बुढ़ापा, एक बलिष्ठ मछुहारा
काव्य साहित्य | कविता डॉ. हरि जोशी23 Feb 2019
बुढ़ापा, तेरा जाल बहुत बलिष्ठ ही नहीं
अकाट्य और विस्तृत भी है,
कौन सी छोटी या, बड़ी मछली बच सकी तुझसे।
भले ही विशालकाय, समर्थ मगरमच्छ हों,
युवावस्था में असीम स्वेच्छाचारी या उच्छृंखल रहे होंगे,
तेरे नियंत्रण में आते ही मौन समर्पण करते रहे।
जब तक शरीर में शक्ति रही,
इसे पाने या उसे हथियाने,
एक कर दिये ज़मीन आसमान
सुविधा अवश्य मिली, जीवन चलाने की
पर वह सब कुछ नहीं मिला,
जो स्वप्न में संजोया था।
युवावस्था में अनियंत्रित व्हेल की तरह,
उलट पुलट करता रहा नावों, मल्लाहों को,
बुढ़ापा दूर खड़ा देखता, हँसता रहा।
मगरमच्छ, शासक, व्हेल या मल्लाह,
भले ही बुढ़ापे से दूरी बनाये रखें,
बुढ़ापे की प्रकृति ही निकटता बढ़ाना है।
फँसाता हरेक को अपने बाहुपाश में,
पहले आवागमन की स्वाधीनता देता है,
धीरे धीरे सारी सुविधा छीन लेता है,
अशक्त कर, बीमारी दे, गठरी बना पटक देता,
कौन बच पाया उस सर्वव्यापी दैत्य से,
दया दिखा जीवन की डोर भले लंबी कर दे,
उसका जाल क्रूर बहुत, समर्पण करा देता,
राजे रजवाडों का, शूरों, अखाड़ों का।
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