एकदम शिखर पर बैठ गया। तेज़ धूप गर्मी में यह पागलपन देखकर सतीश बोला, "ये तुम्हें क्या हो गया है? मेरी समझ में नहीं आ रहा है। बैठना है तो चलकर किसी पेड़ की छाया में बैठो, नहीं वापस घर चलो। इतनी हाइट पर बैठे हो। नीचे ढाल कितनी शार्प है। इतनी गर्मी में कहीं चक्कर आ गया तो फ़ुटबॉल की तरह लुढ़कते हुए नीचे पहुँचोगे। आस-पास नीचे से जा रहे लोग अलग देख रहे हैं कि कौन पागल चढ़ गए हैं।" 

बगल में खड़ा सतीश बोले जा रहा था। मैं जैसे कुछ सुन ही नहीं रहा था। नीचे जाकर जहाँ भीठा का ढलान ख़त्म हो रहा था। ठीक उसी से आगे एक तालाब था यही कोई आधे बीघे का छिछला सा। किनारे-किनारे बेहया के पेड़ लगे थे। जिनके सफ़ेद कुछ बैंगनी से फूल ऊपर से दिख रहे थे। वहीं किनारे एक नीम और महुवा का पेड़ था। मुझे कुछ बोलता ना देखकर, गर्मी से परेशान, खीझे सतीश ने हाथ पकड़ कर उठाया। 

बोला, "क्या यार, ये क्या पागलपन है? आख़िर मतलब क्या है? चलो उठो।" उसकी बात और उठाने पर मैं जैसे कुछ नॉर्मल हुआ। उठकर खड़ा हुआ और नीचे महुआ के पेड़ को देखते हुए उतर कर उसी के नीचे बैठ गया। पेड़ घना था, उसकी छाया में आराम मिला। पसीने से हम दोनों तर थे। बड़ी देर तक हम वहीं बैठे रहे। बिल्लो के लिए इस बार मैं कई चॉकलेट ले गया था। हम दोनों ने बैठे-बैठे वहीं ख़त्म कर दिया। प्यास सताने लगी तो घर वापस आ गए।

आज उसी बिल्लो को इतने बरसों बाद इस रूप में देखकर, और उसके खाने का निमंत्रण पाकर मैं फिर कुछ वैसी ही फ़ीलिंग्स से गुज़र रहा था। नींद नहीं आ रही थी। छत पर लेटे बाक़ी लोगों, गाँव का मामला होने के चलते छत पर चहल-क़दमी भी नहीं कर पा रहा था। सिगरेट कितनी पीता। नॉर्मली जितना पीता था उससे कहीं ज़्यादा पी गया था। लाइट आ चुकी थी। पास ही रखा टेबुल फैन चल रहा था लेकिन वोल्टेज इतना कम था कि पंखा पूरी तरह चल ही नहीं पा रहा था। मैंने पास ही रखे गिलास में जग से निकाल कर पानी पिया। और लेट गया। मैंने यह तय कर लिया था कि सवेरे बिल्लो के निमंत्रण का सम्मान करते हुए उसके साथ खाना खाऊँगा और फिर चला जाऊँगा, जौनपुर रिश्तेदार के यहाँ। इतना टेंशन लेकर यहाँ रुकने से क्या फ़ायदा?

अगले दिन सवेरे आठ बजे ही बिल्लो का फोन आ गया।

"का हो"

"सूरत"

"नरेश का करत हएय।" हमने बताया नाश्ता कर रहा हूँ। तो बोलीं, "ठीक है नाश्ता कई के आय जाओ।" मैंने सोचा इतनी जल्दी खाने का कौन सा टाइम। इसलिए कहा मैं खाना बारह-एक बजे तक खाता हूँ। तो उसने कहा, "जितने बजे तोहार मन होए ओतने बजे खाए। मगर आए तो जाओ। बैइठ के तनी घरवां का हाल-चाल बतियाव। एतना बरिस बाद आवा है तनी गंऊँवा के बारे में जाना-बूझा। जहाँ खेलत-कूदत रहअ सब जने।" बिल्लो इतना पीछे पड़ गई कि मैं नौ बजे उसके यहाँ पहुँच गया। शिखर को कुछ काम था तो वह बोला, "भइया मैं बारह बजे तक आ जाऊँगा।" 

बिल्लो ने पहुँचते ही पहला प्रश्न किया, "ई बतावा अपने बाबा, बाबू के नाई शाकाहारी अहै कि माँसो-मछरी खात हएय।" मैंने कहा मैं इस परंपरा को निभा नहीं पाया। तो वह बोली "चला ई बढ़िया बा। लकीर का फकीर ना बनेक चाही। जऊन नीक लगे उहै करै कै चाही।" इसके बाद तो बिल्लो ने नाश्ते से शुरुआत कर जो दो बजे तक खाने का प्रोग्राम चलाया, उससे मैं एकदम अभिभूत हो उठा। मैंने कल्पना भी नहीं की थी ऐसी मेहमाननवाज़ी की। उनका भतीजा उसकी पत्नी भी पूरी तन्मयता से लगे रहे। भतीजा बीच-बीच में बातचीत में भाग लेता रहा। और दुकान भी देखता रहा।

भतीजे की पत्नी अंशिता की फ़ुर्ती, खाना बनाने की निपुणता से मैं बहुत इंप्रेस हुआ। मैं बार-बार उसकी तारीफ़ किए बिना नहीं रह सका। बिल्लो इस तरह से अपने तखत पर बैठी थी मानो कोई महारानी अपने सिंहासन पर बैठी हो। वो एक के बाद एक आदेश देती जा रही थी। अंशिता उसका पालन किए जा रही थी। रसोई में उसका साथ देने के लिए एक नौकरानी थी। शिखर भी समय पर आ गया था।

मुझे वहाँ बिल्लो ने पूरा घर भी दिखाया। घर तो क्या एक बहुत बड़े आँगन के चारों तरफ़ बने क़रीब आठ-नौ कमरों का बड़ा सा मकान है। मैंने मकान की तारीफ़ की तो बिल्लो ने बिना संकोच कहा, "एके हम तोहरे बब्बा के कृपा मानित है। बाबू जब घरवां से हाथ धोए बैइठेन। रहे का ठिकाना नहीं रहा तब तोहार बब्बा हिंआ आपन जमीन दै दिहेन। रहे भर के बनवावे में मदद किहेन।" बिल्लो ने यह भी लगे हाथ बता दिया कि बाद में कुछ और ज़मीन उसने एक दूसरे गाँव के तिवारी बाबा की थी, वह भी दबा ली। थोड़ा लड़ाई-झगड़ा हुआ। लेकिन फिर सब ठीक हो गया।

परिवार में बिल्लो उसका भतीजा उसके तीन बच्चे एक नौकरानी है। आँगन में ज़मीन पर कोहड़ौरी (उड़द की दाल की बड़िया) सूख रही थीं। मैं क़रीब चार घंटे वहाँ रहा और बिल्लो ने जो बताया, दिखाया उसने मुझे आश्चर्य में डाल दिया। इन चार घंटों में गाँव की राजनीति में बिल्लो के ज़बरदस्त दख़ल की बातें अचरज में डाल रही थीं। 

खाना खा-पीकर अंततः जब हमने बिदा ली तो दोपहर भी बिदा ले रही थी। बिल्लो रोक रही थी कि धूप में कहा जाओगे? रुको। मगर मैं खेत देखना चाहता था। सही रेट पता करना चाहता था। क्योंकि जब बिल्लो को बताया कि मैं खेत बेचने आया हूँ तो उसने छूटते ही कहा, "गाँव से लगाव का एक बहाना है वह भी खत्म कर रहे हो। जब यह बहाना है तब तो इतने बरिस बाद आए। बेचे के बाद तो फिर ई मान के चलो कि ये आखिरी आना है तुम्हारा।" 

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टिप्पणियाँ

पाण्डेय सरिता 2021/05/02 06:55 AM

बहुत गहरी सच्चाई

कृपया टिप्पणी दें

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