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बुढ़ौती में तीरथ

कहते हैं कि अंग्रेज़ों ने जब रेलवे लाइनें बिछा कर उस पर ट्रेनें चलाईं तो देश के लोग उसमें चढ़ने से यह सोच कर डरते थे कि मशीनी चीज़ का क्या भरोसा, कुछ दूर चले और भहरा कर गिर पड़े। मेरे गाँव में ऐसे कई बुजुर्ग थे जिनके बारे में कहा जाता था कि उन्होंने जीवन में कभी ट्रेन में पैर नहीं रखा। नाती-पोते उन्हें यह कर चिढ़ाते थे कि फलां के यहाँ शादी पड़ी है। इस बार तो आपको ट्रेन में बैठना ही पड़ेगा। इस पर बेचारे बुजुर्ग रोने लगते। दलीलें देते कि अब तक यह गाँव-कस्बा ही हमारी दुनिया थी... अब बुढ़ापे में यह फ़ज़ीहत क्यों करा रहे हो...। हाँ यह और बात है कि उन बुजुर्गों का जब संसार को अलविदा कहने का समय आया तो उनकी संतानों ने किसी तरह लाद-फांद कर उन्हें कुछेक तीर्थ करा देने की भरसक कोशिश की। अपने देश की प्रतिभाओं का भी यही हाल है। राजनीति, क्रिकेट और फिल्म जगत को छोड़ दें तो दूसरे क्षेत्रों की असाधारण प्रतिभाएँ इसी बुढ़ौती में तीरथ करने की विडंबना से ग्रस्त नज़र आती हैं। बेचारे की जब तक हुनर सिर पर लेकर चलने की क़ुव्वत होती है, कोई पूछता नहीं। यहाँ तक कि क़दम-क़दम पर फ़ज़ीहत और ज़िल्लतें झेलनी पड़ती हैं। लेकिन जब पता चले कि बेचारा काफी बुरी हालत में है... व्हील चेयर तक पहुँच चुका है या आइसीयू में भर्ती है और दुनिया से बस जाने ही वाला है तो तुरत-फुरत में कुछ सम्मान वगैरह पकड़ा देने की समाज-सरकार में होड़ मच जाती है। राष्ट्रीय स्तर पर किसी बड़े पुरस्कार की घोषणा होते ही नज़र के सामने आता है ... एक बेहद निस्तेज थका हुआ चेहरा...। सहज ही मन में सवाल उठता है ... यह पहले क्यों नहीं हुआ। क्या अच्छा नहीं होता यह पुरस्कार उन्हें तब मिलता जब तक वे इसकी महत्ता को समझ-महसूस कर पाने में सक्षम थे।

एक प्रख्यात गायक की जीवन संध्या में बैंक बैलेंस को लेकर अपने भतीजे के साथ विवाद हुआ। मामला अदालत तक गया। मसले का हल निकालने के लिए उस गायक ने किस-किस के पास मिन्नतें नहीं की। लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ। हाँ यह और बात है कि दिल पर भारी बोझ लिए उस शख़्सियत ने जब दुनिया को अलविदा कहा तो उनकी शवयात्रा को शानदार बनाने में समाज ने कोई कसर बाकी नहीं रहने दी। एक और मुर्धन्य गायक को जब जीवन संध्या पर सरकार द्वारा पुरस्कार की घोषणा का पता चला तो वे बेहद उदास हो गए और हताशा में कहने लगे... क्यों करती है सरकार यह सब...मेरी दो तिहाई ज़िंदगी तो दो पैसे कमाने की कोशिश में बीत गई... अब इन पुरस्कारों का क्या मतलब।

बुढ़ौती में तीरथ की विडंबना सिर्फ उच्च स्तर की प्रतिभाओं के मामले में ही नहीं है। छोटे शहरों या कस्बों में भी देखा जाता है कि आजीवन कड़ा संघर्ष करने वाली प्रतिभाएँ सामान्यतः उपेक्षित ही रहती हैं। समाज उनकी सुध तभी लेता है जब वे अंतिम पड़ाव पर होती हैं। वह भी तब जब उनकी सुध लेने या सहायता की कहीं से पहल हो। मदद का हाथ बढ़ाने वालों को लगे कि इसमें उनका फ़ायदा है। अन्यथा असंख्य समर्पित प्रतिभाओं को तो जीवन-संध्या पर भी वह उचित सम्मान नहीं मिल पाता, जिसके वे हक़दार होते हैं।

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