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बुढ़ौती प्राप्त करने की चाह

जीवों में जवान बने रहने की चाह कुदरती प्रवृत्ति है। हम मानते हैं कि मनुष्य जहाँ तक सम्भव हो जवान रहना चाहता है। जल्दी बूढ़ा होने का शौक़ तो कोई पागल ही पाल सकता है। परंतु यह सार्वभौमिक नियम नहीं है और इसमें अपवाद भी हैं। आजकल एक नया अपवाद उत्पन्न हो गया है- सरकारी नौकरों में जल्दी बुढ़ौती की चाह।     

एक ज़माना था जब सरकारी नौकर सरकार का दामाद हुआ करता था और सरकार उसकी वर्चुअल ससुराल हुआ करती थी। वर्चुअल ससुराल का अर्थ होता था कि नाम से सरकार और प्रभाव में ससुराल, जो मुफ़्त में दूध-मलाई खिलाती रहे और दामाद जी पड़े-पड़े मुटाते रहें। हम में से अधिकांश सरकारी दामादों की दिनचर्या होती थी निर्द्वंद्व रहकर 8 बजे तक पलंग तोड़ना, फिर आराम से 11-11.30 बजे तक आफ़िस पहुँचना, मन हो तो एक-दो घंटा काम करना और न हो तो जाते ही कुर्सी पर पैर पसारकर चाय का आर्डर दे देना, डेढ़ बजे लंच-ब्रेक पर चले जाना और लंच खाने के बाद डेढ़ घंटे नींद का ख़ुमार उतारना। इस सब के बाद तुर्रा यह कि वेतन को सरकार से मिलने वाला दहेज़ समझकर केवल ऊपरी आमदनी की उपलब्धता पर काम करना। ऐसी परमसुख की स्थिति में जीने वाले सरकारी दामादों को 60 वर्ष की आयु पर सेवानिवृत हो जाने के ख़याल से झुरझुरी आ जाती थी। इस ख़याल का डर आई.ए.एस. अफ़सरों को सबसे ज़्यादा सताता था, क्योंकि वे सरकार के सबसे चहेते और सबसे पैम्पर्ड दामाद हुआ करते थे।

इन 'दामादों' को पता नहीं किसकी बुरी नज़र लग गई कि मोदी जी के देश के प्रधान मंत्री बनते ही केंद्र शासन में शुरू हो गया सुबह-सुबह मुँहअँधेरे औनलाइन ब्रीफ़िंग, आफ़िस में बायोमीट्रिक अटेंडेंस, और रिज़ल्ट-ओरिएंटेड प्रफ़ोर्मेंस ऐप्रेज़ल का ‘दमन चक्र’। ऐसी समयबद्ध कार्यसंस्कृति की तो किसी 'दामाद' ने कल्पना भी नहीं की थी। केंद्र सरकार में कार्यरत अनेक आई.ए.एस. अफ़सरों को लगने लगा कि उन्हें इंद्रासन से पदच्युत कर हिटलर के ज़माने का यहूदी जैसा बना दिया जा रहा है। अतः उनमें से जिन-जिन की गोटी राज्य के काडर में फ़िट थी, वे वापस अपने राज्य में ग्रीनर-पास्चर की तलाश में चले गये। कुछ 'दामादों' को सरकार ने अनुपयोगी बूढ़ा पाकर जबरन सेवामुक्त कर दिया और उनकी महती ‘सेवाओं’ से जनता को निजात दिला दी।  कुछ आई.ए.एस. अफ़सर तथा दूसरे कर्मचारी इतना घबरा गये कि उनमें जल्दी बुढ़ौती पाने की चाह जाग गई। उन्होंने स्वयं पर बुढ़ापा ओढ़ लिया और अर्ज़ी लगा दी कि उनके बुढ़ापे के मद्देनज़र उन्हें ऐच्छिक सेवानिवृति दे दी जाय। सरकार ने उन्हें सहर्ष बूढ़ा मानकर उनकी अर्ज़ी अविलम्ब स्वीकार कर ली।

यहाँ तक तो जल्दी बुढ़ौती की चाह का कारण समझ में आता है। परंतु कुछ ऐसे शासकीय कर्मी, जो उपर्युक्त में किसी भी विशिष्ट श्रेणी में नहीं आते हैं और साठ साल की आयु प्राप्त होने पर अनैच्छिक सेवानिवृत हुआ करते हैं, में भी जल्दी बुढ़ौती प्राप्त करने की इच्छा बलवती होती जा रही है। सेवानिवृति के कुछ दिनों बाद ही उन्हें भान हो जाता है कि हमारी सरकार अपने ‘दामादों’ के प्रति अपनी दरियादिली में सेवानिवृति के उपरांत भी कमी नहीं आने देती है। वे सरकार का धेले भर का काम नहीं करते हैं, पर उनकी पेंशन में प्रत्येक छमाही में बढ़ोत्तरी होती रहती है; और बढ़ोत्तरी भी थोड़ी-बहुत नहीं, वरन इतनी कि वे नौकरी में रहते हुए जितनी तनख़्वाह पर सेवानिवृत होते हैं, अक्सर उससे कई गुनी ज़्यादा पेंशन पाते हैं। और यदि 'दामाद जी' अपनी पत्नी से पहले टें बोल जायें, तो पत्नी को भी अच्छी ख़ासी पेंशन मिलती रहती है। 'दामाद जी' के स्वास्थ्य का पूरा ख़याल रखना और उन्हें परिवार सहित मुफ़्त इलाज दिलाना तो सरकार का ससुराली कर्तव्य बनता ही है।

इन सब ससुराली तोहफ़ों के अतिरिक्त बुढ़ापा बढ़ने के साथ पेंशन का प्रतिशत बढ़ाते रहने का राज़ समझ पाना सामान्य बुद्धि से परे है। उम्र बढ़ने के साथ ख़र्चे कम होने लगते हैं, क्योंकि होटलों और क्लबों में रोज़-रोज़ जाने, महँगा खाने, महँगी पीने, महँगा पहिनने और महँगी यात्रायें करने की इच्छा और शारीरिक शक्ति घटती है। पर सरकार को पता नहीं क्या मज़ाक सूझा है कि जैसे ही 'दामाद जी' अस्सी वर्ष के होते हैं, पेंशन 20 प्रतिशत बढ़ा देती है, पचासी का होते ही 30 प्रतिशत बढ़ा देती है, 90 का होने पर 40 प्रतिशत बढ़ा देती है, 95 का होने पर 50 प्रतिशत बढ़ा देती है और सौ का होने पर 100 प्रतिशत बढ़ा देती है। अब भई, पैसा बढ़ना किसे बुरा लगता है- हर पाँच साल में पेंशन बढ़ने और सौ वर्ष का होने पर सौ फ़ीसदी बढ़ोत्तरी की कल्पना कर पेंशनरों में जल्दी बुढ़ौती प्राप्त करने की अदम्य चाह जागृत हो रही है।

मैं यह तो जानता हूँ कि अधेड़ उम्र तक लोगों (विशेषकर स्त्रियों) को अपनी उम्र छुपाने की चाह होती है और बुढ़ौती में अपनी उम्र ज़्यादा बताने की चाह होती है, परंतु कोई सामान्य व्यक्ति शीघ्र बुढ़ौती को प्राप्त होने की चाह नहीं रखता है। हाँ, सरकारी 'दामादों' की बात अलग है।

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