बिटिया नहीं जान पाती
काव्य साहित्य | कविता संजय वर्मा 'दृष्टि’1 Sep 2021 (अंक: 188, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
माँ अब मेरे लिए
काजल नहीं बनाती
ये सब बचपन की बातें थी
कि मुझको नज़र ना लगे।
लेकिन मैं तो अभी छोटी हूँ
माँ की नज़रों में
भाग दौड़ की ज़िन्दगी में
मेरा लाड़-दुलार भी
खो सा गया है।
कि
मै सुनना चाहती हूँ
मेरे बचपन के नाम की
मुझे बुलाने के लिए माँ की
मीठी पुकार और
गरमा गरम रोटी
रात दूध पिया की नहीं
माँ की फ़िक्र को।
किंतु अब
दीवार पर माला डली है
मेरे टपकते आँसुओं को देख कर
मेरी माँ मुझसे जैसे कह रही हो
चुप हो जा मेरी बिटिया।
वही फ़िक्र के साथ
मै ख़्याल रखने वाला बचपन
वापस पाना चाहती हूँ
इसलिए माँ की तस्वीर से
मन ही मन
बातें किया करती हूँ आज भी।
मै सोचती हूँ कि
क्रूर इन्सान अब क्यों करने लगा है
भ्रूण-हत्याएँ
अचरज होता है कि
मैं जाने कैसे बच गई
माँ की ममता
क्या होती ये मैं
कभी भी नहीं जान पाती
यदि मेरी भी हो जाती भ्रूण हत्या।
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Avneesh kumar 2021/09/01 07:17 AM
बहुत उम्दा पंक्तियाँ